मेवाड़ का इतिहास  Part – 1


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    मेवाड़: शौर्य और संस्कृति की अमर गाथा

     

    राजस्थान के ऐतिहासिक मेवाड़ क्षेत्र ने अपनी वीरता, अद्वितीय संस्कृति और अटूट धर्मनिष्ठा के लिए विश्व भर में ख्याति प्राप्त की है। यहाँ की मिट्टी में राजाओं और वीरों के बलिदान की कहानियाँ समाहित हैं, जिन्होंने अपनी मातृभूमि के सम्मान के लिए अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन किया।


     

    मेवाड़ का प्राचीन स्वरूप

     

    मेवाड़ का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है, जब यह शिवी जनपद के अधीन था। इसकी राजधानी मध्यमिका थी, जिसे आज चित्तौड़गढ़ के नाम से जाना जाता है।

    मेवाड़ के विभिन्न प्राचीन नाम इसके भौगोलिक और सामाजिक स्वरूप को दर्शाते हैं:

    • मेदपाट: मेव जाति की अधिकता के कारण यह नाम पड़ा।

    • उदसर: भीलों का प्रमुख क्षेत्र होने के कारण इसे उदसर भी कहा गया।

    • प्रागवाट: यह शक्तिशाली और संपन्न शासकों के राज्यक्षेत्र के रूप में जाना जाता था।

    • मेरुनाल: पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण इसे मेरुनाल भी कहते थे।

    मेवाड़ का राज्य वाक्य “जो दृढ़ राखै धर्म तिही राखे करतार” (जो धर्म की रक्षा करता है, ईश्वर उसकी रक्षा करता है) यहाँ के शासकों की धर्मनिष्ठा को दर्शाता है।


     

    मेवाड़ का गौरवशाली ध्वज

     

    मेवाड़ के ध्वज में सूर्य की आकृति सबसे ऊपर अंकित है, जो शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक है। ध्वज के एक ओर भाला धारण किए एक भील व्यक्ति (माना जाता है कि यह पूँजा भील थे) और दूसरी ओर तलवार लिए एक सिसोदिया व्यक्ति दर्शाया गया है। यह भील-सिसोदिया गठबंधन मेवाड़ की शक्ति का प्रतीक था, क्योंकि मेवाड़ के शासकों का राज्याभिषेक भी भीलों द्वारा ही किया जाता था। ध्वज के नीचे “अतः अतः” वाक्य अंकित है। महाराणा प्रताप के काल में इस ध्वज का वर्तमान स्वरूप निर्मित हुआ। तलवार और भाला मेवाड़ के राजाओं के प्रमुख शस्त्र रहे हैं।


     

    गुहिल वंश: एक प्राचीन और जीवित राजवंश

     

    मेवाड़ पर गुहिल वंश का शासन रहा, जिसे विश्व का सबसे प्राचीन जीवित राजवंश माना जाता है। इस वंश की स्थापना 566 ईस्वी में गुहिल (गुहादित्य/गुहिलोत) द्वारा की गई थी।

    कालांतर में गुहिल वंश दो प्रमुख शाखाओं में विभाजित हुआ:

    • रावल शाखा

    • सिसोदा शाखा (सिसोदिया)

    गुहिल वंश के धार्मिक संबंध:

    • कुलदेवता: एकलिंगनाथ जी। इनका मंदिर उदयपुर के कैलाशपुरी में स्थित है, जिसका निर्माण बप्पा रावल ने करवाया था। यह मंदिर पाशुपत संप्रदाय की पीठ भी माना जाता है।

    • आराध्य देव: गढ़बौर देव (गढ़बौर चारभुजा नाथ), जिनका मंदिर राजसमंद में है।

    • सिसोदिया वंश की कुलदेवी: बाणमाता।

    • गुहिलों की आराध्य देवी: गढ़बौर माता, जिनका मंदिर राजसमंद में है।




मेवाड़ राज्य का इतिहास- 2

  • गुहिल वंश की स्थापना-566 ई. में गुहादित्य द्वारा।
  • मुहणोत नैणसी तथा कर्नल जेम्स टॉड ने गुहिल वंश की कुल 24 शाखाएँ बतायी।
  • गुहिलों की उत्पत्ति के सिद्धान्त-
  1. अबुल फजल के अनुसार गुहिल ईरानी बादशाह नौशेखाँ आदिल के वंशज है।
  2. गोपीनाथ शर्मा- गुहिल मुख्यत: आनंदपुर(गुजरात) के ब्राह्मण थे।
  3. देवदत्त भण्डारकर- गुहिल ब्राह्मणों के वंशज थे।
  4. कर्नल जेम्स टॉड- गुहिल वल्लभीनगर शासक शिलादित्य व पुष्पावती के वंशज है।
  • गुहिल रघुवंशी व सूर्यवंशी थे। नयनचन्द्र सुरी भी इस मत के समर्थक थे।

गुहादित्य

  • पिता- शिलादित्य वल्लभीनगर के शासक।
  • माता- पुष्पावती
  • पुष्पावती द्वारा गुफा में जन्म देने के कारण नाम गुहादित्य रखा।
  • लालन-पालन वीरनगर की ब्राह्मणी कमलावती द्वारा किया गया।
  • गुहादित्य भील जाति के सहयोग से शासक बना।
  • मण्डेला भील ने अपना अंगूठा काटकर गुहादित्य का राज्याभिषेक किया।
  • गुहादित्य ने 566 ई. में भीलों के सहयोग से गुहिल वंश की स्थापना की ।







मेवाड़ राज्य का इतिहास – 3

–  गुहादित्य/राजा गुहिल ने 566 ई. में गुहिल वंश की स्थापना की।

–  राजा गुहिल के बाद बनने वाले प्रमुख शासक

नागादित्य, महेन्द्र-I, शिलादित्य II, अपराजित

–  महेन्द्र II-  इनकी हत्या भीलों द्वारा की गई। महेन्द्र II के पुत्र का नाम बप्पा रावल था।

–  गुहादित्य का आठवाँ वंशज बप्पा रावल था।

–  बप्पा रावल (734-753 ई.)- 

  जन्म – 713 ई. ईडर (गुजरात)

  पिता  महेन्द्र II

–  बप्पा रावल ने हारित ऋषि के आशीर्वाद से 734 ई. में मान मौर्य को पराजित कर चित्तौड़गढ़ पर अधिकार किया।

–  734 ई. में मेवाड़ के शासक बनकर अपनी राजधानी नागदा को बनाया।




–  वास्तविक नाम  कालभोज

–  मेवाड़ में गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक

–  कुल – 100 रानियाँ

–  35 – मुस्लिम रानियाँ

–  रणकपुर प्रशस्ति में बप्पा रावल व कालभोज को अलग-अलग बताया है।

–  कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में बप्पा रावल को विप्रवंशीय बताया गया है।

–  735 ई. में बप्पा रावल ने ईराक के शासक हज्जात को पराजित किया।

–  738 ई. में बप्पा रावल ने अरबी आक्रांता जुनैद को पराजित किया।

–  सिंध शासक दाहरसेन को मोहम्मद बिन कासिम ने पराजित कर राजपूताना की तरफ बढ़ा लेकिन बप्पा रावल ने पराजित किया।

–  पाकिस्तान के रावलपिंड़ी शहर (बप्पा रावल के नाम पर) में बप्पा रावल ने सैनिक चौकी स्थापित की थी।

–  बप्पा रावल ने गजनी (अफगानिस्तान) के शासक सलीम को पराजित किया।

–  बप्पा रावल के समकालीन प्रतिहार शासक नागभट्ट I थे।

–  बप्पा राव के समकालीन चालुक्य (सोलंकी) शासक विजयदित्य द्वितीय (गुजरात में) था।

–  बप्पा रावल ने एकलिंगनाथ जी मंदिर का निर्माण कैलाशपुरी (उदयपुर) में करवाया गया था इसी मंदिर के पास हारित ऋषि का आश्रम स्थित है।

–  बप्पा रावल द्वारा निर्मित मंदिर

  1. एकलिंगनाथ जी मंदिर (कैलाशपुरी) उदयपुर
  2. आदिवराह मन्दिर (कैलाशपुरी)
  3. सास-बहू मंदिर (नागदा)

  बप्पा रावल को अजमेर से 115 ग्रेन का सोने का सिक्का प्राप्त होता है। जिस पर कामधेनु (नंदी), बोप्प शब्द, त्रिशुल अंकित है।

  G.H ओझा के अनुसार मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के बप्पा रावल ने चलाएँ।

–  753 ई. में बप्पा रावल ने राजकार्य से सन्यास लिया। बप्पा रावल की मृत्यु 810 ई. में 97 वर्ष की आयु मे।

  बप्पा रावल की समाधि कैलाशपुरी (उदयपुर) में स्थित है।

  कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार बप्पा रावल की मृत्यु खुरासन में हुई।







मेवाड़ का इतिहास 4

अल्लट

–  भृतपट्ट द्वितीय के पुत्र

–  उपाधि – आलु रावल

–  प्रथम शासक जिन्होंने नौकरशाही का गठन किया।

–  प्रथम शासक जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवाह किया। इनका विवाह हूण राजकुमारी हरियादेवी से हुआ था।

–  इन्होनें आहड़ को अपनी राजधानी बनाई।

–  इनके शासनकाल में आहड़ में सारणेश्वर मंदिर का शिलालेख प्राप्त हुआ।




–  जगत अम्बिका मन्दिर – जगत गाँव- उदयपुर

–  निर्माण – अल्लट द्वारा

–  मेवाड़ का खजुराहो

–  इस मन्दिर को शक्तिपीठ भी कहा जाता है।

–  अल्लट के पश्चात उत्तराधिकारी – नरवहन, शालवाहिन II हुए थे।

–  शक्ति कुमार – मालवा के शासक मुंज परमार ने शक्तिकुमार को पराजित किया था। उस आक्रमण के समय राष्ट्रकूट शासक धवल ने शक्ति कुमार की सहायता की थी।

–  मुंज परमार के छोटे भाई नरसंवसाक के पुत्र भोज परमार (त्रिभुवन परमार) ने चित्तौड़गढ़ में त्रिभुवन नारायण मंदिर का निर्माण करवाया जिसे वर्तमान में मोकल मंदिर के नाम से जाना जाता है।




–  शक्ति कुमार के पश्चात बनने वाले उत्तराधिकारी अम्बा प्रसाद, शुचि वर्मा, हस्तपाल हुए थे।

–  वैरिसिंह – आहड़ नगर के परकोटे का निर्माण करवाया।

–  विजय सिंह

–  रण सिंह – इन्हे कर्णसिंह नाम से भी जाना जाता  है।

–  रावल सामंत सिंह-

–  पृथ्वीराज चौहान तृतीय के बहनोई।

–  पृथ्वीराज तृतीय की बहन का नाम – पृथ्वी बाई प्रभा था।

–  तराइन के प्रथम युद्ध 1191 ई. में पृथ्वीराज III का सहयोग करने वाले मेवाड़ के शासक। इस युद्ध में सामंतसिंह वीरगति को प्राप्त हुए थे।




–  सामंत सिंह के समकालीन जालौर के शासक कीर्तिपाल चौहान थे।

–  कीर्तिपाल चौहान ने सामंतसिंह को पराजित कर आहड़ पर अधिकार कर लिया।

–  सामंत सिंह के उत्तराधिकारी कुमार सिंह ने आहड़ पर पुन: अधिकार स्थापित किया।

रावल जैत्रसिंह 1213-1253 ई.

