वैदिक सभ्यता
सिन्धु घाटी सभ्यता (या हड़प्पा सभ्यता) तथा ताम्र पाषाणयुगीन संस्कृतियों के पतनोपरांत भारतीय उपमहाद्वीप में अनेकानेक नवीन संस्कृतियों का आविर्भाव हुआ, जिनमें सर्वाधिक प्रमुख सप्तसैंधव प्रदेश में पनपी आर्य सभ्यता थी, जिसका विकास आर्यों ने किया था। इसे इतिहास में ‘वैदिक सभ्यता’ के नाम से जाना जाता है। यह एक ग्राम प्रधान सभ्यता थी। इस सभ्यता एवं संस्कृति के संबंध में जानकारी प्रदान करने वाले प्रमुख स्त्रोत चार वेद हैं, इसीलिए इसका ‘वैदिक सभ्यता’ नामकरण हुआ। वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य थे। आर्यों के भारत में आगमन, प्रसार एवं विकास की सूचना प्रदान करने का प्रमुख स्रोत ऋग्वेद ही है। यह आर्यों का प्राचीनतम ग्रंथ है।
आर्यों का मूल निवास : भाषा विज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, शरीर रचनाशास्त्र व नृजातीय तत्त्वों के आधार पर आर्यों के मूल निवास के संबंध में निम्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है-
यूरोपीय सिद्धान्त : इस सिद्धान्त के अनुसार आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप था। इसका प्रतिपादन सन् 1786ई. में सर विलियम जोन्स ने किया। पी. गाइल्स, पेंड्का, नेहरिंग आदि भी इसी मत के समर्थक हैं।
जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर के अनुसार आर्य मध्य एशिया (ईरान व आसपास के क्षेत्र से) से आए थे। इनके पक्ष में पोट, श्लीगल, मेयर एवं रेहर्ड आदि विद्वान भी हैं। मध्य एशिया के प्रसिद्ध बोगजकोई अभिलेख में इन्द्र, वरुण, मित्र व अनेक वैदिक देवताओं का उल्लेख है जो आर्यों के मध्य एशियाई होने का प्रमाण है। साथ ही आर्यों के प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद व ईरानी ग्रंथ जेन्द अवेस्ता में भाषाई समानता का होना भी इस पक्ष में प्रभावी प्रमाण है।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने आर्कटिक प्रदेश (उत्तरी ध्रुव) को आर्यों का मूल स्थान बताया है।
*डॉ. गंगानाथ झा के अनुसार आर्यों का आदि देश ब्रह्मर्षि देश (कुरु, पांचाल, शूरसेन तथा मत्स्य जनपद) भारत था।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यों का आदि देश माना है। ‘पार्जितर’ ने भी इनके मत का समर्थन किया है।
पी. गाइल्स ने आर्यों को समशीतोष्ण प्रदेश (विशेषतः हँगरी क्षेत्र) का मूल निवासी बताया है। पेन्काहार्ट इन्हें जर्मनी का मूल निवासी मानते हैं। उन्होंने अपने तर्क के पक्ष में आर्यों की शारीरिक विशेषता जैसे-रक्त, वर्ण, भूरे बाल आदि का जर्मन लोगों से साम्य होने का उल्लेख किया है।
- दक्षिणी रूस के स्टेपी मैदानों को आर्यों का मूल निवास मानने वाले विद्वान गार्डन चाइल्ड, नेहरिंग व पीकानो हैं।
- एल.डी. काला आदि विद्वान आर्यों का मूल निवास कश्मीर क्षेत्र को मानते हैं।
- एडवर्ड मेयर पामीर के पठार को तथा रोड्स बैक्ट्रिया को आर्यों का मूल स्थान मानते हैं। सेउस इन्हें केस्पियन सागर क्षेत्र से आया मानते हैं।
- अविनाश चन्द्र एवं संपूर्णानंद आर्यों को सप्तसैंधव प्रदेश का ही मूल निवासी मानते हैं, जबकि श्री राजबलि पाण्डेय इन्हें मध्य देश (भारत का मध्यभाग) का मानते हैं।
- सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त: प्रो. मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित मध्य एशिया के सिद्धान्त को अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार 1500 ई. पूर्व के आसपास आर्यों की एक शाखा ईरान होते हुए भारत आई।
- भारत में आर्यों का आगमन लगभग 1500 ई.पू. का माना जाता है। प्रारम्भ में इनके अधिवास का प्रधान केन्द्र सप्त सैंधव प्रदेश (सिन्धु व उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र) था, धीरे-धीरे इन्होंने यहाँ पहले से रह रहे अनार्यों को पराजित कर सरस्वती व दृषद्वती (वर्तमान घग्घर) नदियों के भू-भाग पर अपना अधिकार किया, जो उत्तरवैदिक काल में गंगा-यमुदा के मैदान में स्थानान्तरित हो गया। वैदिक ग्रंथों (चारों वैद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ यथा उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक आदि) के लेखन काल तथा विषयगत सामग्री के आधार पर वैदिक काल को दो भागों में बाँटा गया है-
- 1000 ई.पू.) 1. ऋग्वैदिक काल – (1500 ई.पू.
- 2. उत्तरवैदिक काल – (1000 ई.पू. –
- 600 ई.पू.)
