गुहिलवंश

  1. मेवाड़कागुहिलवंश

गुहिल

  • अबुलफजल ने मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेखाँ आदिल की सन्तान माना है।
  • मुहणौतनैणसीने अपनी ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का जिक्र किया है। इन सभी शाखाओं में मेवाड़ के गुहिल सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे हैं।
  • गुहादित्य या गुहिल इस वंश का संस्थापक था।
  • पिताकानाम – शिलादित्य, माता का नाम – पुष्पावती।
  • स्थापना 566 ई. में, हूण वंश के शासक मिहिरकुल को पराजित करके।
  • राजधानी नागदा (उदयपुर के पास)।

बप्पारावलयाकालभोज

  • 734 ई. में चित्तौड़गढ़ के अन्तिम मौर्य राजा मान मौर्य से चित्तौड़ दुर्ग जीता, एकलिंग मंदिर (कैलाशपुरी) का निर्माण, एकलिंगजीकोकुलदेवतामानतेथे। एकलिंग जी के पास इनकी समाधि ‘बप्पा रावल’ नाम से प्रसिद्ध।
  • बप्पारावल को कालभोज के नाम से जाना जाता है।
  • बप्पारावल को मेवाड़ का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
  • बप्पारावल ने कैलाशपुरी (उदयपुर) में एकलिंगनाथजी का मन्दिर बनवाया एकलिंगनाथजी मेवाड़ के कुल देवता थे।
  • 734 ई. में बप्पारावल ने मौर्य शासक मानमौरी से चित्तौड़गढ़ का किला जीता तथा नागदा (उदयपुर) की राजधानी बनाया।

नोट – चित्तौड़ का किला (गिरि दुर्ग) गम्भीरी व बेड़च नदियों के किनारे पर मेसा के पठार पर स्थित चित्रांगद मौर्य (कुमारपाल संभव के अभिलेख के अनुसार चित्रांग) द्वारा बनाया गया। चित्तौड़ के किले में सात द्वार हैं। पाडनपोल, भैरवपोल, गणेशपोल, हनुमानपोल, जोडनपोल, लक्ष्मणपोल, रामपोल।

  • चित्तौड़ के किले के बारे में कहा गया है कि गढ तो बस चित्तौड़गढ़ बाकी सब….
  • क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा किला चित्तौड़ का किला है। यह व्हेल मछली की आकृति का किला है।
  • इसे राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी प्रवेश द्वार कहते हैं।
  • चित्तौड़ को राजस्थान में किलों का सिरमौर व राजस्थान का गौरव कहते हैं।
  • राजस्थान किलों की दृष्टि से देश में तीसरा स्थान रखता है। पहला महाराष्ट्र का, दूसरा मध्यप्रदेश का तीसरा राजस्थान का है।

बप्पारावलसेसम्बन्धितप्रशस्तियाँ

  1. रणकपुरप्रशस्ति(1439) – बप्पारावल व कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया है। (देपाक/दिपा)
  2. कीर्तिस्तम्भप्रशस्ति(1460) –बप्पारावल से लेकर राणा कुम्भा तक के राजाओं के विरूद्ध उपलब्धियों व युद्ध विजयों का वर्णन (अत्रि व उसके पुत्र महेश द्वारा रचित)
  3. कुम्भलगढ़प्रशस्तिकान्हाव्यास द्वारा 1460 में बप्पारावल को ब्राह्मण या विप्रवंशीय बताया है।
  4. एकलिंगनाथकेदक्षिणद्वारकीप्रशस्ति – (1488 महेश भट्ट द्वारा रचित) – बप्पारावल के संन्यास लेने का उल्लेख है।
  5. संग्रामसिंहद्वितीयके काल में 1719 में लिखी गयी। वैद्यनाथ प्रशस्ति में हारित ऋषि से बप्पारावल को मेवाड़ साम्राज्य मिलने का उल्लेख है। (रूपभट्ट द्वारा रचित)

  • मेवाड़ के राजा एकलिंग जी को वास्तविक राजा व स्वयं इनका दीवान बनकर कार्य करते थे।
  • उदयपुर के राजा राजधानी छोड़ने से पूर्व एकलिंग जी की स्वीकृति लेते थे, जिसेआसकांलेना कहा जाता था।
  • बप्पा रावल के गुरु – हारीत ऋषि (लकुलीश शैवानुगामी परम्परा के)।
  • सी.वी. वैध ने बप्पा रावल को चार्ल्स मोर्टल कहा है।
  • बप्पा रावल के वंशज अल्लट (951-953) के समय मेवाड़ की बड़ी उन्नति हुई। आहड़ उस समय एक समृद्ध नगर व एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था।अल्लटनेआहड़कोअपनीदूसरीराजधानीबनाया। यह भी माना जाता है कि अल्लट ने मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया।
  • मालव के परमार शासक मुझ परमार से चित्तौड़गढ़ दुर्ग हार गया।

नोट- परमारों के प्रतापी शासक भोज परमार ने 1021-1031 तक चित्तौड़ पर शासन किया तथा चित्तौड़गढ़ में त्रिभुवन नारायण देव के मन्दिर का निर्माण करवाया।

  • इस मन्दिर का जीर्णोद्धार राणा मोकल ने करवाया। इसलिये इसे “मोकल  का समीद्धेश्वर” मन्दिर भी कहा जाता है।

रावलजैत्रसिंह (1213-50 ई.)