–  मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल

–  इन्हे पाँच आँखों का शासक कहा जाता है।

–  राजधानी – चित्तौड़गढ़ बनाने वाला प्रथम शासक

–  डॉ.दशरथ शर्मा ने रावल जैत्रसिंह को चित्तौड़गढ़ का प्रथम विजेता कहा है।

–  इनके समकालीन दिल्ली शासक इल्तुतमिश था।







मेवाड़ का इतिहास 5

  • राव जैत्रसिंह

शासनकाल – 1213 ई. – 1253 ई. तक

  • रावल जैत्रसिंह के समकालीन मालवा शासक देवपाल परमार था जिसे जैत्रसिंह ने पराजित किया।
  • रावल जैत्रसिंह ने गुजरात के गुर्जर प्रतिहार शासक वीर धवल व लवण्य प्रसाद को पराजित किया।
  • रावल जैत्रसिंह ने नाडोल के चौहान शासक उदयसिंह को पराजित किया।
  • उदयसिंह ने मेवाड़ के साथ मैत्रीपूर्व संबंध स्थापित करने हेतु अपनी पुत्री रूगादेवी का विवाह जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ किया।
  • भूताला का युद्ध :- 1226/1227
  • मध्य – जैत्रसिंह व इल्लतुतमिश




  • 1226 ई. में जैत्रसिंह व दिल्ली शासक इल्तुतमिश के मध्य राजसंमद में भूताला का युद्ध लड़ गया, जिसमें जैत्रसिंह विजेता रहा।
  • गोपीनाथ शर्मा इस युद्ध का समय 1222 ई.– 1229 ई. के मध्य बताते हैं।
  • इस युद्ध के पश्चात मुस्लिम सैनिकों ने आहड़ व नागदा को क्षति पहुँचाई जिस कारण जैत्रसिंह ने अपनी राजधानी चित्तौड़गढ़ को बनाया।
  • इल्तुतमिश के पश्चात् दिल्ली का मुख्य शासक नासिरुद्दीन बना।
  • नासिरद्दीन का भाई जलालुद्दीन कन्नौज (P.) का शासक/स्वामी था।
  • 1248 ई. में मेवाड़ शासक जैत्रसिंह द्वारा जलालुद्दीन को शरण देने पर नासिरुद्दीन द्वारा असफल आक्रमण किया गया।
  • रावल तेजसिंह
  • शासनकाल – 1253 ई. – 1273 ई.
  • उपाधियाँ – महाराजाधिराज, परमभट्टारक
  • तेजसिंह के शासनकाल में मेवाड़ का प्रथम चित्रित ग्रंथ श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णी 1260 ई. में कमलचन्द्र नामक चित्रकार द्वारा चित्रित किया गया था।
  • 1255–56 ई. में दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन ने कुतलुग खाँ को कैद करने हेतु मेवाड़ पर बलवन के नेतृत्व में सेना भेजी लेकिन आक्रमण असफल रहा।
  • 1260 ई. में गुजरात के शासक बीसलदेव को पराजित कर “उमापतिवार लब्धप्रौढ़प्रताप (शक्तिशाली व उदारक शासक)” की उपाधि धारण की।




रावल समरसिंह

शासनकाल – 1273 ई. – 1302 ई. तक

उपाधि – त्रिलोका

  • जीव हत्या पर प्रतिबंध लगाने वाला प्रथम शासक था। इन्होंने यह प्रतिबंध दरबारी जैन विद्वान रत्नप्रभ सूरी व पार्श्वचन्द्र के कहने पर लगाया।

प्रमुख दरबारी विद्वान – भावशंकर, दयाशंकर

प्रमुख शिल्पी – कर्मसिंह, पद्मसिंह व केल्लसिंह

समर सिंह के समकालीन दिल्ली शासक :-

  • जलालुद्दीन खिलजी (1290 ई. – 96 ई.)
  • अलाउद्दीन खिलजी (1296 ई.– 1316 ई.)







मेवाड़ का इतिहास-6

समर सिंह

– शासनकाल- 1213 ई.-1302 ई.
– 1299 ई. में A.K. के सेनापति उलूग खां के गुजरात अभियान पर जाते समय समयसिंह ने उलूग खां को आर्थिक दण्ड दिया।
–       समर सिंह के काल में कुल 8 शिलालेख प्राप्त :-
1.    आबु शिलालेख
2.     दरीबा शिलालेख
3.     चीरवा शिलालेख
4.     पाँच चित्तौड़गढ़ शिलालेख
– 1302 ई. में समरिसंह की मृत्यु हो गई।


–  रावल समरिसंह के दो पुत्र थे कुंभकर्ण व रतनसिंह
– कुंभकर्ण ने नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना की। नेपाल का राजवंश यही से निकला।
– नेपाल के शासको ने ‘राणा’ की उपाधि धारण की।
– रावल समरसिंह के पश्चात् रावल रतनसिंह ने मेवाड़ का शासक बना इसका शासनकाल 1302 ई.- 1303 ई. तक का था।







मेवाड़ का इतिहास -7

–  शासनकाल-1302 ई. 1303 ई.

–  रावल रतनसिंह का दरबारी विद्वान राघव चेतन था।

–  रानी पद‌्मिनी सिंहले द्वीप (श्रीलंका) के राजा गंधर्वसेन व रानी चंपावती की पुत्री थी।

–  पद‌्मिनी की सुन्दरता का बखान हीरामन जाति का तोला करता था।

–  रानी पद‌्मिनी की जानकारी रतनिसंह को राघव चेतन ने दी।

–  रानी पद‌्मिनी रतनसिंह का गधर्व विवाह हुआ।




–  प‌द‌्मिनी व रतनसिंह के विवाह के पश्चात् गौरा-बादल व 1600 महिलाऐं पद‌्मिनी के साथ मेवाड़ आई।

–  राघव चेतन जादू-टोने की विद्या जानता था जिसका पता चलने पर रतनसिंह ने राघव चेतन को मेवाड़ छोड़ने का आदेश दिया तत्पश्चात् राघव चेतन A.K. की शरण में गया।

–  अलाउद्दीन को प‌द‌्मिनी की जानकारी राघव चेतन से मिली।

–  मलिक मोहम्मद जायसी के ग्रन्थ प‌द‌्मावत के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण प‌द‌्मिनी को पाने हेतु किया।

–  अलाउद्दीन खिलजी की सेना आक्रमण हेतु 28 जनवरी 1303 को रवाना हुई जबकि 26 अगस्त, 1303 को चित्तौड़ विजय प्राप्त हुई।

–  A.K. के आक्रमण के समय रतनिसंह के सेनापति गौरा-बादल (चाचा-भतिजा) थे ने केसरिया किया और इस आक्रमण के समय रतनसिंह और गौरा व बादल लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

–  प‌द‌्मिनी ने 1600 महिलाओं के साथ 26 अगस्त 1303 को जौहर किया जो मेवाड़ का प्रथम शाका एवं इतिहास का सबसे बड़ा जौहर कहलाता है।




–  ग्रन्थ पद‌्मावत में इस युद्ध में रतनिसंह को हृदय, प‌द‌्मिनी की बुद्धि व अलाउद्दीन को माया कहा गया है।

–  चित्तौड़ विजय के पश्चात् A.K. ने गंभीरी नदी पर बांध बनवाया।

–  चित्तौड़गढ़ में था बाई वीर की दरगाह पर शिलालेख लिखवाया।

–  A.K. के समय सिसोदा के सांमत लक्ष्मणिसंह सिसोदिया अपने सात पुत्रो के साथ वीरगति को प्राप्त हुए G.H.ओझा इस मत का खण्डन करते हुए इसे एक काल्पनिक घटना बताते है एवं आक्रमण का कारण गुजरता तक A.K. का अधिकार करने की इच्छा बताते है।

–  गोपीनाथ शर्मा इस घटना को काल्पनिक नहीं मानते है।

–  डॉ. दशरथ शर्मा ने मलिक मोहम्मद जायसी के ग्रंथ पद‌्मावत का समर्थन करते हुए अबुल फजल के ग्रन्थ ‘आईने अकबरी’ का विवरण भी प्रस्तुत करते है।

–  डॉ. दशरत शर्मा के अनुसार चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण का मुख्य कारण दुर्ग का सामरिक महत्व था।

–  A.K. की चित्तौड़ विजय का सजीव वर्णन अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ ‘खजाईन-उल-फुतूह’ में किया।

–  1303 ई. -1313 ई. तक चित्तौड़गढ़ पर शासन अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खाँ ने किया।

–  1313 ई. 1320 ई. तक चित्तौड़ शासक मालदेव (जालौर शासक कान्हड़देव का भाई) रहा।

–  मालदेव ने सिसोदा सामन्त हम्मीर के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया।

–  1320 ई.-1326 ई. तक चितौड़गढ़ पर जैसासिंह का अधिकार रहा।

–  हम्मीर देव चौहान ने जैसासिंह को पराजित कर चित्तौड़गढ़ पर अधिकार किया।

–  रावल शाखा का अंतिम शासक रतनसिंह था।







मेवाड़ का इतिहास – 8

राणा हम्मीर (1326-1364 ई.):-

उपाधि – विषमधारी पंचनानी, (शाब्दिक अर्थ – विषम समय में सिंह के समान रहने वाला), कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति।

वीर- रसिक प्रिया टीका।

इन्हें छापामार/गुरीला युद्ध पद्धति का जनक कहा जाता है।

राणा हम्मीर सिसोंदा/राणा सता का संस्थापक था।

इन्हे मेवाड़ का उद्धारक भी कहा जाता है।

राणा हम्मीर ने अन्नापूर्णा माता मंदिर का निर्माण करवाया था।




कर्नल जेम्स टॉड ने हम्मीर के लिए लिखा कि “भारत में हम्मीर ही एक प्रबल राजा बचा है, बाकि राजवंश नष्ट हो गये।“

1364 ई. में हम्मीर की मृत्यु हो गई।

लक्ष्मणसिंह/राणा लाखा (1382-1421 ई.):-

इन्हें गौरवदान गरिमादान पद्धति का जनक कहा जाता है।

राणा लाखा के काल में पिछु बन्जारे ने उदयपुर में पिछौला झील का निर्माण करवाया।

इनके शासन काल में जावर (उदयपुर) में चाँदी की खान निकली।

राणा लाखा ने दिल्ली शासक ग्यासुद्दीन तुगलक को पराजित किया।

धनेश्वर भट्‌ट व झोटिग भट्‌ट राणा लाखा के दरबारी विद्वान थे।







मेवाड़ का इतिहास-9

राणा लाखा (1382-1421 ई.):-

राणा लाखा के समकालीन मारवाड़ का शासक राव चूड़ा था।

राव चूड़ा का पुत्र-रणमल, पुत्री-हंसाबाई

हंसाबाई का विवाह पहले मेवाड़ राजकुमार कान्हा के साथ प्रस्तावित था, लेकिन रणमल ने अपनी बहिन हंसाबाई का विवाह सशर्त “हंसाबाई का पुत्र ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा” लाखा से करवाया।

हंसाबाई से प्राप्त पुत्र मोकल था।

राणा लाखा का बड़ा पु­त्र राणा चुंडा ने जीवन भर विवाह नहीं करने तथा मेवाड़ की सेवा करने की प्रतिज्ञा ली। इस कारण इन्हे मेवाड़ का “भीष्मपितामाह” एवं “मेंवाड़ का राम” कहा जाता है।




राणा मोकल (1421-1433 ई.) :-

इन्हे तुलादान पद्धति के जनक कहा जाता है।

मोकल ने जीवनकाल में कुल 25 बार तुलादान किया।

दरबारी विद्वान – विष्णुभट्‌ट, योगेश्वर भट्‌ट।

प्रमुख शिल्पी –  धन्ना, पन्ना, मन्ना, वीसल

संरक्षक – रणमल राठौड़

ये मेवाड़ में वेदशालाओं को स्थापित कराने वाला शासक था।

इन्होने झालावाड़ में विष्णु/वराह मंदिर का निर्माण करवाया।

एकलिंगनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार राणा मोकल ने करवाया, इस कारण इस मंदिर को वर्तमान में मोकल मंदिर कहा   जाता है।

रणमल राठौड़ ने मोकल के काल में मेवाड़ में राठौड़ों का प्रभाव बढ़ाते हुए उच्च पदो पर नियुक्तियाँ शुरू की।

राठौड़ो के बढ़ते प्रभाव से नाखुश होकर चाचा व मेरा और महपा पंवार नामक सरदारो ने राणा मोकल की हत्या की।

राणा मोकल का उत्तराधिकारी राणा कुंभा हुआ।




राणा कुंभा (1433-1468 ई.) :-

जन्म – 1403 ई.

पिता – मोकल

माता – सौभाग्यदेवी

पत्नी – कुंभलमेरू

पुत्र – रायमल, ऊदा

पुत्री – रमाबाई (रमाबाई संगीत व साहित्य में निपुण थी इस कारण जावर शिलालेख (उदयपुर) में वागीश्वरी कहा गया हैं।)

राज्याभिषेक – 1433 ई. चित्तौड़गढ़

गुरू – हिरनांद आर्य

संगीतगुरू – सारंग व्यास

सहायक संगीत गुरू – कान्हा व्यास




राणा कुंभा की प्रमुख उपाधियाँ :- (अभिनव भरताचार्य नत्य भारत)

दानगुरू             युद्धगुरू            हिन्दु सुरताण

हालगुरू            संगीतगुरू          राणे-राय

छापगुरू            साहित्य गुरू       राव-राय

स्थापत्य गुरू      अश्वपति            नरपति

शैवगुरू







मेवाड़ का इतिहास-10

राणा कुम्भा – 1433 – 1468 ई.