- वैदिक सभ्यता का भौगोलिक विस्तार : प्रारम्भ में वैदिक सभ्यता का विस्तार एवं प्रभाव क्षेत्र बहुत कम था। ऋग्वैदिक आर्यों का मुख्य आवास सिन्धु तथा सरस्वती नदियों का घाटी प्रदेश था, जिसे उन्होंने ‘सप्त सैंधव’ प्रदेश नाम दिया। धीरे-धीरे उत्तरवैदिक काल में आर्यों ने अपना विस्तार बहुत बड़े भू-भाग पर कर लिया। ई. पूर्व 1000 ई. के आस-पास लौह निर्मित्त अस्त्रों की सहायता से आर्यों ने गंगा-यमुना दोआब जैसे अत्यधिक उपजाऊ क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया। उत्तरवैदिक काल में आर्य सभ्यता के चार प्रमुख क्षेत्र निम्न थे-
- ब्रह्मवर्त : कुरूक्षेत्र के आस-पास का क्षेत्र
- ब्रह्मर्षिदेश: गंगा यमुना दोआब का क्षेत्र
- मध्य देश: हिमालय तथा विंध्य के मध्य का क्षेत्र
- आर्यावर्त:आर्यों का संपूर्ण क्षेत्र
वैदिक सभ्यता का सामाजिक जीवन
- ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन सादगीपूर्ण, समानता पर आधारित एवं पवित्र था। संपूर्ण सामाजिक संगठन आर्य ‘जनों’ से मिलकर बना था। प्रारंभिक समाज ‘आर्य’ एवं ‘अनार्य’ दो वर्गों में विभक्त था। ऋग्वैदिक काल के अंतिम समय में समाज में चतुर्वर्ण व्यवस्था का आविर्भाव हुआ था। ऋग्वेद के 10वें (अंतिम) मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार चार वर्णों का वर्णन है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों की उत्पत्ति क्रमशः ब्रह्मा (या सृष्टा) के मुख, भुजाओं, जंघाओं एवं पैरों से होना बताई गई है। ऋग्वेद में जन्म पर आधारित या वंशानुगत सामाजिक वर्ण व्यवस्था का उल्लेख कहीं पर भी नहीं किया गया है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यता, क्षमता एवं व्यक्तिगत रुचि के अनुसार अपना व्यवसाय चुनने का पूर्ण अधिकार था। अतः ऋग्वैदिक काल में समाज में वर्ण आधारित असमानता के होने का प्रमाण मौजूद नहीं है।
- उत्तर-वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था (चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इस काल में वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गई, जो कि पूर्व में कर्म आधारित थी। चारों वर्णों में सामाजिक व धार्मिक स्तर पर भेद उत्पन्न हो गया। ब्राह्मण व क्षत्रियों की समाज में विशेष स्थिति हो गई।
- वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था, पिता अथवा बड़ा पुरुष परिवार का मुखिया होता था। संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन था। परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने कर्त्तव्यों का पूर्णनिष्ठा से पालन करता था। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त था। स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। घोषा, अपाला आदि इस काल की प्रमुख विदुषी महिलाएँ थीं।
- स्त्रियों में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी। महिलाएँ स्वतंत्र होने के बावजूद अपने परिवारजनों के संरक्षण व नियंत्रण में रहती थी। सती प्रथा के प्रचलन का उल्लेख भी ऋग्वैदिक काल में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में पुत्री के लिए ‘दुहिता’ शब्द का प्रयोग किया गया है। बाल विवाह प्रथा विद्यमान नहीं थी।
- पत्नी को पूरा सम्मान प्राप्त था, पत्नी के बिना यज्ञादि धार्मिक क्रिया-कलाप पूरे नहीं होते थे। महिलाएँ अपने पति के साथ धार्मिक समारोहों, अनुष्ठानों एवं कबीलाई सभाओं में भाग लेती थी। पुत्रियों को भी पुत्र के समान उपनयन, शिक्षा-दीक्षा का अधिकार था। उत्तर वैदिक काल में नारी की स्थिति निम्नतर होने लगी तथा उन्हें कुछ हद तक शिक्षा से वंचित किया जाने लगा। उत्तर वैदिक काल में स्त्री शिक्षा की स्थिति शोचनीय हो गई थी, लेकिन इस काल में भी गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाएँ हुई। उत्तर वैदिक काल में महिलाओं का सभा एवं समिति नामक सभाओं में बैठने का अधिकार समाप्त हो गया। बाल विवाह का प्रचलन होने लगा था। ऐतरेय ब्राह्मण में पत्नी को मित्र कहा गया है।
ऋग्वेदिक समाज एवं राज्य की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। परिवार को ‘कुल’ व परिवार के मुखिया को ‘कुलप’ (या ग्रहपति) कहा जाता था। अनेक परिवारों को मिलाकर ‘ग्राम’ का निर्माण होता था। ग्राम के प्रधान को ‘ग्रामणी’ कहा जाता था। अनेक ‘ग्रामों’ को मिलाकर एक ‘विश’ का निर्माण होता था। ‘विश’ के सर्वोच्च अधिकारी को ‘विशपति’ कहा जाता था। अनेक ‘विशों’ को मिलाकर ‘जन’ का निर्माण होता था। ‘जन’ के सर्वोच्च अधिकारी को ‘रक्षक’, ‘गोपति’ या ‘राजन’ कहा जाता था, जिसका तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण व सर्वोच्च स्थान था।