– राणा कुम्भा के पिता के हत्यारें (चाचा मेरा, महपा पंवार व अक्का) कुम्भा के शासक बनते ही मालवा के शासक मुहमद खिलजी – I के शरण में चले गए

– राणा सांगा ने मुहमद खिलजी – I पर आक्रमण किया।

सांरगपुर का युद्ध – 1437 ई. – M.P =

– राणा कुम्भा व महमुद खिलजी – I के मध्य

– विजेता – राणा कुम्भा

– कुम्भा की इस विजय को मालवा विजय कहा तथा इस विजय के उपलक्ष में चित्तैड़गढ दुर्ग में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।




राठौड़ों के बढ़ते प्रभाव को रोकना =

– मालवा अभियान के दौरान सिसोदिया सरदार राघवदेव (लाखा का पुत्र) एवं रणमल के बीच विवाद हो गया जिसके तहत राघव देव की हत्या रणमल ने कर दी ।

– इस घटना के बाद मेवाड़ में राठौड़ों की प्रबलता बढ़ने लगी जिससे मेवाड़ के सरदार असंतुष्ठ थे।,

– 1438 ई. में दासी भारमली की सहायता से राणा कुम्भा ने रणमल राठौड़ की हत्या कर दी।

– रणमल के पुत्र जोधा मेवाड़ को छोड़कर मण्डोर (जोधपुर) आ गये।

– राणा कुम्भा ने जोधा का पीछा करने हेतु राणा चूँड़ा को भेजा लेकिन जोधा ने मण्डोर छोड़ दिया।

– हंसाबाई के सहयोग से राव जोधा व राणा कुम्भा के मध्य आंवल – बांवल की सन्धि (1452 – 53 ई.) हुई।

– यह सन्धि सोजत (पाली) नामक स्थान पर हुई।

– इस सन्धि के तहत मेवाड़ व मारवाड़ की सीमाओं का निर्धारण हुआ।







मेवाड़ का इतिहास – 11

  1. राणा कुंभा के समकालीन शासक =
  • नागौर – फिरोज खाँ, शम्स खाँ तथा मुजाहिद खाँ
  • गुजरात – (5 शासक हुए) कुतुबुद्दीन शाह
  • सिरोही – अचलदास खिंची
  • हड़ौती – सांडा (कोटा) भाणा (बूंदी)
  • मालवा – महमूद खिलजी I

– महमूद खिलजी I मालवा शासक होशंगशाह का मंत्री था लेकिन होशंग शाह के पुत्र उमर खाँ को राजगद्दी से पदच्यूत कर मालवा का शासक बना।




– उमर खाँ राणा कुंभा की शरण में आया।

– सांरगपुर युद्ध के समय 1437 ई. में कुंभा सौतेले भाई खेमकरण ने सादड़ी पर अधिकार किया लेकिन कुंभा ने उसे पराजित कर पुन: सादड़ी पर अधिकार कर लिया।

– खेमकरण मालवा शासक महमूद खिलजी I की शरण में गया।

– 1442 ई. में महमूद खिलजी I ने कुंभलगढ़ व चित्तौड़गढ़ पर असफल आक्रमण किया।

– महमूद खिलजी I ने बाण माता मूर्ति को खण्डित किया।

– महमुद खिलजी I ने माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) पर 1446, 1446 एवं 1456 ई. में तीन बार असफल आक्रमण किया।

– 1455 ई. में महमूद खिलजी I ने अजमेर में राणा कुंभा के किलेदार गजाधर सिंह को पराजित कर यहाँ अधिकार किया एवं किलेदार नियामतुल्ला खाँ को नियुक्त कर इसे सैफ खाँ की उपाधि दी।

– 1444 ई. में राणा कुंभा के बहनोई अचलदास खीची पर महमूद खिलजी ने आक्रमण कर गागरोन दुर्ग झालावाड़ पर अधिकार किया।

– इस सन्धि के पश्चात जोधा की पुत्री शृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ हुआ।







मेवाड़ का इतिहास – 12

राणा कुंभा का गुजरात से संबंध-

  • राणा कुंभा के समकालीन गुजरात में कुल 5 शासक आये।
  • 1455 ई. में गुजरात शासक कुतुबुद्दीन शाह ने कुंभलगढ़ पर असफल आक्रमण किया।
  • चंपानेर संधि- 1456 ई.
  • मध्य- गुजरात- मालवा
  • कुतुबुद्दीन शाह- महमुद खिलजी-I
  • इस संधि में कुतबुद्दीन शाह को निमंत्रण महमुद खिलजी-I द्वारा चांद खाँ के माध्यम से भेजा गया।




चंपानेर संधि के तहत गुजरात व मालवा की संयुक्त सेना 1457 ई. में कुंभा पर आक्रमण किया।

  • बदनौर युद्ध / बैराठगढ़ का युद्ध- 1457 ई.
  • स्थान- भीलवाड़ा
  • मध्य- राणा कुंभा- महमुद खिलजी-I व कुतुबुद्दीन शाह
  • विजेता- राणा कुंभा
  • कुंभा ने बदनौर विजय के उपलक्ष में कुशालमाता मंदिर- बदनौर- भीलवाड़ा का निर्माण करवाया।
  • 1458 ई. में राणा कुंभा ने नागौर शासक शम्स खाँ के उपर आक्रमण किया।
  • शम्स खां ने अपनी पूत्री नगा का विवाह गुजरात शासक कुतुबुद्दीन शाह के साथ कर सैनिक सहायता मांगी।
  • 1458 ई. में शम्स खाँ व गुजरात की संयुक्त सेना को राणा कुंभा ने पराजित कर नागौर पर अधिकार किया।
  • 1458 ई. में आबु कुन्थन देव की सहायता से कुतुबुद्दीनशाह ने राणा कुंभा पर असफल आक्रमण किया।
  • 25 दिसम्बर 1458 ई. को कुतुबुद्दीन शाह की मृत्यु हुई।
  • कुतुबुद्दीनशाह की मृत्यु के पश्चात गुजरात शासक दाऊद खां बना।
  • 1459 ई. में दाऊद खां के स्थान पर गुजरात शासक फतेह खां बना जो मुहम्मद शाह बेगड़ा के नाम से प्रसिद्ध है।
  • 1460 ई. में मुहम्मद शाह बेगड़ा ने जुनागढ़(GJ) शासक मण्डुलिक के उपर आक्रमण किया।
  • मण्डुलिक राणा कुंभा का दामाद था। कुंभा की पूत्री का नाम रमाबाई/ वागीश्वरी था।
  • 1460 ई. कुंभा व मण्डुलिक की सेना ने बेगड़ा को पराजित किया।







मेवाड़ का इतिहास – 13

कुंभा की स्थापत्य कला

वीर विनोद ग्रंथ – श्यामलदास (भीलवाड़ा) द्वारा रचित

–  मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह के दरबारी

उपाधियाँ –

–  वीर विनोद ग्रंथ के अनुसार सारंगपुर युद्ध 1439 ई. में हुआ।

–  वीर विनोद के अनुसार मेवाड़ में स्थित कुल 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण राणा कुंभा ने करवाया इस कारण कुंभा को स्थापत्य गुरु कहा जाता है।

कुम्भा द्वारा निर्मित दुर्ग-

–  कुंभलगढ़ दुर्ग – राजसमंद

–  वास्तुकार – मण्डन

–  चित्तौडगढ़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता कहा जाता है।

–  इस दुर्ग को कुंभा के काल में चित्रकूट कहा जाता था।

मूल निर्माता – चित्रांगद मौर्य




–  चित्तौडगढ़ दुर्ग में मालवा विजय के उपलक्ष्य में 9 मंजिल विजय स्तंभ का निर्माण राणा कुंभा ने करवाया।

–  विजयस्तंभ का जीर्णोद्धार मेवाड़ महारणा स्वरूप सिंह ने करवाया था।

–  बैराठगढ़ का निर्माण – भीलवाड़ा

भौमट दुर्ग – उदयपुर

अचलगढ़ दुर्ग – सिरोही

बसंती दुर्ग – माउंट आबू, सिरोही

–  चित्तौडगढ़ में कुंभा ने कुंभश्याम मंदिर का निर्माण पंचायतन शैली में करवाया।

–  बैराठगढ़ विजय के उपलक्ष में बदनौर (भीलवाड़ा) में कुशालमाता/बदनौर माता का निर्माण करवाया।

–  राणा कुंभा ने दिल्ली सुल्तान सैय्यद मोहम्मद शाह को पराजित कर दिल्ली में बिरला मंदिर का निर्माण करवाया।

–  कुंभलगढ़ में मामादेव कुण्ड का निर्माण करवाया मामा देव कुण्ड सिवाणा दुर्ग – बाड़मेर में स्थित है।

–  राणा कुंभा के काल में चित्तौडगढ़ दुर्ग में वेलका द्वार श्रृंगार चंवरी मंदिर का निर्माण करवाया गया।

श्रृंगार चंवरी मंदिर  – जैन मंदिर




–  राणा कुंभा की पुत्री रमाबाई वागीश्वरी का विवाह स्थल।

–  राणा कुंभा के काल में मंत्री धारणकशाह द्वारा वास्तुकार देपाक के निर्देशन में रणकपुर (पाली) का  जैन मंदिर का निर्माण करवाया गया। इस मंदिर को चौमुखा मंदिर/स्तंभों का वन इत्यादि नामों से जाना जाता है।

–  राणा कुंभा का साहित्य में योगदान

कुंभा द्वारा लिखित ग्रंथ –

  1. संगीतराज  – 5 भागों में विभक्त

(i) पाठ्यरत्न कोष

(ii) वाद्यरत्न कोष

(iii) नाट्य/नृत्य रत्न कोष

(iv) गीत रत्न कोष

(v) रस रत्न कोष

  1. संगीतमीमांसा
  2. संगीतरत्नाकार
  3. कामशास्त्रपरआधारित  ग्रंथ – काम प्रबोध
  4. सूड़प्रंबंध




–  एकलिंग महात्म्य:- राणा कुंभा तथा कान्हा तथा द्वारा रचित

–  कुंभा द्वारा लिखित प्रथम भाग, राजवर्णन कहलाता है।

–  विजयस्तंभ की 9वीं मंजिल पर राणा कुंभा ने कीर्ति प्रशस्ति की रचना करवाई।

इस प्रशस्ति की रचना कवि अत्रि ने शुरू लेकिन रचना पूर्ण उनके पुत्र कवि महेश ने की।

Note : बिरला मंदिर जयपुर

निर्माणकर्त्ता  – गंगाप्रसाद बिड़ला

उत्तर भारत का प्रथम वातानुकूलित  मंदिर  इस सफेद संगमरमर मंदिर में लक्ष्मी नारायण की पूजा होती है।







मेवाड़ का इतिहास – 14

राणा कुंभा (1433 – 1468 ई.)

कुंभा के प्रमुख दरबारी – विद्वान – भुवनसुन्द्र (जैन विद्वान) जयचंद्र सूरी, सोमदेव सोमसुंदर, महेशचंद्र सूरी।

वास्तुकार (शिल्पी) – मण्डन, नाथा, गोविंद, पौजा, पूंजा, अत्रिभट्‌ट, महेश भट्‌ट, दाना

–  मण्डन के भाई का नाम नाथा तथा इनके ग्रंथ का नाम वास्तु मंजरी

–  मण्डन के पुत्र का नाम गोविंद

गोविंद के प्रमुख ग्रंथ – कलानिधि

उद्धार धारिणी

द्वारा दीपिका




–  मण्डन के प्रमुख ग्रंथ –

–  वैद्य मण्डन – इस ग्रंथ में व्याधियों, बीमारियों का निदान बताया गया है।

–  शकुन मण्डन  शकुन शास्त्र का वर्णन

–  कोदेन मण्डन – इस ग्रंथ में धनुर्विद्या के बारे में जानकारी दी गई है।

–  प्रासाद मण्डन – इस ग्रंथ में देवालय निर्माण की जानकारी दी गई है।

राजवल्लभ मण्डन – 14 अध्यायों में विभक्त ग्रंथ इस ग्रंथ से आवासीय भवन एंव राजप्रासादों के निर्माण से संबंधित जानकारी दी गई है।

–  रूपमण्डन  6 अध्यायों में विभक्त है।

–  यह ग्रंथ मूर्तिकला से संबंधित है।




–  छठे अध्याय में जैन धर्म की मूर्तियों से संबंधित वर्णन है।

–  रूपावतर मण्डन (मूर्ति प्रकरण)  मूर्तिकला से संबंधित यह ग्रंथ 8 अध्यायों में विभक्त है।

–  वास्तुमण्डन तथा वास्तुकार में वास्तुकला का वर्णन है।

–  राणा कुंभा की हत्या 1468 ई. में मामादेव कुण्ड के पास कुंभलगढ़ (राजसमंद) में पुत्र ऊदा द्वारा की गई।

–  मेवाड़ का प्रथम पितृहन्ता- ऊदा

–  कर्नल जेम्स टॉड ने कहा ‘’कुंभा में लाखा जैसी प्रेम कला एवं हम्मीर जैसी शक्ति थी। जिसने मेवाड़ के झंडे को घग्घर नदी के तट पर फहराया।

–  राणा ऊदा 1468 – 1473 ई. तक कुंभा की हत्या के समय ऊदा का भाई रायमल ईडर (गुजरात) में था।

–  1473 ई. में रायमल ने मेवाड़ सरदारों की सहायता से ऊदा को राजगद्दी से हटाया।

–  रायमल 1473 – 1509 ई.

–  रायमल के प्रमुख दरबारी – गोपाल भट्‌ट, महेश भट्‌ट, अर्जुन नाम का प्रख्यात पंडित

–  रायमल की पत्नी श्रृंगार देवी ने चित्तौडगढ़ दुर्ग में घोसुण्डी बावड़ी का निर्माण करवाया था।







मेवाड़ का इतिहास – 15

रायमल के कुल 11 रानियाँ तथा 13 पुत्र थे।

पुत्र –   पृथ्वीराज सिसोदिया

  • जयमल

–  सग्रांम सिंह

– ज्योतिषियों ने राणा सांगा का राज योग बलिष्ठ बताया था।

– सांरगदेव के रहने पर तीनों भाई भीमल गाँव पहुँचे जहाँ चारणी पुजारिन ने राणा साँगा के शासक बनने की भविष्यवाणी की ।

– इस भविष्यवाणी से नाराज होकर पृथ्वीराज सिसोदिया ने साँगा (सग्राम सिहं) पर वार किया, लेकिन साँगा यहाँ से बचकर सेवंत्री गाँव बीदा राठौड़ की शरण में पहुँचा।

बीदा राठौड़ सांगा की रक्षा करते हुए जयमल से लड़ते हुए  वीरगति को  प्राप्त हुए। तत्पश्चात्  राणा सांगा को  श्रीनगर (अजमेर) में कर्मचंद पँवार ने शरण दी ।




पृथ्वीराज की मृत्यु विष से तथा जयमल सोलंकी राजाओं से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

राणा सांगा /संग्राम सिंह

(1509ई.-1528ई.)

पिता – रायमल

माता – रतनी कँवर

पत्नी – हाड़ी रानी कर्मावती

पुत्र  – रतन सिंह

–  भोजराज

–  विक्रमादित्य

–  उदय सिंह

उपाधि – हिन्दुपत

  • कर्नल जेम्स टॅाड ने संग्राम सिंह को “सैनिको का भग्नावेश” कहा।
  • राणा सांगा के शरीर पर 80 घाव थे।




राणा सांगा तथा दिल्ली सल्तनत

राणा सांगा के समय दिल्ली सल्तनत में तीन शासक बने।

  • सिकन्दर लोदी
  • इब्राहिम लोदी
  • बाबर

-सिकन्दर लोदी ने राणा सांगा पर कभी आक्रमण नहीं किया इब्राहिम लोदी ने साम्राज्यवादी नीति के तहत मेवाड़ पर आक्रमण किया था।

खातौली का युद्ध – 1517 ई.

स्थान –बूँदी।

खातौली वर्तमान में कोटा में है।

इस युद्ध में राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया।

-खातौली की पराजय का बदला लेने के लिए इब्राहिम लोदी ने मेवाड़ पर दुसरी बार आक्रमण किया।

बाड़ी का युद्ध 1518-1519 ई.

स्थान –धौलपुर

इस युद्ध में भी राणा सांगा ने इब्राहिम को दूसरी बार पराजित किया।







मेवाड़ का इतिहास – 16

  • इब्राहिम लोदी की लगातार दो बार पराजय से नाखुश दिल्ली में मुस्लिम सल्तनत को बचाने के लिए आलम खाँ लोदी व दौलत खाँ लोदी ने मोहम्मद जहीरूदीन बाबर को भारत आगमन का आंमत्रण दिया।
  • बाबर ने भारत आकर इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया।
  • पानीपत का प्रथम युद्ध-April 1526 स्थान हरियाणा, इस युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया।
  • भारत में सर्वप्रथम गोला बारूद को प्रयोग इसी युद्ध में हुआ था।
  • पानीपत का प्रथम युद्ध जीतकर बाबर ने दिल्ली व आगरा पर अधिकार किया।
  • राणा सांगा ने बाबर के शासक बनते ही दिल्ली से लगने वाली सीमाओं को सुदृढ़ करते हुए रण्थम्भौर खण्डार एवं बयाना सैनिक चौकी के रूप में स्थापित किया।




  • फरवरी 1526 ई में बाबर ने इश्क आका के नेतृत्व में बयाना दुर्ग पर आक्रमण करने हेतु सेना भेजी।
  • बयाना का किलेदार निजाम खाँ का भाई आलम खाँ बाबर के पक्ष में मिलकर बयाना दुर्गईश्क आका को सुपुर्द करते है।
  • बयाना युद्ध- फरवरी 1527, स्थान भरतपुर
  • राणा सांगा तथा बाबर के सैनिकोंईश्क आका व मेंहदी ख्वाजा के मध्य।
  • राणा सांगा इस युद्ध में विजयी हुआ।







मेवाड़ का इतिहास – 17

राणा सांगा- (1509 ई.- 1528 ई.)

  • बयाना पराजय का बदला लेने हेतु बाबर ने राणा सांगा पर खानवा नामक स्थान पर आक्रमण किया।

खानवा युद्ध (17 मार्च, 1527 ई.)

  • स्थान- रूपवास (भरतपुर)
  • विजेता – बाबर
  • इस युद्ध के पश्चात् बाबर नेगाजी की उपाधि धारण की।
  • गाजी = काफिरो का नाशक।
  • खानवा युद्ध से पूर्व राणा सांगा ने पाती परवन की पद्धति अपनाई।

पाती परवन:-




  • सभी हिन्दू राजाओं द्वारा एक छत के नीचे एकत्रित होना।
  • खानवा युद्ध में राणा सांगा का साथ देने के लिए निम्न शासक आये।
  • बीकानेर – कल्याणमल, जोधपुर- गंगदेव/मालदेव, मेड़ता – रतनसिंह, मेवात – हसन खां मेवाती, ईडर- भारमल, चन्देरी- मेदिनीराय, जगनेर- अशोक परमार, रायसेन-सहलदी तँवर, सादड़ी- झाला अज्जा।
  • पृथ्वीराज कच्छवाहा (आमेर), वागड़ (डूँगरपुर) उदयसिंह दोनों वीरगति को प्राप्त हुए।
  • खानवा युद्ध में राणा सांगा के घायल होने के पश्चात्झाला अज्जा ने इन्हें युद्ध भूमि से बाहर कर मेवाड़ का राजमुकूट धारण किया।
  • झाला अज्जा का सहयोग रावत रतनसिंह एंव मालदेव ने किया।
  • बसवा (दौसा) में राणा सांगा को होश आने पर कहा “मैं जब तक बाबर को पराजित नही कर देता तब तक मेवाड़ की पवित्र धरती पर कदम नहीं रखूँगा”




  • राणा सांगा के सहयोगियों ने काल्पी (P) के पास ईरीच गाँव में राण सांगा को जहर दे दिया।
  • 30 जनवरी, 1528 ई. को राणा सांगा की मृत्यु (काल्पी – M.P. ईरीच गाँव) हो गई।
  • राणा सांगा का दाह संस्कार माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया जहाँ इनकी 8 खम्भों की छतरी का निर्माण करवाया।
  • खानवा युद्ध राजस्थान इतिहास का प्रथम युद्ध है, जिसमें तोपखाना का प्रयोग किया गया ।
  • तोप चलाने वाले तोपची कहलाते है।
  • बाबर के तोपची- मुस्तापा अली , 2. अली खाँ
  • कर्नल जेम्स टॉड व कविराजा श्यामलदास के अनुसार पराजय के प्रमुख कारण –रायसेन के शासक  सलहदी तंवर युद्ध के समय विशाल सेना के साथ बाबर से मिला।
  • डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार राणा सांगा खुद युद्ध भूमि में उत्तर जाना जिससे पीछे के सैनिकों के साथ तालमेल नहीं बैठा, इस कारण राणा सांगा की पराजय हुई।




पराजय के अन्य कारण:-

  • बाबर द्वारा इस युद्ध में तुलुगमा युद्ध पद्धति अपनाई जो सांगा की हार का कारण बनती है।
  • राणा सांगा की पुरानी युद्ध पद्धति थी।
  • राणा सांगा की सेना में एकरूपता नहीं थी।
  • बाबर द्वारा तोपखाने का प्रयोग किया गया।







मेवाड़ का इतिहास – 18

राणा सांगा –  (1509-1528ई.)

राणा सांगा के समकालीन मालवा शासक महमूद खिलजी-II था।

राणा सांगा के समकालीन ही माण्डू एंव चंदेरी (M.P.) का राजपूत सरदार मेदिनी राय था।

मुस्लिम सरदार महमूद खिलजी II को निर्बल समझते हुए। उसे राजगद्दी से हटाकर उसके भाई साहब खाँ को मालवा का शासक बनाया।

महमूद खिलजी II ने मेदिनी राय की सहायता से पुन: राजगद्दी प्राप्त की।

सिकंदर लोदी, गुजरात शासक मुजफ्फरशाह एंव साहेब खाँ तीनों ने रूप से खिलजी II को हटाने हेतु आक्रमण किया लेकिन मेदिनी राय ने इसे असफल किया।

महमूद खिलजी II ने मेदिनीराय को मालवा का प्रधानमंत्री बनाया।




मालवा के मुस्लिम सरदारों के प्रभाव में आकर खिलजी II ने कुछ समय पश्चात् मेदिनीराय को हटाकर उसके क्षेत्र माण्डू व चंदेरी पर अधिकार करना चाहा।

मेदिनी राय माण्डू का कार्यभार अपने पुत्र नत्थू को सौंपकर मेवाड़ महाराणा सांगा की शरण में आया।

खिलजी II ने नत्थू की हत्या कर माण्डू पर अधिकार किया एंव पूर्ण रूप से मालवा का शासक बना।

राणा सांगा ने मेदिनीराय को गागरोन व चंदेरी की जागीर दी।




गागरोन का युद्ध (1519 ई.)

स्थान – झालावाड़

राणा सांगा व महमूद खिलजी II के मध्य युद्ध हुआ।

विजेता राणा सांगा रहे।

राणा सांगा का गुजरात के साथ संबंध :-

राणा सांगा के समकालीन गुजरात शासक मुजफ्फरशाह था।

मुजफ्फरशाह के साथ दुश्मनी के प्रमुख कारण।

  1. धार्मिक कट्टरता,
    2. गुजरात शासक व खिलजी II द्वारा मेदिनीराय के पुत्र नत्थू की हत्या करना।
  2. गागरोन युद्ध में मालवा का सहयोग करना।
  3. ईडर राज्य में सांगा व मुज्जफ्फरशाह का हस्तक्षेप।

भाणा की मृत्यु के पश्चात् ईडर का शासक सूर्यमल्ल एवं तत्पश्चात् रायमल बना।

रायमल की अल्पायू का लाभ उठाकर भीम ईडर का शासक बनता है।

भीम की अल्पायु मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र भारमल शासक बनता है।

रायमल राणा सांगा की शरण में जाकर उनकी सहायता से ईडर का शासक बनता है।

भारमल का सहयोग गुजरात शासक मुज्जफ्फर शाह ने किया।







मेवाड़ का इतिहास – 19

– राणा सांगा के सहयोग से भारमल ईडर का शासक बना।

– 1514 ई. व 1516 ई. में गुजरात के शासक मुज्जफ्फर शाह ने निजाम-उल-मुल्क के नेतृत्व में ईडर पर असफल आक्रमण किया।

– 1520 ई. में मालिक हुसैन के नेतृत्व में मुज्जफ्फर शाह ने सेवा भेज कर ईडर पर अधिकार किया एवं निजाम-उल-मुल्क को यहाँ का प्रशासक नियुक्त किया।

– राणा सांगा ने मलिक हुसैन को पराजित कर पुन: ईडर का शासक रायमल को बनाया।

– ईडर में पुन: पराजय के पश्चात् 1520 ई. में मुज्जफ्फर शाह ने एयाज अली के नेतृत्व में वागड़ के रास्ते मेवाड़ पर आक्रमण हेतु सेना भेजी।

– इस आक्रमण के समय डुँगरपूर के शासक गज्जा लड़ते हुए मारे गए।

– गुजरात व माण्डू की सेना मेवाड़ में लुटमार करते हुए मंदसौर पहुँची जहाँ पर राणा सांगा ने 1521-22 ई. में सामना किया।

– राणा सांगा के सामने गुजरात की सेना ने आत्मसमर्पण करते हुए सांगा से संधि (एयाज अली के सहयोग से) कर ली।




राणा सांगा के चार पुत्र थे-

  1. रतनसिंह
  2. भोजराज
  3. विक्रमादित्य
  4. उदयसिंह

¨ रतनसिंह (1528-1531 ई.)

– बूँदी शासक सुर्जनसिंह हाड़ा के साथ शिकार खेलते हुए मृत्यु हो गयी।

¨ विक्रमादित्य (1531-1536 ई.)

– यह अवयस्क शासक था।

– इनकी सरंक्षिका कर्मावती थी।




– इनके समकालीन गुजरात का शासक बहादुरशाह एवं दिल्ली का शासक हुमायूँ था।

– बहादुर शाह ने मेवाड़ पर प्रथम आक्रमण 1533 ई. में किया।

– इस आक्रमण के समय रानी कर्मावती ने बहादुर शाह को रणथम्भौर दुर्ग देकर वापस भेजा।

– हुमायूँ का कलिंजर दुर्ग पर अभियान को देखकर 1534 ई. में बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर पुन: आक्रमण किया।

– इस आक्रमण के समय रानी कर्मावती ने विक्रमादित्य व उदयसिंह को सुरक्षित बूँदी भेजा।

– इस आक्रमण के समय मेवाड़ का नेतृत्व देवलिया (प्रतापगढ़) के सामंत रावल बाघसिंह ने किया।

– युद्ध के दौरान कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेज कर सैनिक सहायता माँगी लेकिन समय पर हुमायूँ ने सहायता नहीं की।

– 1534 ई. में रावल बाघसिंह लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तथा कर्मावती ने जौहर किया जिसे मेवाड़ के इतिहास का दुसरा साका माना जाता है।




– कुछ समय के लिए चित्तौड़गढ़ पर बहादुर शाह ने अधिकार किया लेकिन हुमायूँ के आगमन का समाचार सुनकर पुन: गुजरात भाग गया।

– 1536 ई. में पृथ्वीराज सिसोदिया के दासी पुत्र बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी।

– बनवीर उदयसिंह को भी मारना चाहता था। लेकिन पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदयसिंह को सुरक्षित कुंभलगढ़ दुर्ग में आशा देवपुरा के पास ले गई।

– 1536 ई. में बनवीर मेवाड़ का शासक बना।







मेवाड़ का इतिहास – 20

बनवीर (1536ई.-1537ई.)