शिक्षाः वैदिक युग में शिक्षा ‘श्रुति-कण्ठस्थ’ (मौखिक) प्रणाली पर आधारित थी। ऋग्वेद के 7वें मण्डल में शिक्षा से संबंधित उल्लेख है। विद्यार्थी के रूप में ‘ब्रह्मचारी’ का उल्लेख ऋग्वेद के 10वें मण्डल में है। विद्यार्थी ‘गृहवासी’ (घर में रहकर शिक्षा प्राप्त करने वाले) एवं ‘अंतेवासी’ (गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने वाले) होते थे। सामान्यतः विद्यार्थी उपनयन संस्कार के बाद गुरु आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करता था। वेद-मंत्रों का मौखिक पाठ कराकर कण्ठस्थ किया जाता था। लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार था। स्त्री शिक्षा के लिए पृथक व्यवस्था नहीं थी। लड़कियाँ भी वैदिक गुरु आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करती थी। कई विदुषी महिलाओं यथा- लोमशा, लोपामुद्रा, पौलोमी, शची, सिकता, विश्वश्वरा, घोषा, अपाला आदि ने वैदिक ऋचाओं की रचना की थी।
मनोरंजनः आर्यों को संगीत विशेष प्रिय था। वे सात स्वरों के ज्ञाता थे। उनके वाद्य यंत्रों में ‘कर्करि (वीणा)’, नाड़ी (बाँसुरी), द्वन्द्वांभ (ढोलक), शंख (श्रृंग), झांझ (आघट्ट) एवं मृदंग इत्यादि थे। मेले एवं नृत्य तथा शिकार करना भी उनके मनोरंजन के साधन थे। पासे से जुआ भी खेला जाता था। घुड़दौड़ एवं रथदौड़ का आयोज़न भी होता था।
वस्त्राभूषणः आर्य लोग तीन प्रकार के वस्त्र पहनते थे-(i) अधिवास या द्रापि (ऊपरी वस्त्र) (ii) वास (कमर के ऊपर शरीर का वस्त्र) (iii) नीवी (कमर के नीचे का अधोवस्त्र)
- सूती, ऊनी, रेशमी एवं मृगचर्म से बने वस्त्रों का प्रचलन था। आर्यों द्वारा पहने जाने वाले प्रमुख वस्त्र हैं, तार्ण्य (रेशमी वस्त्र), पाण्ड्य (ऊनी वस्त्र), अधिवास (चौगा), उष्णीय (पगड़ी), कौशवास (स्त्रियों का पहना जाने वाला रेशमी वस्त्र), उपवास (शॉल), वाधूय (वधु द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र) आदि।
- स्त्री व पुरुष दोनों स्वर्ण एवं चांदी से बने आभूषण पहनते थे। ऋग्वेद में निष्कग्रीव (गले का हार), मणिग्रीव (मोतियों का हार), कुरीर (माँग का टीका), तथा कर्णशोभन, अथर्ववेद में कुम्ब (सिर का आभूषण), मुद्रिका या खादि (अँगूठी), प्रवर्त (कान की बाली), रूक्म (वक्ष का आभूषण) आदि आभूषणों का उल्लेख मिलता है। भुजबंद, कर्णफूल एवं नुपूर स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। स्त्री व पुरुष दोनों के केश विन्यास एवं केश प्रसाधन के उल्लेख ऋग्वेद में मौजूद हैं। स्त्रियों द्वारा वेणी बनाने एवं भिन्न-भिन्न शैली में बाल बनाने का प्रचलन था। पुरुषों में दाढ़ी बढ़ाने की प्रथा विद्यमान थी। उस्तरे के लिए संभवतः ‘क्षुर’ तथा नाई के लिए ‘वाप्तृ’ शब्द का उल्लेख है।
- खान-पानः ऋग्वैदिक काल में लोगों का मुख्य भोजन दूध एवं दूध से बने पदार्थ जैसे खीर, दही, घी आदि थे। अनाज को पीसकर या सेक कर दूध व घी के साथ ग्रहण किया जाता था। क्षीरपाक मोदनं (खीर), अपूपघृतवंत (मालपुए या पूड़ी), करंम (जौ का सत्तू) तथा मट्ठा (दही को मथकर बना पेय) तैयार कर बड़े शौक से खाया जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर आर्यों द्वारा मांस सेवन का भी उल्लेख मिलता है। गाय को अन्ध्या (वध न करने योग्य) कहा गया है।
- आर्यों में ‘सोमरस’ का अत्यधिक बलवर्धक, विद्या एवं बुद्धि प्रदायक एवं गुणकारी पेय के रूप में प्रचलन था। ऋग्वेद के 9वें मंडल में सोम देवता की स्तुति में अनेक सूक्त रचित हैं। सुरापान के प्रचलन के उल्लेख भी हैं, परन्तु इसे निंदनीय व त्याज्य कहा गया है। उत्तर वैदिक काल में भी लोगों का खान-पान पूर्व की भाँति ही था, परन्तु कुछ नये-नये व्यंजन यथा क्षीरोदन, तिलोदन, अपूप, ब्रह्मोदन आदि प्रयुक्त किये जाने लगे। सामान्यतः इस काल में भी सुरापान व मांस भक्षण को अनुचित माना जाता था।
वैदिक लोगों का आर्थिक जीवन
- ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था प्रधानतः ग्राम्य जीवन आधारित थी। लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत पशुपालन एवं कृषि था। भूमि के दो प्रकार थे-उर्वरा (उपजाऊ) एवं खिल्प। उर्वरा भूमि व्यक्तिगत स्वामित्व की थी तथा खिल्प भूमि पर संपूर्ण ग्राम का स्वामित्व होता था। ‘इल’ का प्रयोग होता व्या। हल हेतु ‘वृक’ या ‘लांगल’ शब्द का उल्लेख मिलता है। सामान्यतः कुएँ (अवट) से सिंचाई की जाती थी। संभवतः नाली या नहर (कुल्या) की पद्धति विद्यमान थी। वर्ष में दो फसलें ली जाती थी। वर्षा पर निर्भरता अधिक थी। ऋग्वैद में बादलों को ‘पर्जन्य’ कहा गया है।
- उत्तरवैदिक काल में बढ़ती जनसंख्या के भरण-पोषण हेतु अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि की विभिन्न पद्धतियों एवं तकनीकों का विकास हुआ। खाद का उपयोग प्रारंभ हुआ। सिंचाई हेतु कुएँ, नहर एवं वर्षा का पानी प्रयुक्त होता था। उन्नत कृषि उपकरणों का विकास हुआ। कृषि भूमि पर कृषक का व्यक्तिगत स्वामित्व स्थापित हुआ तथा बड़े भूमिपतियों की संख्या बढ़ी।
- पशुपालन भी पूर्व की भाँति दूसरा महत्त्वपूर्ण आजीविका निर्वाह साधन था। गाय का महत्त्व यथावत था। बैल भी पूज्य हो गया। हाथी, घोड़ा, कुत्ता, बकरी, भैंस, गधा, भेड़ आदि भी पाले जाते थे।
- कृषिः वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्यतः पशुपालन एवं कृषि पर आधारित थी। ऋग्वेद के प्रथम, चौथे एवं दसवें मंडल में
- कृषि विषयक तथ्य मिलते हैं। प्रारंभ में आर्यों को ‘यव’ (जौ) एवं ‘धान्य’ एवं गोधूम (गेहूँ) अनाजों की जानकारी थी।