– यह पृथ्वीराज सिसोदिया (उड़ना राजकुमार) का दासी पुत्र था।

– इसने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में तुलजा भवानी मंदिर का निर्माण करवाया।

– इसमें चित्तौड़गढ़ दुर्ग में नवकोढा भण्डार का निर्माण करवाया जिसे चित्तौड़गढ़ का लघु दुर्ग कहते है।

राणा उदयसिंह (1537ई.1572ई.)

– यह अफगानों की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था।

– उदयसिंह ने शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार कर मेवाड़ के दुर्गो की चाबियाँ शेरशाह के पास पहुँचाई।

– शेरशाह सूरी ने चित्तौड़गढ़ में अपना प्रतिनिधि अहमद सरवानी को नियुक्त किया।

– 159ई. में धुणी नामक स्थान पर उदयसिंह ने उदयपुर शहर की स्थापना की।




– उदयसिंह ने आयड नदी को रोककर उदय सागर झील का निर्माण (1559ई.-1565ई.) करवाया।

– उदयसिंह ने उदयपुर में राजपरिवार के निवास हेतु राजमहल (चन्द्रमहल) का निर्माण करवाया।

– राजमहल को फर्ग्युयसन ने विंडसर महल की संज्ञा दी।

– उदयसिंह के समकालीन दिल्ली का मुगल शासक अकबर था जिसनें उदयसिंह को अपने अधीन करने के लिए सुलह – ए-कुल की नीति अपनाई।

– अकबर ने उदयसिंह को अपनी अधीनता स्वीकार करवाने के लिए दो शिष्ट मंडल भेजे-

  1. भारमल
  2. टोडरमल

– अकबर के विरोधी बहादुर (मालवा का शासक) को उदयसिंह ने शरण दी।

– अकबर ने उदयसिंह पर आक्रमण करने के लिए Oct 1567ई. में धौलपुर से तख्शीस, चगताई खाँ, आसफ खाँ तथा हुसैन कुली खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी।

– अकबर के तोपखाने का मुखियाँ/तोपची- कासिम खाँ था।




– अकबर की बंदूक का नाम संग्राम था। मोहर मगरी- चित्तौड़गढ़ दुर्ग में प्रवेश हेतु अकबर द्वारा बनवाया गया एक रेत का टीला था जिसके निर्माण हेतु प्रत्येक रेत की तगारी के बदले श्रमिकों को एक-एक स्वर्ण मुद्रा दी थी।

– अकबर की सेना ने चित्तौड़गढ़़ का घेरा डाला तथा उदयसिंह गोगुन्दा की पहाड़ियों में चले गए।

– उदयसिंह ने चित्तौड़गढ़ की रक्षा की डोर जयमल व फत्ता को सौंपी।

– उदयसिंह का पीछा करने के लिए अकबर ने हुसैन कुली खाँ को भेजा लेकिन सफलता नहीं मिली।

– अकबर ने अपनी बन्दूक संग्राम से जयमल को घायल कर दिया।

– राशन सामग्री के भाव के कारण चित्तौड़गढ़ दुर्ग के दरवाजें खोल मेवाड़ी सैनिकों ने अकबर की सेना पर आक्रमण कर दिया।

– इस युद्ध के दौरान ईसरदास चौहान ने अकबर पर भाले से वार किया लेकिन अकबर बच गया।

– अकबर का कथन – मैंने मौत को जीवन में पहली बार इतना करीब से देखा।

– जयमल मेड़तिया, कल्लाजी राठौड़, ईसरदास चौहान एवं फतेहसिंह सिसोदिया इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।

– इस समय मेवाड़ इतिहास का तीसरा साका (25 फरवरी 1568ई.) हुआ।

 केसरिया फतेहसिंह

 जौहर- फूलकँवर

– 25 फरवरी 1568ई. को अकबर ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा दुर्ग का प्रशासक अब्दुल माजिद को नियुक्त किया।

– जयमल व फत्ता की वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने आगरा के मुख्य प्रवेशद्वार पर उनकी मूर्तियाँ लगवाई।

नोट: राजस्थान में जयमल व फत्ता की मूर्तियों बीकानेर के शासक रामसिंह ने जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) में लगवाई।







मेवाड़ का इतिहास – 21

  • चितौडगढ़ दुर्ग विजय के पश्चात अकबर ने मेवाड़ के अधीन रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण किया।
  • इस समय रणथम्भौर दुर्ग का किलेदार सुर्जनसिंह हाडा थे जिन्होनें भगवतंदास के कहने पर अकबर की अधीनता स्वीकार की।
  • अकबर ने 1569 ई. में रणथम्भौर दुर्ग को अपने अधीन कर यहाँ का प्रशासक मिहत्तर खाँ को नियुक्त किया।
  • 28 फरवरी, 1572 ई. को उदयसिंह की गोगुन्दा में मृत्यु (होली के दिन) हो गई।
  • उदयसिंह की पत्नी रानी महियाणी/धीरबाई ने अपने पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
  • जयंता बाई (उदयसिंह की पत्नी) का पुत्र कीका/कुका (प्रताप) अपने नाना अखेराज सोनगरा (पाली) की सहायता से मेवाड़ का शासक बना।




महाराणा प्रताप (1572 ई.- 1597 ई.)

  • जन्म-9 मई 1540 कुम्भलगढ़ दुर्ग के बादल महल की जुनी कचहरी (विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ शुक्ल 3) में हुआ।
  • प्रताप जयंती- ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को।
  • राज्याभिषेक- 28 फरवरी 1572 को, गोगुन्दा सलुम्बर के कृष्णदास चूण्डावत ने प्रताप के राजकीय तलवार बांधी।
  • राज्याभिषेक समारोह- कुम्भलगढ़ दुर्ग में मनाया।
  • माता- जयवंता बाई
  • पिता- उदयसिंह
  • पत्नी- अजबदे (रामरख पंवार की पुत्री)
  • बचपन को नाम- कीका
  • घोड़ा – चेतक
  • हाथी- रामप्रसाद व लूणा




उपनाम-

  • हल्दी घाटी का शेर, मेवाड़ केसरी, हिन्दुआ सुरज, पाथल, कीका।
  • अकबर सुलह- ए-कूल की नीति के तहत प्रताप को अपने अधीन करना चाहता था।
  • अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए 4 शिष्टमण्डल भेजे-
  1. जलाल खाँ कोरची- सितम्बर 1572 ई.
  2. मानसिंह- अप्रैल-1573 ई.
  3. भगवंतदास- सितम्बर-1573 ई.
  4. टोडरमल- दिसम्बर 1573 ई.
  • अकबर ने महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने हेतु योजना अकबर के किले (अजमेर) में बनाई।
  • इस योजना के तहत अकबर ने सेनाध्यक्ष/ प्रधान सेनापति मानसिंह को बनाया।
  • अकबर की सेना अजमेर से माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) पहुँची तथा वहाँ पर 18-21 दिन तक सैन्य प्रशिक्षण लिया।
  • हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व अकबर की सेना ने अपना अंतिम पड़ाव मोलेला गाँव (राजसमंद) में डाला।
  • मुगल सेना के हरावल भाग का नेतृत्व जगन्नाथ कच्छवाह एवं आसफ खाँ ने किया।
  • इस युद्ध में मानसिंह (मुगलों) की सेना लगभग 80 हजार थी।
  • महाराणा प्रताप ने युद्ध की योजना के दौरान अपने सेना के हरावल भाग  का नेतृत्व हाकिम खाँ को सौपा।
  • महाराणा प्रताप के पास इस युद्ध में लगभग 20 हजार सेना थी।
  • हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व प्रताप की सेना का अंतिम पड़ाव लेसिंगा गाँव (राजसमंद) में डाला।







मेवाड़ का इतिहास – 22

हल्दी घाटी का युद्ध-18 जून, 1576 राजसमंद महाराणा प्रताप व मानसिंह के मध्य

  • परिणाम = अनिर्णायक
  • अप्रत्यक्ष रूप से अकबर की सेना इस युद्ध में पराजित हुई क्योंकि अकबर का मूल उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ था।
  • प्रताप के हाथी रामप्रसाद को मुगल सेना युद्ध के पश्चात् अकबर के पास ले गई तथा अकबर ने इसका नाम परिवर्तित करके पीरप्रसाद रखा।
  • इस युद्ध के दौरान मुगल सेना के हाथी-गजमुक्ता, गजा/गजराज, मर्दाना व नगाला शामिल थे।
  • इस युद्ध के दौरान मुगल सेना में जोश मिहत्तर खाँ ने बादशाह अकबर के आने की झूठी अफवाह फैलाकर भरा।
  • इस युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप ने बहलोल खाँ के घोड़े सहित दो टुकड़े कर दिए।
  • इस युद्ध के के दौरान प्रताप का घोड़ा चेतक घायल होने के कारण प्रताप ने युद्ध भूमि का मैदान छोड़कर बलीचा गाँव (राजसमंद) पहुँचे, जहाँ पर चेतक ने अन्तिम साँस ली।




  • महाराणा प्रताप युद्ध भूमि के बाहर जाने के पश्चात् प्रताप का राजमुकुट झाला बीदा ने धारण किया तथा वीर गति को प्राप्त हुए।
  • चेतक की समाधि/छतरी – बलीचा गाँव (राजसमंद) में है।
  • गिरधर आसिया द्वारा रचित संगत रासौ के अनुसार शक्तिसिंह व महाराणा प्रताप की मुलाकात बलीचा गाँव में हुई।
  • शक्ति सिंह ने अपना घोड़ा केटक/त्राटक महाराणा प्रताप को सौंपा, तत्पश्चात् महाराणा प्रताप कोल्यारी गाँव (उदयपुर) पहुँचे।
  • इस युद्ध भूमि के झाला बीदा, रामसिंह (ग्वालियर), रामदास राठौड, कृष्णदास चूंडावत, हरिसिंह आड़ा इत्यादि राजपूत सरदार लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।




इस युद्ध के उपनाम:-

मेवाड़ की धर्मोपल्ली – कर्नल जेम्स टॉड

गोगुन्दा का युद्ध – अब्दुल कादिर बदायूँनी

खमनौर का युद्ध – अबुल फजल

बादशाह बाग – एल. श्री वास्तव

रक्त तलाई




हाथियों का युद्ध

  • हल्दीघाटी युद्ध का सजीव वर्णन बदायूँनी ने अपने ग्रन्थ “मुन्तखाब- उत्त – तवारिक” में किया।
  • बदायूँनी इस युद्ध में उपस्थित था तथा इसने राजपूत सैनिकों के खून से अपनी दाढ़ी रंगवाई।
  • प्रताप कोल्यारी गाँव के पश्चात् कुंभलगढ़ दुर्ग पहुँचे।
  • महाराणा प्रताप ने स्वभूमिविध्वंस की नीति एवं छापामार पद्धति अपनाते हुए गोगुन्दा में रसद सामग्री के आवाजाही रास्ते बंद कर दिए।
  • रसद सामग्री की कमी के कारण मुगल सेना गोगुन्दा को छोड़कर अजमेर लौटी।
  • प्रताप ने गोगुन्दा पर अधिकार कर यहाँ का कार्यभार मांडण कूंपावत को सौपा।







मेवाड़ का इतिहास -23

महाराणा प्रताप व अकबर

  • हल्दी घाटी युद्ध के बाद अकबर अपनी सेना सहित 13 अक्टूबर, 1576 ई. को गोगुन्दा पहुँचा तथा मेवाड़ के मही गाँव के पास, 1 महिने तक रूका।
  • इस दौरान अकबर ने मानसिंह को प्रताप को पकड़ने के लिए भेजा जो असफल रहा।
  • नवम्बर 1576 ई. को अकबर निराश होकर मेवाड़ से मालवा लौटा।
  • अकबर के लौटते ही प्रताप ने अकबर के प्रशासक मुजाद्धि बेग की हत्या कर गोगुन्दा पर पुन: अधिकार किया तथा गोगुन्दा का कार्यभार मांडल कूंपावत को सौपा।
  • अकबर ने प्रताप को कैद करने हेतु शाहबाज खाँ को कुंभगलढ़ एंव आस-पास क्षेत्रों पर तीन बार आक्रमण करने के लिए भेजा-
  • शाहबाज खाँ का प्रथम आक्रमण – 15 अक्टूबर, 1577 इस आक्रमण के दौरान 5 अप्रैल, 1578 ई. को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ पर अधिकार कर लिया।




  • 4 अप्रैल, 1575 को शाहबाज खाँ ने गोगुन्दा व उदयपुर पर भी अधिकार कर लिया।
  • प्रथम आक्रमण में शाहबाज खाँ महाराणा प्रताप को कैद करने में असफल रहा।
  • शाहबाज खाँ का दूसरा आक्रमण – 15 दिसम्बर,1578 यह भी आक्रमण असफल रहा।
  • शाहबाज खाँ का तीसरा आक्रमण – 15 नवम्बर, 1579 यह भी आक्रमण असफल रहा।
  • अकबर ने 1580 ई. में रहीम खाना ए-खाना के नेतृत्व में प्रताप को कैद करने हेतु सेना भेजी लेकिन असफल रही।
  • रहीम खान-ए-खाना का कथन-तुर्की राज्य का अंत हो जायेगा लेकिन महाराणा प्रताप का धर्म व राज्य शाश्वत रहेगा।
  • 1580 ई. से 1584 ई. तक महाराणा प्रताप पर मुगल सेना का कोई आक्रमण नहीं हुआ।
  • अकबर ने मेवाड़ पर मुगल शासक चलाने एंव उसे कैद करने हेतु चार सैनिक चौकियाँ स्थापित की।




­     दैबारी – उदयपुर

­     दिवेर – राजसमंद

­     देसुरी – पाली

­     देवल – डूँगरपुर

  • प्रताप की भामाशाह से मुलाकात – 1577 ई. को चुलिया गाँव चित्तौड़गढ में हुई।
  • इस मुलाकात में प्रताप को भामाशाह ने 25 लाख रूपये व 20000 स्वर्ण मुद्राएँ दान दी।
  • यह दान दी गई राशि मालवा से लूटकर लाई गई थी।
  • प्रताप ने अपने प्रधानमंत्री रामा की जगह भामाशाह को नियुक्त किया।




भामाशाह

  • जन्म – 28 जून, 1547 ई. कावड़िया (ओसवाल) गाँव (पाली)
  • इन्हें मेवाड़ का उद्धारक व मेवाड़ का रक्षक कहा जाता है।
  • द्विवेर का युद्ध – 1582 ई. – राजसमंद
  • यह युद्ध महाराणा प्रताप व मुगल सेना के मध्य हुआ।
  • इस युद्ध में मेवाड़ी सेना का सेनापति अमरसिंह I तथा मुगल सेना का सेनापति सुल्तान खाँ था।
  • इस युद्ध में सुल्तान खाँ मारा गया तथा मेवाड़ी सेना की विजय हुई।
  • इस युद्ध को कर्नल जेम्स टॉड ने मेवाड़ का मैराथन कहा।




  • अकबर ने महाराणा प्रताप के विरूद्ध 5 दिसम्बर 1584 ई. को जगन्नाथ कच्छवाहक के नेतृत्व अन्तिम सैनिक अभियान भेजा।
  • 1584 ई.-1586 ई. तक जगन्नाथ कच्छवाह मेवाड़ में रहा लेकिन प्रताप को पकड़ने में असफल रहा।
  • 1586 ई. से प्रताप की मृत्यु तक कोई मुगल आक्रमण नहीं हुआ।
  • चावंड़ का युद्ध – 1585 ई.
  • महाराणा प्रताप व लूणा चावण्डिया के मध्य हुआ।
  • इस युद्ध में प्रताप की सेना विजय हुई।
  • 1585 ई. में महाराणा प्रताप ने अपनी राजधानी चावण्ड को बनाई।
  • नोट:-19 जनवरी, 1597 तक चित्तौड़गढ़ व माण्डल को छोड़कर प्रताप ने अधिकांश मेवाड़ पर अधिकार कर लिया।










मेवाड़ का इतिहास – 24

(1) महाराणा प्रताप (1572ई.-1597ई.)

  निर्माण कार्य-

1.हरिहर मंदिर का निर्माण

2.चामुण्ड़ा माता का मंदिर का निर्माणचावण्ड

(2) प्रताप के काल में लिखित ग्रन्थ-

1.विश्ववल्लभ-चक्रपाणि मिश्र द्वारा

  1. राज्याभिषेक पद्धति-मूहर्त माला द्वारा




(3) हेमरतन सूरी के ग्रन्थ-

1.गौरा-बादल पद्मनी चरित चौपाई
2. सीता चौपाई
3. महिपाल चौपाई
4. अमर कुमार चौपाई

(4) दुरसा आढा 1. विरुद्ध छतरी

(5) माला सांदू 1. झूलणा

* 19 जनवरी 1597 को महाराणा प्रताप का निधन हो गया।

* महाराणा प्रताप की छतरी- बाडौली

* यह छतरी आठ खम्भों की है इसका निर्माण अमरसिंह प्रथम  ने करवाया।

* महाराणा अमरसिंह प्रथम(1597ई.-1620 ई.)




* राज्याभिषेक- 19 जनवरी, 1597 ई. चावण्ड़ (उदयपुर)

* मेवाड़ में इनके शासनकाल में इन्होंनें सेना को मजबूती प्रदान करने हेतू एक अलग सैन्य विभाग का गठन किया। जिसका अध्यक्ष हरिदास झाला को बनाया गया।

* अमरसिंह प्रथम ने शक्तावतों व चूण्ड़ावतों की प्रतिस्पर्द्धा को रोकने हेतू सर्वप्रथम जागीर व सांमतों के  लिए विधि-विधान बनाई गई।

*  अकबर ने 1599ई. में जहाँगीर के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण के लिए सेना भेजी।

*  जहाँगीर ने 1605ई. में (अकबर की  मृत्यु के बाद) आसिफ व जफर खाँ को सेना देकर अमरसिंह प्रथम के विरूद्ध भेजा जो असफल रहा।

* 1609 ई.   में अब्दुल्ला के नेतृत्व में मुगल सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण किया जो असफल रहा।

* 1612 ई. में मुगल सेना ने राजा बासु के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण किया, यह भी असफल रहा।

* 1613 ई.  में जहाँगीर स्वयं ने मेवाड पहॅुचा, इस समय जहाँगीर का सेनापति शाहजहाँ (खुर्रम)था।




* इस समय अमरसिंह चावण् को छोड़कर गोगुन्दा की पहाडियों  में चले गए।

* 1613 ई.  में मुगल सेना ने चावण्ड़ व मेरपुर पर अधिकार   कर लिया।

3 माह पश्चात् मेवाड़ से जहाँगीर अजमेर चले गए।

नोट:- चावण्ड 1997-1613 ई. तक मेवाड़ की राजधानी रही।

  • मुगल सेना द्वारा लम्बे समय तक मेवाड़ में घेरा डाले रखने के कारण मेवाड़ की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी।
  • अमरसिंह प्रथम ने अपनी इच्छा के विरुद्ध हरिदास झाला एवं शुभकर्ण को संधि वार्ता हेतु शाहजहाँ के पास भेजा।
  • शाहजहाँ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करतू हुए शक्रुल्लाह शीराजी व सुन्दरदास को जहाँगीर से अनुमति लेने हेतु अजमेर भेजों।
  • मेवाड, मुगल संधि- 5 फरवरी, 1615 गोगुन्दा(उदयपुर) जहाँगीर के प्रतिनिधि शाहजहाँ व अमरसिंह प्रथम की और से हरिदास झाला व शुभकर्ण के मध्य हुई।




शर्तें-

  1. महाराणा स्वयं मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होकर इनका पुत्र उपस्थित होगा।
  2. वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं होगा।
  3. चितौड़गढ दुर्ग अमरसिंह को सौपा लेकिन निर्माण कार्य नहीं करवा सकेगा।
  4. महाराणा शाही सेना में 1000 सैनिक रखेगा।
  • 19 फरवरी, 1615 को शाहजहाँ कर्ण सिंह को ले  जाकर बादशाह जहाँगीर की सेवा में उपस्थित किया।
  • मुगल की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक अमरसिंह प्रथम था।
  • कर्नल जेम्स टॉड- अमरसिंह प्रथम प्रताप व इस वंश के सुयोग्य वंशधर थे।
  • जी.एच. ओझा- अमरसिंह प्रथम को वीर पिता का “वीर पुत्र” कहा।
  • अमरसिंह प्रथम का काल मेवाड़ काल का निर्माण काल कहलाता है।
  • 26 जनवरी, 1620 अमरसिंह प्रथम की आहड़ (उदयपुर) में मृत्यु हो गई ।







मेवाड़ का इतिहास – 25

महाराजा कर्णसिंह (1620-1628 ई.)

  • महाराजा कर्णसिंह का राज्याभिषेक 26 जनवरी, 1620 को उदयपुर में हुआ।
  • महाराजा कर्णसिंह द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य निम्न हैं-

– कर्ण विलास महल

– चन्द्रमहल

– दिलखुश महल

– रावला जनाना महल

– बड़ा दरीखाना (सभा शिरोमणी)

  • जहाँगीर के पुत्र खुर्रम द्वारा विद्रोह करने पर कर्णसिंह ने उसे सर्वप्रथम कैलवाड़ा हवेली तत्पश्चात जग मंदिर में शरण दी।
  • जगमंदिर-इसका निर्माण कार्य जगतसिंह प्रथम ने पूर्ण करवाया था। जगमंदिर में 1857 की क्रांति के समय स्वरूपसिंह ने अंग्रेजों को शरण दी थी।
  • जगमहल-वर्तमान में होटल लेक पैलेस के रूप में संचालित हैं, इस महल का निर्माण जगतसिंह द्वितीय ने पूर्ण करवाया था।
  • जगमंदिर तथा जगमहल पिछौला झील में स्थित है।
  • कर्णसिंह की मृत्यु मार्च 1628 में हुई।




जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.)

  • जगतसिंह प्रथम का राज्याभिषेक 28 अप्रैल, 1652 को उदयपुर में हुआ।
  • जगतसिंह प्रथम द्वारा करवाए गए निर्माण कार्य निम्न है-

– रूपसागर तालाब का निर्माण (उदयपुर)

– मोहन मंदिर का निर्माण (उदयपुर)

 जगदा बावड़ी का निर्माण (उदयपुर)

  • मेवाड़-मुगल संधि का सर्वप्रथम उल्लंघन जगत सिंह प्रथम ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग का पुन: निर्माण कर किया।
  • जगदीश मंदिर-उदयपुर

जगतसिंह प्रथम द्वारा निर्मित (1652 ई.) इस मंदिर के पास ही इनका स्मारक बना हुआ है, औरंगजेब से इस मंदिर की रक्षा करते हुए नरूजी बारहठ ने बलिदान दिया।

जगदीश मंदिर को सपनों का मंदिर भी कहा जाता है।

पंचायतन शैली में निर्मित इस मंदिर में विष्णु भगवान की प्रतिमा रखी हुई है। इस मंदिर के वास्तुकार भाणा मुकुंद थे।

नैजुबाई मंदिर का निर्माण जगतसिंह प्रथम ने करवाया था। नैजुबाई जगत सिंह प्रथम की धाय माँ थी।

  • जगन्नाथ प्रशस्ति-जगतसिंह ने लिखवाई।

इस प्रशस्ति के लेखक – कृष्ण भट्ट

  • मेवाड़ी भाषा में रचित प्रशस्ति।
  • जगतसिंह प्रथम ने देवलिया प्रतापगढ़ सामंत जसवंत सिंह प्रथम उसके पुत्र महासिंह द्वारा मेवाड़ महाराणा के आदेशों की अवहेलना करने पर उदयपुर में दोनों की हत्या करवाई।
  • शाहजहाँ इस हत्याकाण्ड से नाराज होकर मेवाड़ से एक अलग रियासत प्रतापगढ़ का गठन करता है।
  • जगतसिंह प्रथम के कवि विश्वनाथ ने जगत प्रकाश ग्रंथ की रचना की जो 14 सर्गों में विभक्त है।
  • 10 अक्टूम्बर, 1652 को जगतसिंह की मृत्यु हो गई।




महाराणा राजसिंह (1652-1680 ई.)