- गेहूँ (गोधूम) का उल्लेख बाद के वेदों में अधिक मिलता है। उत्तर-वैदिक ग्रंथों में उड़द (भाष), वृहि (चावल), मृदग (मूंग), मसूर, ईक्ष (गन्ना), कपास, तिल आदि का उल्लेख भी है। शतपथ ब्राह्मण में कृषि-विषयक पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है।
- ऋग्वैद में भूमि की माप की इकाई के रूप में ‘खिल्य’ का उल्लेख है।
- पशुपालनः पशुपालन ऋग्वैदिक आर्यों की आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्त्रोत था। पशुधन समृद्धि का प्रतीक था। आर्यों को गाय, घोड़ा, भेड़-बकरी, बैल, हाथी, कुत्ता, भैंस, गधा, ऊँट आदि पशुओं की जानकारी थी। ‘गाय’ ऋग्वैदिक काल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पशु थी। ‘गोदान’ श्रेष्ठ माना जाता था। गाय को विनिमय का माध्यम (मुद्रा) के रूप में प्रयोग किये जाने का उल्लेख मिला है। घोड़ा भी आर्यों का महत्त्वपूर्ण पालतू पशु था। इसे सवारी, घुड़दौड़ एवं रथ संचालन में प्रयुक्त किया जाता था। घोड़े का दान भी महत्त्वपूर्ण माना जाता था। अर्थवेद में सिंह, व्याघ्र आदि जंगली जानवरों का उल्लेख भी है। कृषि का पर्याप्त विकास होने के बाद उत्तरवैदिक काल में पशुपालन आजीविका का कृषि के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हो गया। पक्षियों को ऋग्वेद में ‘वायव्य’ कहा गया है।
- व्यापार-वाणिज्यः ऋग्वेद में ‘वासोवाय’ (वस्त्र बुनकर), औरत्वष्ट, ‘तक्षा’ या त्वष्टा (बढ़ई), चर्मण्ण (मोची), वैद्य, कुलाल (मृदुभाण्ड बनाने वाले), कर्मार (धातुशिल्पी), सुनार (हिरयण्कार), वासु (नाई) आदि व्यवसायों का उल्लेख है। ऋग्वैदिक आर्यों को सोना एवं ताँबा धातु की जानकारी थी। चाँदी का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है ऋग्वेद में नहीं। आर्यों ने लोहे को उपयोग में लिया था। लोहे के लिए अथर्ववेद में ‘श्याम या कृष्ण अयस’ तथा ताँबे के लिए लोहित अयस शब्द काम में आया है। ‘हिरण्य’ शब्द स्वर्ण हेतु प्रयुक्त हुआ है, जिससे आभूषण व निष्क (मुद्रा) बनाये जाते थे। ऋग्वेद में चमड़े के व्यवसाय का उल्लेख भी आया है। उत्तर वैदिक काल में शीशा, टिन (त्रपु), चाँदी आदि धातुओं के उपयोग से धातुकर्म व्यवसाय उन्नत हुआ।
- व्यापारियों के लिए ऋग्वेद में ‘पणि’, ‘वणिज’ एवं ‘वणिक’ आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। सूत के लिए ‘तन्तु’ शब्द प्रयोग किया जाता है। वैदिक काल में फारस की खाड़ी वाले देशों से व्यापार करने वाले व्यापारियों को ‘देवपणि’ कहा गया है।
- इस काल में वस्त्र बुनाई का कार्य प्रमुख शिल्प था। इस हेतु करघा या तसर प्रयुक्त किया जाता था। कपड़ों पर कढ़ाई व बुनाई करने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। बुनाई कार्य मुख्यतः महिलाएँ करती थी, परन्तु पुरुषों द्वारा भी बुनाई कार्य किया जाता था। कुंभकार द्वारा ‘चाक’ (कुलाल) से बर्तन बनाने का उद्योग भी विद्यमान था। बैलगाड़ी एवं घोड़ागाड़ी का प्रयोग यातायात हेतु किया जाता था। जल मार्ग में पालदार नौकाएँ प्रयुक्त की जाती थीं। वैदिक काल में अनाज, वस्त्र एवं चमड़े का व्यवसाय भी उन्नत अवस्था में था। धन का उधार के रूप में लेन-देन भी संभवतः प्रचलित था।
- ऋऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था एक निर्वाह प्रधान अर्थव्यवस्था थी। ऋग्वैदिक काल में व्यापार छोटे स्तर पर था तथा मुख्यतः वस्तुं विनिमय प्रणाली (Barter System) प्रचलित थी। वस्तु विनिमय के माध्यम के रूप में ‘गाय’ सर्वाधिक प्रचलित थी एवं घोड़े व निष्क (स्वर्ण मुद्रा) का प्रयोग भी वस्तु विनिमय के माध्यम के रूप में किया जाता था।
- धातुओं को गलाकर उसे पीटकर विभिन्न वस्तुएँ बनाने के कार्य (धातुकर्म) में आर्य लोग कुशल थे। उत्तर वैदिक काल में आर्यों की ग्राम प्रधान अर्थव्यवस्था में कुछ नगरों का विकास हुआ। नगरों में व्यापार-वाणिज्य का पर्याप्त विकास दृष्टिगोचर होता है। काशी, मथुरा, विदेह आदि प्रमुख व्यावसायिक नगर के रूप में विकसित हो गये थे।
- व्यापारियों के प्रधान को ‘श्रेष्ठिन’ कहते थे। तौल की
- मुख्य इकाई कृष्णल थी। अथर्ववेद में घुमन्तु व्यापारियों का उल्लेख है।
- उत्तरवैदिक काल में व्यापार-वाणिज्य की अच्छी प्रगति हुई। व्यापारियों की एक श्रेणी का प्रधान ‘श्रेष्ठिन्’ कहलाता था। व्यवसाय क्रमशः वंशानुगत होने लगे थे। लौहे के अत्यधिक प्रयोग ने आर्यों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया था। इस काल में श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण प्रणाली का विकास प्रारंभ हो चुका था। लौह एवं अन्य धातुओं के उद्योगों के साथ-साथ गृह एवं कुटीर उद्योगों का भी पर्याप्त विकास होने लगा था।
- उत्तरवैदिक काल में आर्यजन गंगा-यमुना के दोआब में स्थाई रूप से बस गये तथा पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन होने लगा।
- व्यापार स्थल मार्ग एवं जल मार्ग (दोनों से) से होता था। निष्क, हिरण्यपिंड एवं मनु “माप एवं मूल्य” की इकाइयाँ थी। उत्तरवैदिक काल में शतमान एवं कृष्णाल भी मूल्य की इकाइयों के रूप में प्रचलित हो गये थे।
- दाह-संस्कारः दाह-संस्कार का प्रचलन भारतीय महाद्वीप में सर्वप्रथम स्वातघाटी में मिला है। वैदिक काल में दाह-संस्कार की प्रथा विद्यमान थी। दाह-संस्कार के बाद हड्डियों को दफनाया भी जाता था। मृतकों के साथ पशुओं के दाह-संस्कार का उल्लेख भी वैदिक ग्रंथों में है। ऋग्वेद के 5 सूक्तों में दाह संस्कार का उल्लेख है।
- – ऋग्वैदिक आर्यों के विभिन्न वर्गों में अन्तर्विवाह पर प्रतिबन्ध . नहीं था। प्रारंभ में आर्यों का कबिलाई समाज तीन वर्गों योद्धा (क्षत्रिय), पुरोहित (ब्राह्मण) एवं सामान्य जन में विभाजित था। यह विभाजन पेशे पर (कर्म पर) आधारित था। चौथा विभाजन, ‘शूद्र’, ऋग्वैदिक काल के अंत में हुआ। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के पुरुष सूक्त में पहली बार ‘शूद्र’ शब्द का उल्लेख हुआ है।
- उत्तर वैदिक काल में कुछ व्यवसाय तथा शिल्पों ने जाति का रूप ले लिया। जैसे कि वासू (नाई), तक्षा (बढ़ई), भीषक (वैद्य), कर्मार (लौहार), चर्माण्ण (चमड़े का काम करने वाले), रथकार, कुलाल (मिट्टी के बर्तन बनाने वाले) आदि।
- गौत्र प्रथा उत्तरवैदिक काल में अस्तिव में आई। इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में है। इसी काल में एक गोत्र (सगोत्र) में विवाह न करने की प्रथा प्रारंभ हुई।
- दास प्रथाः ऋग्वैदिक काल से ही दास प्रथा विद्यमान थी। अधिकतर दास महिलाएँ थी, जिन्हें घरेलू काम-काज में लगाया जाता था तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था।
- ऋग्वैदिक काल में आर्य कबीलों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिभ्रमण करते रहते थे परन्तु उत्तरवैदिक काल में ये एक क्षेत्र विशेष में स्थायी रूप से रहने लगे तथा ऋग्वैदिक ‘जन’ अब ‘जनपदों’ में रूपान्तरित हो गए।
- पांचाल, कुरु, काशी, कौशल, विदेह, मत्स्य, चेदि, मगध, अंग आदि इस काल के प्रमुख जनपद थे।
- ऋग्वैदिक काल के प्रारम्भ में राजव्यवस्था गणतंत्रात्मक थी, जो बाद में वंशानुगत (राजतंत्रात्मक) हो गई।
- राजा जिन मंत्रियों की सहायता से कार्य करता था, उन्हें ‘रत्निन’ कहा जाता था।
- आर्यों के जीवन में घोड़े एवं रथ का स्थान महत्त्वपूर्ण था। घोड़ा शक्ति का प्रतीक था। घोड़े एवं रथ के प्रयोग से आर्यों को अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार में सहायता मिली। युद्धों में घोड़े के प्रयोग ने उन्हें व्यापक सफलता प्रदान की।
- वैदिक काल में पशु बलि का भी प्रचलन था। शतपथ ब्राह्मण आदि में यज्ञ में घोड़ों, सूअरों व भेड़ों की बलि देने के उल्लेख मिलते हैं।
- ऋग्वैदिक काल में अग्निदेव एक महत्त्वपूर्ण देवता थे, परंतु उनकी स्वतंत्र देवता के रूप में पूजा नहीं की जाती थी।
- आर्य लोहे से परिचित थे। कृषि औजार लोहे व लकड़ी से बने होते थे। लोहे को ‘कृष्ण अयस’ कहा जाता था।
- व्यापारी को ‘पणि’ कहा जाता था। व्यापार का माध्यम वस्तु विनिमय था। गाय मूल्य की प्रमाणिक ईकाई थी।
- आश्रम व्यवस्थाः ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी। उत्तरवैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। आश्रम प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में मिलता है। जबाला उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने 4 आश्रमों का प्रतिपादन किया है। यह आश्रम व्यवस्था उत्तरवैदिक काल में प्रतिपादित हुई थी। इसमें मनुष्य की संपूर्ण जीवन आयु 100 वर्ष मानकर निम्न चार आश्रम निर्धारित किए गए-
- 1. ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष की आयु तक) इसमें व्यक्ति विद्यांध्ययन करता था।
- 2. गृहस्थाश्रम (25-50 वर्ष) इसमें व्यक्ति विवाह कर जीविकोपार्जन करते हुए गृहस्थी का निर्वहन करता था।
- 3. वानप्रस्थाश्रम (50-75 वर्ष) ओर गमन करना होता था। इसमें व्यक्ति को वन की
- 4. संन्यासाश्रम (75-100 वर्ष) इसमें व्यक्ति को सांसारिक मोह माया त्यागनी होती थी।
- आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे बल्कि बड़े-बड़े यज्ञ करते थे।
- चार वर्ण : ऋग्वैदिक काल के आरंभ में तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष
- सूक्त में पहली बार निम्न चार वर्णों का उल्लेख मिलता है-
- ब्राह्मण : ब्राह्मण वे थे, जिनकी उत्पत्ति आदि पुरुष (ब्रह्मा) के मुख से हुई है। ब्राह्मण वर्ण का समाज में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनका मुख्य कार्य वेदों का पठन-पाठन करना, भिक्षा तथा दान ग्रहण करना तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराना था।
- क्षत्रिय : क्षत्रियों की उत्पत्ति आदि पुरुष की भुजाओं से हुई मानी जाती है। इस वर्ण का कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना तथा देश अथवा राज्य को आंतरिक सुरक्षा प्रदान करना था।
- वैश्य : वैश्य की उत्पत्ति आदि पुरुष की जंघाओं से हुई। यह कृषि, पशुपालन, उद्योग-धन्धे और विभिन्न व्यवसायों में संलग्न वर्ण था।
- शूद्र : इनकी उत्पत्ति आदि पुरुष के चरणों से हुई मानी जाती है। यह प्राचीन भारतीय समाज का चौथा वर्ण था। आर्यों द्वारा विजित दास धीरे-धीरे शूद्र वर्ण बन गये। इसका समाज में निम्नतम स्थान था। तीनों वर्षों की सेवा करना शूद्र का मुख्य कार्य था।
- प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, लेकिन उत्तरवैदिक काल में धीरे-धीरे यह जन्म पर आधारित हो गई।