  • पिता-जगतसिंह प्रथम, माता- जनादे
  • राज्याभिषेक- 4 जनवरी, 1653
  • वीर विनोद ग्रंथ के अनुसार इनका राज्याभिषेक 14 फरवरी, 1653 को हुआ था।

इनकी उपाधियाँ- विजय कटकातु, हिन्दू धर्म रक्षार्थ

  • शाहजहाँ ने अपनी अजमेर यात्रा के दौरान चित्तौड़गढ़ दुर्ग में निर्माण कार्य के निरीक्षण हेतु सादुल्ला खाँ वजीर को भेजा।
  • 1653 ई. में निर्माण कार्य को ध्वस्त करने हेतु शाहजहाँ ने अब्दुला बेग के नेतृत्व में सेना भेजी।
  • 1656 ई. में शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष शुरू हुआ।
  • मुगलों के उत्तराधिकार संघर्ष के दौरान 1658 ई. में राजसिंह ने माण्डलगढ़ पर अधिकार किया। माण्डलगढ़ दुर्ग पर किशनगढ़ शासक रूपसिंह के अधीन था एवं यहाँ का किलेदार राघवसिंह था।
  • मेवाड़ का एकमात्र शासक राजसिंह था जिसने फरवरी 1653 ई. में एकलिंगनाथ हेतु रत्नों का तुलादान दिया।







मेवाड़ का इतिहास – 26

 मेवाड़ का इतिहास

  • मई 1658 ई. में राजसिंह ने मुगल ठिकानों पर अधिकार करने के उद्देश्य से टीका दौड़ प्रारम्भ की।
  • उत्तराधिकार संघर्ष में औरंगजेब ने राजसिंह से सैनिक सहायता माँगी।
  • 1658 ई. में औरंगजेब के शासक बनते ही राजसिंह ने अपने पुत्र सुल्तान सिंह को मुगल दरबार में सेवा हेतु भेजा।

औरंगजेब व राजसिंह के मध्य तनाव के कारण-

  • चारूमति विवाद (1660 ई.)- किशनगढ़ शासक रूपसिंह की पुत्री चारुमति से औरंगजेब विवाह करना चाहता था। लेकिन चारुमति औरंगजेब से शादी नहीं करना चाहती थी इस कारण उन्होंने राजसिंह से विवाह किया।
  • 1669 ई. में औरंगजेब ने मंदिर तुड़वाने के आदेश जारी किए लेकिन राजसिंह मंदिर पुजारियों को शरण देकर मंदिरों का निर्माण कार्य करवाते रहे।
  • 1678 ई. में अजीतसिंह व दुर्गादास राठौड़ को शरण दी। अजीत सिंह के लालन पालन हेतु केलवा की जागरी दी।
  • 2 अप्रैल, 1679 ई. को औरंगजेब ने जजिया कर लगाया जिसका विरोध राजसिंह ने किया।




  • औरंगजेब 3 सितम्बर, 1679 को दिल्ली से राजसिंह पर आक्रमाण करने हेतु रवाना हुआ।
  • अजमेर पहुँचकर औरंगजेब ने अपने सेनापति शहजादे अकबर द्वितीय व हसन अली खाँ को नियुक्त किया।
  • दिसम्बर, 1679 ई. में सेना अजमेर से मेवाड़ पर आक्रमण करने हेतु रवाना हुई।
  • राजसिंह मुगल सेना के आते ही गोगुन्दा की पहाड़ियों में चले गए।
  • राजसिंह के सेनापति सलुम्बर के रतनसिंह चुण्डावत थे। इनकी पत्नी का नाम- हाड़ी रानी सहल कँवर था।
  • मुगलों का यह आक्रमण असफल रहा लेकिन माण्डलगढ़ पर अधिकार कर लिया।
  • 22 अक्टूबर, 1680 को कुंभलगढ़ के पास आढो गाँव में खाने में विष मिला दिये जाने के कारण राजसिंह की मृत्यु हुई।




राजसिंह के काल की स्थापत्य कला

  • राजसिंह ने राजसमंद झील का निर्माण राजसमंद में करवाया।
  • गोमती नदी के पानी को रोककर राजसंमद झील का निर्माण करवाया गया।
  • राजसमंद झील की नींव 1 जनवरी, 1662 ई. को रणछोड़ राय के द्वारा रखी गई।
  • इस झील का निर्माण पूर्ण अप्रैल 1665 ई. को हुआ।
  • इस झील का प्रारंभिक नाम राजसमुद्र था।
  • इस झील की कुल लागत 1,05,07,608 रुपये आई।
  • इस झील के पास राजसमंद की स्थापना की गई।

राज प्रशस्ति-राजसिंह ने राजसमंद झील के किनारे इस प्रशस्ति की रचना करवाई। इस प्रशस्ति के लेखक रणछोड़ भट्ट तैलंग थे।

राजप्रशस्ति की विशेषताएँ- 1676 ई. में संस्कृत भाषा में रचित।




निर्माण कार्य

– 25 काली शिलाओं के ऊपर रचित

– 1106 श्लोक

– 24 सर्गों/भागों में विभक्त

– विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति

– मेवाड़-मुगल संधि का उल्लेख

– राजसिंह से जगतसिंह द्वितीय तक का इतिहास उल्लेखित है।

  • श्रीनाथ जी मंदिर का निर्माण- नाथद्वारा (राजसमंद) नाथद्वारा का प्राचीन नाम सिहाड़ था।
  • निर्माण प्रारम्भ 1669 ई. में हुआ तथा पूर्ण 10 फरवरी, 1672 में हुआ।
  • इस मंदिर की मूर्ति वृन्दावन (उत्तरप्रदेश) से लाई गई तथा इसके पुजारी दामोदर व रामवतार थे।
  • द्वारिकाधीश मंदिर का निर्माण- कांकरौली (राजसमंद)
  • अम्बेमाता मंदिर- उदयपुर।
  • जनासागर तालाब का निर्माण बाड़ी गाँव उदयपुर में करवाया गया।
  • रूगासागर तालाब का निर्माण उदयपुर में करवाया गया।
  • देबारी घाटी का किला उदयपुर में बनवाया गया।
  • सर्वऋतु महल का निर्माण राजसमंद में करवाया गया।
  • राजसिंह की पत्नी रामरस दे ने उदयपुर में त्रिमुखा (जया) बावड़ी का निर्माण करवाया।







मेवाड़ का इतिहास – 27

महाराणा जयसिंह (1680-1698 ई.)

  • महाराणा जयसिंह का राज्याभिषेक कुरजगाँव- उदयपुर (राज प्रशस्ति के अनुसार, इस गाँव का नाम कण्डज था) में किया गया।
  • औरंगजेब के पुत्र अकबर द्वितीय को मेवाड़ में शरण देकर मुगल बादशाह घोषित करवा देते है।
  • अकबर द्वितीय का साथ देने हेतु औरंगजेब पर आक्रमण करने के लिए अजमेर रवाना हुए।
  • 1681 ई. में अकबर द्वितीय की सहायता से मुस्लिम सैनिकों को मारते हुए माण्डलगढ़ पर अधिकार किया।
  • मेवाड़ मुगल सन्धि 24 जुन, 1681 मेवाड़ के महाराणा जयसिंह तथा औरंगजेब के प्रतिनिधि मुअज्जम के मध्य यह सन्धि हुई।
  • इस सन्धि के तहत औरंगजेब मेवाड़ से जजिया कर समाप्त करेगा बदले में उसे पुर बदनौर व माण्डल की जांगीरे देनी होंगी।
  • जयसमंद झील – महाराणा जयसिंह ने इस झील का निर्माण उदयपुर में करवाया था।
  • गोमती, रूपारेल, झालवा, बागार नदियों को रोककर इस झील का निर्माण करवाया गया।




जयसमंद झील की विशेषताएँ

  • मीठे पानी की सबसे बड़ी कृत्रिम झील
  • इस झील में कुल 7 टापू हैं।
  • इन टापुओं पर मीणा/भील लोग निवास करते है।
  • इस झील पर स्थित छोटा टापू प्यारी कहलाता है।
  • इस झील पर स्थित बड़ा टापू बाबा का मांगरा कहलाता है।
  • इस झील से श्यामनहर तथा नाट नहर नामक दो नहरें निकाली गई है।




महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1710 ई.)

  • महाराणा अमरसिंह ने वागड़ व प्रतापगढ़ को जीतकर मुगलों से स्वतंत्र करवाया तथा मेवाड़ रियासत में विलय किया।
  • इन्होंने उदयपुर में शिव प्रसन्न बाड़ी महल का निर्माण करवाया।
  • अमरसिंह द्वितीय जागीरदारों व सांमतों के नियम बनाकर मेवाड़ का सर्वोच्च प्रबधंक कहलाये।

इनके द्वारा सांमतों की दो श्रेणियाँ निर्धारित की गई।

(i) 16 श्रेणी – प्रथम श्रेणी के सांमत

(ii) 32 श्रेणी- द्वितीय श्रेणी के सांमत

  • अमरशाही पगड़ी अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल में प्रारंभ हुई।
  • अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल में देबारी समझौता हुआ।




देबारी समझौता – 1708 ई.

स्थान- उदयपुर

– यह समझौता आमेर, मेवाड़ तथा मारवाड़ रियासतों के मध्य हुआ।

– इस समझौते के तहत अमरसिंह द्वितीय ने अपनी पुत्री चन्द्रकुँवरी का विवाह सशर्त आमेर शासक सवाई जयसिंह के साथ किया।

– तीनों राजा मिलकर पुन: राजगद्दी को प्राप्त करेंगे।

महाराणा संग्रामसिंह (1710-1734 ई.)

  • महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय का राज्याभिषेक 26 अप्रैल, 1710 में हुआ। इनके राज्याभिषेक समारोह में जयपुर शासक सवाई जयसिंह शामिल हुए।
  • इनके द्वारा नाहर मगरी महलों तथा सहेलियों की बाड़ी का निर्माण करवाया गया।
  • उदयपुर के राजमहलों में चीनी मिट्टी से भित्ति चित्रण करवाया गया।
  • करणीदान कविया के काव्य ग्रंथों से प्रसन्न होकर संग्राम सिंह द्वितीय ने लाख दसाव दिया।
  • महाराणा संग्राम सिंह ने सीसरामा गाँव उदयपुर वैद्यनाथ मंदिर एवं वैद्यनाथ प्रशस्ति का निर्माण करवाया।
  • दुर्गादास राठौड़ को अजीतसिंह द्वारा देश निकाला देने पर संग्राम सिंह ने दुर्गादास को विजयपुर की जागीर एवं रामपुरा के हाकिम नियुक्त किया।




  • मराठाओं के आंतक से बचने हेतु सवाई जयसिंह के सहयोग से राजपूत राजाओं को संगठित करने के उद्देश्य से भीलवाड़ा में हुरड़ा नामक स्थान पर 17 जुलाई, 1734 को एक सम्मेलन तय हुआ। लेकन 11 जनवरी, 1734 को संग्रामसिंह द्वितीय की मृत्यु हो गई।
  • कर्नल जेम्स टॉड- बप्पा रावल की गद्दी का गौरव बचाने वाला मेवाड़ का अंतिम शासक संग्राम सिंह द्वितीय था।

महाराणा जगतसिंह- द्वितीय

  • इनके द्वारा पिछोला झील स्थित जलमहलों का निर्माण पूर्ण करवाया गया।
  • इनके आश्रित कवि नेकाराम ने जगत प्रकाश नामक ग्रंथ की रचना की।
  • इन्हें कर्नल जेम्स टॉड ने ऐशो-आराम वाला शासक कहा।
  • मेवाड़ में सर्वप्रथम मराठाओं का प्रवेश जगतसिंह द्वितीय के काल में हुआ।




हुरड़ा सम्मेलन

17 जुलाई, 1734 ई.  स्थान – भीलवाड़ा

तय अध्यक्ष – संग्राम सिंह द्वितीय (मृत्यु)

अध्यक्षता की गई- जगत सिंह द्वितीय द्वारा

  • इस सम्मेलन का प्रस्तावक (आयोजक) सवाई जयसिंह था।
  • इस सम्मेलन का उद्देश्य – मराठाओं के विरुद्ध राजपूताना के शासकों को संगठित करना।
  • परिणाम- आपसी मतभेदों के कारण सम्मेलन असफल रहा।
  • इस सम्मेलन में शामिल होने वाले शासक

आमेर- सवाई जयसिंह

जोधपुर – अभय सिंह

बीकानेर –  जोरावर सिंह

नागौर – बख्त सिंह

करौली – गोपालदास

किशनगढ़ – राजसिंह

कोटा – दुर्जनशाल

बूँदी – दलेसिंह हाड़







मेवाड़ का इतिहास – 28

– जगतसिंह II के उत्तराधिकारी राजसिंह II थे।

– राजसिंह II के उत्तराधिकारी अरिसिंह थे।

अरिसिंह (1761 – 1773 ई.)

– अरिसिंह का ग्रन्थ  रसिक चमन

रसिक चमन – यह ग्रन्थ अरिसिंह किशनगढ़ शासक नागरीदास / सावंतसिंह के ग्रन्थ ईश्क चमन के उत्तर में लिखा।

– दुश्मन भंजन तोप  अरिसिंह के काल में निर्मित

– अरि बटालियन (1768 ई.)  मेवाड़ सामंतों के नाखुश होने के कारण अरिसिंह ने गुजरात व सिंध के मुसलमानों की एक सेना बनाई।

– कोटा के झाला जालिमसिंह को शरण देकर चीता खेड़ा की जागीर दी।

– 1773 ई. में शिकार के दौरान बूँदी शासक अजीतसिंह ने अरिसिंह की हत्या की।




महाराणा हम्मीर II (1773-1778 ई.)

– अवयस्क शासक।

– इनके शासनकाल में मेवाड़ राजकार्य अमरचंद बड़वा व इनकी राजमाता की देखरेख में संचालित किया।

– इन्हीं के शासनकाल में अमरचंद बड़वा की हत्या हुई।

– अमरचंद बड़वा ने बागोर हवेली (उदयपुर) का निर्माण करवाया।

– इस हवेली में विश्व की सबसे बड़ी पगड़ी स्थित है।

– वर्ष 1986 में पश्चिम का सांस्कृतिक केन्द्र बनाया गया।




महाराणा भीमसिंह (1778-1828 ई.)