- वैदिक धर्मः वैदिक आर्यों का धर्म एकाधिदेववाद था, जिसमें एक देवता प्रमुख देवता माना जाता था, अन्य देवताओं की स्तुति भी साथ में की जाती थी। यह एकेश्वरवाद एवं बहुदेववाद के मध्य की स्थिति थी। आर्यों ने विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय शक्ति के रूप में मानवीय/पशु रूपी गुण प्रदान कर पूजना प्रारंभ कर दिया था।
- आरंभिक ऋग्वैदिक काल में प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को दैवीय रूप देकर उनकी पूजा की जाती थी, अतः बहुदेववाद का प्रचलन था। प्रारंभिक काल में ‘द्यौस’ (आकाश) एवं ‘पृथ्वी’ को समस्त जगत का पिता एवं माता मानकर उनकी स्तुति की गई। बाद में ‘वरुण’ देवता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। इसे त्रिकालदर्शी, ऋत का स्वामी एवं आकाश, सूर्य एवं पृथ्वी का निर्माणकर्त्ता माना गया। परंतु उसके बाद ऋग्वैदिक काल का मुख्य देवता इन्द्र (अथवा पुरन्दर) हो गया था। ऋग्वेद के 250 सूक्त इन्द्र को समर्पित हैं। यह युद्ध एवं वर्षा का देवता था। युद्ध से पूर्व आर्य इन्द्र का आह्वान करते थे। इस काल में अग्नि दूसरा प्रमुख देवता था। यह मनुष्यों एवं देवताओं के बीच मध्यस्थ था। वह यज्ञ में अर्पित किये गये उपहारों एवं हवि को देवताओं तक पहुँचाता था। वरुण जल का देवता था तथा ऋतु का पालक था। प्रकृति की सभी व्यवस्थाएँ
- वहीं करता था। ‘सोम’ ‘पौधों का देवता’ था। एक मादक पेय का नाम उसके नाम पर था। इनके अलावा अन्य ऋऋऋवैदिक देवता थे- सूर्य, प्रभात (उषा), रात्रि, तड़ित आदि। इस काल की मुख्य देवियाँ थी उषा (नव प्रेरणा संचारक व प्रातः काल की देवी), अदिति (प्रकृति की देवी), अरण्यानी (जंगल की देवी), निर्रती (पतन एवं मृत्यु की देवी) तथा सरस्वती (ज्ञान एवं बुद्धि की देवी) आदि थी। ऋग्वेद में बहुदेववाद, एकाधिदेववाद, ऐकेश्वरवाद एवं अद्वैतवाद के उदाहरण मिलते हैं।
- उत्तरवैदिक काल में प्रजापति (सृष्टा), विष्णु एवं रूद्र जैसे नये देवता पूर्व के इन्द्र व अग्नि देवताओं से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये। शूद्रों के लिए पुषन (मवेशियों का देवता) देवता निर्धारित किए गये।
- ऋग्वैदिक काल में व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर प्रार्थना की जाती थी। ऋग्वेद में यज्ञ को देवताओं के मिलन का सांसारिक स्थान कहा गया है। यज्ञ दो प्रकार के होते थे-1. नित्य यज्ञ-इसमें पंचमहायज्ञ शामिल थे। ये पंच महायज्ञ थे-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्य यज्ञ । 2. नैमितिक यज्ञ-ये विशिष्ट ल्क्ष्यों की पूर्ति हेतु पुरोहितों की सहायता से सम्पन्न होते थे। इस प्रकार ऋग्वैदिक काल में यज्ञ का धार्मिक कर्मकाण्डों में महत्त्वपूर्ण स्थान था। मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का प्रमाण नहीं मिला है। उत्तरवैदिक काल में पूजा पद्धति में परिवर्तन हुआ। प्रार्थनाओं की तुलना में
- यज्ञों का महत्त्व अधिक हो गया। यज्ञ विधान अधिक जटिल हो गये। यज्ञों में बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाने लगी थी। पुजारी का काम पेशागत तथा वंशानुगत हो गया था। यज्ञों एवं अनुष्ठानों तथा कर्मकाण्डों पर अधिक बल दिया जाने लगा।
- उत्तरवैदिक काल में राजसूय, वाजपेय एवं अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान अधिक किया जाने लगा। यज्ञ कर्म एवं बलि विधानों में हुए परिवर्तनों से पुरोहितों का महत्त्व अत्यधिक हो गया तथा यज्ञ पुरोहित पर निर्भर हो गये। यज्ञ क्रमशः पशुवध के साधन बन गये थे। जादू-टोने एवं अंध विश्वासों का प्रचलन शुरू हो चुका था। लोग जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण मंत्र आदि में विश्वास करने लगे थे।
- उत्तरवैदिक काल के अन्त तक एकेश्वरवादी विचारधारा बलवती हुई जिसे उपनिषदों में प्रधानतः स्वीकार किया गया। उपनिषदों में पुरोहितों के बढ़ते प्रभाव व धार्मिक कर्मकाण्ड व अनुष्ठानों के विरुद्ध तार्किक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की गई तथा स्पष्टतः यज्ञों एवं कर्मकांडों की निन्दा की गई। इनमें ‘ब्रह्म’ को एकमात्र ईश्वरीय सत्ता स्वीकार किया गया तथा उसे निर्विकार, अद्वैत एवं निरपेक्ष बताते हुए उसका व्यक्ति के सारभूत तत्त्व आत्मा से एकात्म्य स्थापित किया गया। ब्रह्म को सृष्टि का मूल तत्त्व एवं सर्वशक्तिमान सत्ता माना गया। उपनिषदों में अब ऋऋग्वैदिक कर्मकाण्ड एवं प्रवत्तिवादी मार्ग को स्थान पर ज्ञानमार्ग एवं निवृत्तिवादी मार्ग की प्रतिस्थापन की गई।
- वैदिक कालीन राज व्यवस्था
- ऋग्वैदिक काल में ‘कुल अथवा परिवार’ राजनैतिक संगठन की सबसे छोटी व मौलिक इकाई थी तथा इसका प्रमुख ‘कुलप’ या ‘गृहपति’ था। उसके ऊपर की अनेक कुलों से बनी इकाई ग्राम (गाँव) थी, जिसका मुखिया ग्रामणी होता था। उस समय तक राज्य की कल्पना उभर कर नहीं आई थी। लोगों के समूह ‘जनों’ में विभक्त थे। कई ग्रामों को मिलाकर ‘विश’ बनता था, जिसका प्रमुख ‘विशपति’ था। सबसे बड़ी राजनैतिक इकाई ‘जन’ (अथवा एक कबीला) थी। कबीले का प्रमुख ‘राजन्’ (राजा) होता था। राजा की सहायतार्थ मंत्रि परिषद् के रूप में पुरोहित, सेनानी, महिषी आदि का उल्लेख मिलता है। राजा का निर्वाचन ‘समिति’ (सामान्य लोगों की सभा) द्वारा किया जाता था। धीरे-धीरे कई जनों को मिलाकर ‘राष्ट्र’ की अवधारणा विकसित होने लगी थी। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में ‘राष्ट्र’ का उल्लेख मिलता है।
- उत्तरवैदिक काल में कई ‘जनों’ को मिलाकर राष्ट्रों (जनपदों या क्षेत्रीय राज्यों) का निर्माण हुआ। इसमें लोहे ने महत्त्वूर्ण भूमिका निभाई। कृषि उपज का एक भाग राजस्व के रूप में देना (बलि) अनिवार्य हो गया था। ‘गण’ के प्रमुख ‘गणपति’ का निर्वाचन होने के स्पष्ट प्रमाण नहीं है परन्तु उसे अपना पद बनाये रखने हेतु लोकमत एवं प्रतिनिधियों (रत्निन) का विश्वास प्राप्त करना आवश्यक रहा होगा। मंत्रि परिषद् के रूप में ‘रत्नियों’ की नियुक्ति होती थी, जिसमें लगभग 12 सदस्य होते थे। राजा राज्याभिषेक पर सभी रत्नियों के घर जाकर उनका विश्वास प्राप्त करता था। ये रत्निन निम्न थे-
- सेनानी – (प्रधान सेनापति), इसके यहाँ राजा ‘अग्नि’ की पूजा करता था।
- पुरोहित- इसके यहाँ राजा बृहस्पति की पूजा करता था।
- महिषी- इसके यहाँ भी राजा बृहस्पति की पूजा करता था।
- सूत (सारथि)- इसके यहाँ राजा वरुण की पूजा करता था।
- ग्रामणी- (गाँव का प्रधान)।
- क्षत् इसके यहाँ सावित्र की पूजा होती थी।
- संग्रहीत- इसके यहाँ अश्विनी की पूजा होती थी।
- भागदुध (बंटवारा करने वाला)- इसके यहाँ पूषन की पूजा होती थी।
- अक्षावाप (राजा के साथ पासा खेलने वाला) इसके यहाँ भी पूषन की पूजा होती थी।
- पालागल (संदेश ले जाने वाला)।
- परिवृक्ति (त्यागी गयी रानी)- इसके यहाँ नैऋत् की पूजा होती थी।
- गोविकर्त।
- उपरोक्त के अलावा ‘राजा’ भी रत्निन सूची में होता था। प्रारम्भमें राजा की सहायतार्थ पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामणी प्रमुखी पदाधिकारी थे। पुरोहित युद्ध एवं शांति दोनों में राजा का परामर्शदाता एवं पद प्रदर्शक होता था। स्पटा (गुप्तचर, दूत) एवं पुरप (दुर्गपति) आदि अन्य कर्मचारी भी थे।
- ‘सभा’ एवं ‘समिति’ दो प्रमुख वैदिक कालीन राजनीतिक संस्थाएँ थी। वैदिक काल में राजन् (राजा) का पद सर्वोच्च होता था परन्तु वह स्वेच्छाचारी, निरंकुश व लोकमत विरोधी न हो, इस हेतु ऋग्वेद में सभा व समिति की विद्यमानता थी। ये दोनों सभाएँ राजा पर अंकुश रखती थी।
- सभाः यह बड़े-बूढ़ों (राज्य के वरिष्ठ, संभ्रान्त एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों) की एक छोटी संस्था होती थी। प्रारम्भ में इसमें स्त्रियाँ भी भाग लेती थीं लेकिन बाद में इनका भाग लेना बंद हो गया था। सभा में राजनीतिक तथा प्रशासनिक चर्चायें होती थीं। यह वर्तमान राज्य सभा का एक स्वरूप थी। इसमें न्यायिक कार्य भी किये जाते थे। इसके सदस्य ‘सुजान’ कहलाते थे। अथर्ववेद में इस सभा को ‘नरिष्टा’ कहा गया है।
- समितिः यह अपेक्षाकृत बड़ी सभा थी, जो सामान्य लोगों की जन सभा होती थी। राजा का निर्वाचन करना इसका मुख्य कार्य था। इसके अलावा राजा समिति में नियमित उपस्थित होते थे तथा ज्ञान की चर्चाएँ भी होती थीं। इसका अध्यक्ष ‘ईशान’ कहलाता था। यह आधुनिक लोकसभा के समान थी।
- विदथः विदथ ऋग्वैदिक कालीन सबसे प्राचीन संस्था थी। यह एक जनसभा थी, जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों भाग लेते थे। यह संस्था सामाजिक, धार्मिक व सैन्य उद्देश्यों के लिए विचार-विमर्श करती थी।
- उत्तरवैदिक काल में शनैः शनैः राजा का पद वंशानुगत हो गया था तथा शासन पद्धति राजतंत्रात्मक की ओर
- प्रवृत्त हुई। विशाल राज्यों के गठन के कारण राजा के अधिकारों में स्वेच्छाचारिता में वृद्धि हुई परन्तु उसकी निरंकुशता पर यथावश्यक प्रतिबंधों के प्रमाण भी मिलते हैं। सभा एवं समिति नामक राजनीतिक संस्थाओं के माध्यम से राजा पर कुछ मात्रा में नियंत्रण होता था, परन्तु इनका महत्त्व धीरे-धीरे कम होने लगा था। राजा का विधि-विधानपूर्वक राज्याभिषेक होता था।
- संस्कार : संस्कारों का शास्त्रीय विवेचन सर्वप्रथम ‘वृहदारण्यकोपनिषद्’ से प्राप्त होता है। इनकी संख्या 16 है जो निम्न है-
- गर्भाधान संस्कार- एक पुरुप जिस क्रिया के द्वारा स्त्री में
- अपना वीर्य स्थापित करता है, उसे गर्भाधान संस्कार कहा जाता है। स्त्री के ऋतुकाल की चौथी रात्रि से लेकर 16वीं रात्रि तक का समय गर्भाधान संस्कार के लिए उपयुक्त माना जाता था।
- पुंसवन संस्कार पुत्र प्राप्ति की इच्छा हेतु स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे, चौथे अथवा 8वें माह में यह संस्कार किया जाता था।
- सीमांतोन्नयन संस्कार यह संस्कार गर्भवती स्त्री के गर्भकी रक्षा के लिए गर्भ के चौथे अथवा पाँचवें माह में किया जाता था।
- इस प्रकार ये तीन संस्कार शिशु के जन्म से पूर्व किए जाते थे।
- जातकर्म संस्कार शिशु के जन्म के उपरान्त यह संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के समय पिता नवजात शिशु को अपनी अंगुली से मधु अथवा घृत चटाता था तथा उसके कान में मेघाजनन का मंत्र पढ़ता था तथा उसे आशीर्वाद देता था।
- नामकरण संस्कार यह संस्कार नवजात शिशु के नाम रखने हेतु किया जाता था।