– इनका राज्याभिषेक 7 जनवरी, 1778 ई. में हुआ।

– 1818 ई. में अंग्रेजों के साथ आश्रित पार्थक्य संधि करने वाले शासक।

– कर्नल जेम्स टॉड इनके शासनकाल में मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेंट बनकर 1818 ई. में उदयपुर आए।

– कर्नल जेम्स टॉड ने भीमसिंह के बारे में कहा – “मेवाड़ का राजकार्य चलाने के लिए इन्हें कोटा के झालिम सिंह से पैसे लेने पड़ते थे।”

– महाराणा भीमसिंह ने उदयपुर राज्य का राजकोष इंदौर के सेठ जोखरमल को सौंपा।

– इनके शासनकाल में किशना आढ़ा ने भीम विलास ग्रन्थ की रचना की।

– इनकी रानी पद्मेश्वरी ने पिछोला झील के किनारे पद्मेश्वरी शिवालय का निर्माण करवाया।




– कृष्णा कुमारी मेवाड़ शासक महाराणा भीमसिंह की पुत्री जिसका विवाह जोधपुर के शासक भीमसिंह राठौड़ के साथ तय हुआ परन्तु विवाह पूर्व ही भीमसिंह की मृत्यु हो गई।

भीमसिंह के पश्चात् जोधपुर का उत्तराधिकारी मानसिंह राठौड़ बना।

– भीमसिंह राठौड़ की मृत्यु के पश्चात् कृष्णा कुमारी की सगाई जयपुर शासक सवाई जगतसिंह के साथ की गई।

– मानसिंह राठौड़ ने इस विवाह का विरोध किया।

– जयपुर व जोधपुर रियासत के मध्य कृष्णा कुमारी को लेकर युद्ध हुआ।

गिंगोली का युद्ध (मार्च 1807 ई.)

– स्थान – परबतसर (नागौर)

– मानसिंह राठौड़ तथा सवाई जगतसिंह के मध्य यह युद्ध हुआ जिसमें सवाई जगतसिंह की विजय हुई।

– इस युद्ध में अमीर खाँ पिण्डारी व सूरतसिंह (बीकानेर) ने सवाई जयसिंह का साथ दिया।

– इस युद्ध में हार के पश्चात मानसिंह राठौड़ ने मेवाड़ पर आक्रमण की योजना बनाई।

– विवाद को रोकने हेतु अजीतसिंह चुण्डावत व अमीर खाँ पिण्डारी के कहने पर 21 जुलाई, 1810 ई. को कृष्णा कुमारी को जहर दिया गया।

– 30 मार्च, 1828 ई. को महाराणा भीमसिंह की मृत्यु हुई।







मेवाड़ का इतिहास – 29

जवान सिंह (1828-1838 ई.)

– इनके द्वारा उदयपुर में जल निवास महलों का निर्माण करवाया गया।

– नेपाल में गुहिल वंश के शासक राजेन्द्र विक्रमशाह इनके काल में मेवाड़ आए।

– इनके शासनकाल में भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक अजमेर यात्रा पर आए जहाँ जवानसिंह ने बैंटिक से मुलाकात की।

– 1838 ई. में इनकी निसंतान मृत्यु हुई।

सरदार सिंह (1838-1842 ई.)

– बागोर के सामंत शिवदान सिंह के पुत्र।

– इनके शासनकाल में मेवाड़ भील कौर का गठन किया गया।

– इसका मुख्यालय 1841 ई. में खैरवाड़ा (उदयपुर) था।

– कमाण्डर – जे. सी. ब्रुक

मेवाड़ भील कोर का प्रमुख कार्य – भीलों पर नियंत्रण स्थापित करना।

– 1842 ई. में सरदारसिंह की मृत्यु हुई।




महाराणा स्वरूप सिंह (1842-1861 ई.)

– सरदार सिंह के दत्तक पुत्र।

– इनके द्वारा कराए गए निर्माण कार्य –

गोवर्धन विलास महल

गोवर्धन सागर का निर्माण

पशुपातेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण

जगत शिरोमणि मंदिर का निर्माण

स्वरूप सागर झील का निर्माण

ओधड़ा महल का निर्माण

सभी निर्माण उदयपुर में कराए गए।




– इनके शासन काल में 1844 ई. में मेवाड़ में कन्यावध पर प्रतिबंध लगाया गया।

– 1853 ई. में इनके शासनकाल में मेवाड़ भील कौर के कमाण्डर जे. सी. ब्रुक ने डाकण प्रथा पर रोक लगाई।

– 15 अगस्त, 1861 ई. को समाधि प्रथा पर मेवाड़ में रोक लगाई गई।

– 1857 ई. की क्रांति के समय शासक स्वरूपसिंह थे।

– स्वरूप सिंह 1857 की क्रांति के समय मेवाड़ के P. A. मेजर शॉवर्स एवं अन्य अंग्रेजों को पिछोला झील स्थित जगमंदिर में शरण दी।

– स्वरूपशाही चाँदी के सिक्के चलाए।

– यह सिक्के चार प्रकार के थे।

इन सिक्कों के अग्रभाग पर दोस्तीलंधन एवं पृष्ठ भाग पर चित्रकूट शब्द अंकित था।

– 1861 ई. में स्वरूपसिंह की मृत्यु हुई। इनके साथ पासवान ऐंजाबाई सती हुई।

मेवाड़ राजघराने में सती की अंतिम घटना।

– महाराणा स्वरूपसिंह ने विजयस्तंभ का जीर्णोद्धार करवाया था।




शंभु सिंह (1862-1874 ई.)

– अवयस्क शासक

– इनके काल में शासन कार्य पंचसरदारी कौंसिल द्वारा चलाया गया।

– इस कौंसिल का गठन मेवाड़ के P.A मेजर टेलर ने किया था।

– इनके शासनकाल में हैजा नामक महामारी फैली

– शंभु पलटन नाम से नई सेना का गठन किया।

– शंभु सिंह को अंग्रेजों द्वारा ग्राण्ड कमाण्ड ऑफ द स्टार ऑफ इण्डिया (GSCI) की उपाधि प्रदान की गई।




महाराणा सज्जनसिंह (1874-1884 ई.)

– 1876 ई. में सज्जन कीर्ति सुधारक समाचार पत्र का प्रकाशन करवाया। यह साप्तहिक समाचार पत्र था। यह मेवाड़ राज्य का प्रथम समाचार पत्र था।

– 2 जुलाई, 1877 को इनके शासन काल में देश हितैषणी सभा का गठन किया गया।

– छोटे न्यायिक मामलों को सुलझाने हेतु इजलास सभा का गठन सज्जनसिंह द्वारा श्यामलदास की सलाह पर किया गया। इस सभा में कुल 15 सदस्य होते थे।

– पक्षपात पूर्ण न्याय को मिटाने एवं उचित प्रबंधन हेतु 20 अगस्त, 1880 ई. में 17 सदस्यीय महेन्द्रराज सभा का गठन महाराणा सज्जनसिंह द्वारा किया गया।

– कानून व्यवस्था के प्रबंध हेतु अलग से पुलिस विभाग का गठन किया गया।

– प्रथम पुलिस अधीक्षक अर्ब्दुरहमान खाँ को बनाया गया।

– उदयपुर सज्जन मंत्रालय (प्रिटिंग-प्रेस) की स्थापना की गई।




– बन्सधरा पहाड़ी पर सज्जन निवास महल का निर्माण करवाया गया। अन्य निर्माण कार्य-

सज्जन पैलेस

उदयपुर की मुकुटमणि

वाणी विलास

मानसून पैलेस

– स्वामी दयानंद सरस्वती सज्जनसिंह के शासनकाल में उदयपुर आए।

दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ की रचना उदयपुर में की तथा प्रकाशन अजमेर में किया गया।

– भारत के गर्वनरल जनरल एण्ड वायसराय नार्थबुक (उदयपुर आने वाले प्रथम गर्वनर जनरल) सज्जनसिंह के शासनकाल में उदयपुर आए।

– सज्जनसिंह को गर्वनर जनरल रिपन के द्वारा मेवाड़ आकर ग्राण्ड कमाण्डर ऑफ द स्टार ऑफ इण्डिया (GSCI) की उपाधि से सम्मानित किया गया।

– मेवाड़ में 1881 ई. में जनगणना कार्य किया गया।

– आर्य समाज की परोपकारिणी सभा के सभापति सज्जनसिंह बने।

– सज्जनसिंह के दरबारी कवि श्यामलदास थे। सज्जन सिंह ने श्यामलदास को कविराजा की उपाधि दी।

– 1884 ई. में सज्जनसिंह की मृत्यु हुई।







मेवाड़ का इतिहास – 30

महाराणा फतेहसिंह (1884-1930)

–  शिवराती के शासक दलेसिंह के पुत्र।

–  फतेहसिंह राजगद्दी पर 23 दिसम्बर, 1884 ई. को आसीन हुए।

–  इनका राज्याभिषेक 23 जनवरी, 1885 ई. को हुआ।

–   1887 ई. में सज्जनबाग में विक्टोरिया हॉल का निर्माण फतेहसिंह ने करवाया।

–  1889 ई. में ड्यूक ऑफ कनॉट के राजकुमार उदयपुर आए जिनके हाथों से फतेहसागर झील की नींव रखवाई।

–  फतेह सागर झील को कनॉट झील/कनॉट बाँध भी कहते है।




–   1890 ई. में ड्यूक ऑफ कनॉट के राजकुमार एलबर्ट विक्टर उदयपुर यात्रा पर आए। इन्होंने मेवाड़ की “वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा” की स्थापना की।

–  1899 ई. में छपन्नया अकाल पड़ा। (विक्रम सवंत 1956)

–  वर्ष 1903 में एड्वर्ड सप्तम के राजगद्दी पर बैठने की खुशी में लार्ड कर्जन ने समस्त राजाओं के स्वागत हेतु दिल्ली दरबार का आयोजन किया।

–  इस दरबार में शामिल होने के समय केसरी सिंह बारहठ द्वारा रचित 13 सोरठे (चेतावनी रा चुंगट्या) मेवाड़ के फतेहसिंह को भेजे गए जिसे सुनकर बिना दरबार में सम्मिलित हुए फतेहसिंह वापस मेवाड़ लौट आए।

–  1904 ई. में फतेहसिंह के शासनकाल में प्लेग महामारी फैली।

–  वर्ष 1911 में लार्ड मिण्टो (गर्वनर जनरल) उदयपुर आगमन पर उदयपुर में मिण्टो दरबार हॉल का निर्माण फतेहसिंह ने करवाया था।

–  वर्ष  1911 में जार्ज पंचम के राज्याभिषेक उत्सव के रूप में दिल्ली पहुँचे लेकिन दरबार में शामिल नहीं हुए।

–  प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का सहयोग मेवाड़ शासक फतेहसिंह ने किया।




–  प्रथम विश्व युद्ध के समय एक सैन्य टुकडी ‘मेवाड़ लांसर्स’ का गठन किया गया।

–  वर्ष 1918 ई. में फतेहसिंह के शासनकाल में इन्फ्लूएजा नामक महामारी फैली।

–  प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजो के सहयोग के कारण इनके राजकुमार भूपाल सिंह को नाइट कमाण्डर ऑफ इण्डियन एम्पायर की उपाधि मिली।

–  इस उपाधि को पाने वाले पहले राजकुमार

–  1921 ई. में फतेहसिंह ने मेवाड़ का अधिकांश राजकार्य भूपाल सिंह को सौंप दिया।

–  कविराज श्यामलदास के ग्रंथ वीर विनोद पर रोक लगाई।

–  फतेह प्रकाश महल का निर्माण चित्तौड़गढ़ में करवाया गया।

–  मेवाड़ के प्रथम महाराणा जिन्होंने केवल एक विवाह किया।

–  सज्जनगढ़ पैलेस का निर्माण पूर्ण करवाया।

–  1930 ई. में फतेहसिंह की मृत्यु हुई।




महाराणा भूपालसिंह (1930-18 अप्रैल 1948)

–  मेवाड़ के अंतिम शासक/राजस्थान के एकीकरण के समय शासक

  इन्ही के शासनकाल में अधिकांश किसान आंदोलन व प्रजामण्डल आंदोलन हुए।

  18 अप्रैल, 1948 को एकीकरण पर हस्ताक्षर कर संयुक्त राजस्थान के राजप्रमुख बने।

  एकमात्र महाराज प्रमुख भूपालसिंह बने।

  आहेड़ा – राजपूताना/मेवाड़ में होली के दिन खेले जाने वाला शिकार।

  अमर बलेणा- मेवाड़ महाराणाओं द्वारा किसी व्यक्ति को सम्मान स्वरूप दिया जाने वाला घोड़ा।

  सीख सिरोपाव – दशहरे के दिन सरदारों द्वारा सेवा पूर्ण कर अपने घर की तरफ प्रस्थान करना।

  जमीयत- मेवाड़ के सरदारों/सांमतो की सेना।




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