- निष्क्रमण संस्कार नवजात शिशु को घर से बाहर निकाले
- जाने के अवसर पर किए जाने वाला संस्कार। इस संस्कार को शिशु के जन्म के 12वें दिन से चौथे मास के मध्य कभी भी किया जा सकता है। इस संस्कार में शिशु को अच्छे वस्त्र पहनाकर, माता-पिता के द्वारा सूर्य के दर्शन कराए जाते थे।
- अन्नप्राशन संस्कार यह संस्कार शिशु के जन्म के 6 वें मास में किया जाता है। इसमें शिशु को ठोस अन्न खिलाया जाता है।
- चूड़ाकर्म संस्कार इस संस्कार को मुंडन अथवा चौल
- संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। इस संस्कार के द्वारा शिशु के अच्छे स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना की जाती है। इस संस्कार के अवसर पर शिशु के सिर के संपूर्ण बाल मुंडवा दिये जाते हैं। सिर पर मात्र शिखा (चोटी) रहती है।
- कर्णवेध संस्कार यह संस्कार रोगादि से बचने और आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता है।
- विद्यारम्भ संस्कार यह संस्कार बालक के जन्म के 5वें
- वर्ष में सम्पन्न किया जाता है। इस संस्कार के अंतर्गत बालक को अक्षरों का ज्ञान कराया जाता है।
- उपनयन संस्कार बालक के शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो
- जाने पर यह संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के अवसर पर बालक को यज्ञोपवीत धारण करवा के ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रविष्ट कराया जाता था तथा बालक को उत्तरदायित्वपूर्ण तथा संयमी जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया जाता था।
- वेदारम्भ संस्कार इस संस्कार का उल्लेख सर्वप्रथम व्यास
- स्मृति में मिलता है। इसके अनुसार गुरु विद्यार्थी को वेदों
- की शिक्षा देना प्रारम्भ करता था।
- केशान्त अथवा गौदान संस्कार यह बालक के 16 वर्ष
- की आयु प्राप्त करने पर किया जाने वाला संस्कार है। इस अवसर पर बालक की प्रथम बार दाड़ी-मूँछों को मुँडा जाता था। यह संस्कार वालक के वयस्क होने का सूचक है।
- समावर्तन संस्कार जव बालक विद्याध्ययन पूर्ण कर
- गुरुकुल से अपने घर को वापस लौटता था, तब इस संस्कार का सम्पादन किया जाता था। यह संस्कार वालक के ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक है। इसमें बालक अपने गुरु को उचित गुरु दक्षिणा देता था।
- विवाह संस्कार- इस संस्कार के साथ ही मनुष्य गृहस्थ
- आश्रम में प्रविष्ट होता है।
- अन्त्येष्टि संस्कार- यह मनुष्य के जीवन का अंतिम संस्कार है, जो व्यक्ति के निधन हो जाने के पश्चात् सम्पन्न किया जाता है।
- विवाहः
- ऋऋवैदिक काल में विवाह एक पवित्र एवं सामाजिक संस्था का रूप ले चुका था। विवाह का प्रयोजन धर्म का पालन करना एवं वंशवृद्धि करना था। विवाह सामान्यतः वयस्कावस्था में ही होता था।
- विवाह संस्कार का पूर्ण विवरण हमें गृहसूत्रों से प्राप्त होता है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में ‘विवाह सूक्त’ है, जिससे
- प्रथा ‘दीर्घतमा ऋषि’ ने कायम की थी, जिसमें बाद में
- वैदिक वैवाहिक रीति-रिवाजों का ज्ञान होता है। विवाह श्वेतकेतु औद्दालिक ने सुधार किया था।
- वैदिक काल में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। विवाह की उम्न सामान्यतः 16-17 वर्ष थी। स्वैच्छिक वर-वधु चुनने का अधिकार था। अथर्ववेद में ‘स्वयंवर-प्रथा’ का ठाग्रेख है। विवाह में माता-पिता की अनुमति आवश्यक होती थी। एक पत्नी प्रथा आम रूप से प्रचलित थी। कहीं-कहीं राजाओं एवं धनिकों में बहु-विवाह (बहुपत्नी प्रथा) भी होते थे। ‘नियोग प्रथा’ विद्यमान थी। इसके अन्तर्गत पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी अपने देवर या निकट संबंधी से सहवास द्वारा पुत्र प्राप्त कर सकती थी। विधवा विवाह का उल्लेख अथर्ववेद में है। सती प्रथा विद्यमान नहीं थी। विदुषी महिलाओं को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था।
- जो कन्या आजीवन विवाह नहीं करती थी, उसे अमाजू कहते थे। विधवा का पुनर्विवाह हो जाने पर उसे पुनर्भू कहते थे। विवाह निम्न प्रकार के होते थे-
- ब्रह्म विवाह-यह सर्वोत्तम प्रकार का विवाह है। इसमें पिता अथवा अभिभावक उत्तम सजातीय योग्य वर को आमंत्रित कर, वस्त्र और आभूषणों से अलंकृत कर अपनी कन्या को धार्मिक विधि से अनुष्ठान के साथ ‘वर’ को देता था।
- दैव विवाह – इस प्रकार के विवाह में कन्या पक्ष द्वारा कन्या को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दान में दे दिया जाता था।
- आर्ष विवाह – इसमें कन्या का पिता वर से एक अथवा दो गाय धार्मिक कृत्यों हेतु लेकर अपनी कन्या दान कर देता था।
- प्रजापत्य विवाह इस प्रकार के विवाह में वर पक्ष कन्या के पिता से कन्या को माँगता था।
- आसुरी विवाह – इस विवाह में पुरुष कन्या के माता-पिता को यथाशक्ति धन देकर कन्या को प्राप्त करता था।
- गंधर्व विवाह जिसमें स्त्री व पुरूष परस्पर निश्चय कर एक-दूसरे के साथ गमन करते हैं, वह गंधर्व विवाह कहलाता है।
- पैशाच विवाह सोई हुई अथवा पागल कन्या के साथ मैथुन करना पैशाच विवाह कहलाता है।
- राक्षस विवाह – रोती-बिलखती कन्या का बलपूर्वक अपहरण कर उससे किया गया विवाह राक्षस विवाह कहलाता है।