  • इल्तुतमिश के आक्रमण का सफल प्रतिरोध किया जिसका वर्णन जयसिंह कृत ‘हम्मीर-मान-मर्दन’ नामक नाटक में किया गया है।
  • 1242-43 में जैत्रसिंह की गुजरात केत्रिभुवनपाल से लड़ाई हुई।
  • जैत्रसिंह नेमेवाड़कीराजधानी चित्तौड़ को बनाई।
  • तेजसिंह – 1260 ई. में मेवाड़ चित्र शैली का प्रथम ग्रन्थ ‘श्रावक प्रतिकर्मण सूत्र चुर्णि’ तेजसिंह के काल में लिखा गया।

नोट – मेवाड़ चित्रकला शैली की शुरूआत तेजसिंह के समय हुई।

रावलसमरसिंह (1273-1301)

  • इसने आचार्य अमित सिंह सूरी के उपदेशों से अपने राज्य में जीव हिंसा पर रोक लगाई।

रावलरतनसिंह (1301-1303 ई.)

  • यह समरसिंह का पुत्र था जो 1301 ई. में शासक बना।
  • 1303 ई.मेंअलाउद्दीनखिलजी के आक्रमण के समय लड़ते हुए शहीद, पत्नी पद्मिनी का जौहर, सेनापति गोरा-बादल (चाचा – भतीजा) का बलिदान। गोरा पद्मिनी का चाचा तथा बादल भाई था।
  • यह चित्तौड़ का प्रथम साका (राजपूतों का बलिदान एवं राजपूत महिलाओsं का सामुहिक जौहर) था।
  • अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नामखिज्राबादरखा व अपने पुत्र खिज्र खां को वहाँ का शासक बनाया।
  • चित्तौड़गढ़ के किले में पद्मिनी पैलेस, गौरा बादल महल, नौ गंजा पीर की दरगाह व कालिका माता का मन्दिर, कुम्भा द्वारा निर्मित विजय स्तम्भ, जीजा द्वारा जैन कीर्ति स्तम्भ, मोकल द्वारा पुनः निर्माण कराया गया।समिद्धेश्वर मन्दिर (त्रिभुवन नारायण) मीरां मन्दिर आदि दर्शनीय है।

  • चित्तौड़गढ़ दुर्ग में बाघसिंह की छतरी, जयमल पत्ता की छतरी, वीर कल्ला राठौड़ की छतरी (चार हाथों वाले देवता, शेषनाग का अवतार) मीरां के गुरू संत रैदास की छतरी, जौहर स्थल।
  • चैत्र कृष्ण एकादशी को जौहर मेला चित्तौड़गढ़ में लगता है।
  • 1313 के बाद सोनगरा चौहान मालदेव को अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का प्रशासन सौंपा।
  • मलिकमुहम्मदजायसी द्वारा शेरशाह सूरी के समय मसनवी शैली में रचित अवधी भाषा के प्रसिद्ध ग्रन्थ पद्मावत में रतनसिंह व पद्मिनी की प्रेम कथा का उल्लेख है।
  • पद्मावतकोकुछइतिहासकार जैसे ओझा, कानूनगो, लाल आदि कल्पना पर आधारित मानते हैं।
  • पद्मिनीकाप्रियतोता – हीरामन (राय जाति का तोता, जो वर्तमान में दर्रा अभ्यारण्य, कोटा एवं गागरोण में पाया जाता है)।
  • रावलरतनसिंहकाविद्वानपण्डित – राघव चेतन (इसने रतनसिंह द्वारा देश निकाला दे दिये जाने पर अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में शरण ली)।
  • इस युद्ध (1303 ई. ) में इतिहासकारअमीरखुसरोउपस्थित था।
  • रतनसिंहगुहिलोंकी रावल शाखा का अंतिम शासक था।

राणाहम्मीर (1326-64 ई.)

  • अरिसिंह का पुत्र।
  • गुहिल वंश की एक शाखा सिसोदा का सामन्त, जिसने मालदेव सोनगरा (जालौर) के पुत्र जैसा (जयसिंह) को पराजित कर चित्तौड़ जीता।
  • सिसोदिया वंश का संस्थापक (1326 ई. में)।
  • प्रथम राणा शासक।
  • मेवाड़केउद्धारक राजा के रूप में प्रसिद्ध।
  • उपाधियां –वीर राजा (रसिक प्रिया में उल्लिखित) व विषमघाटी पंचानन (कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में उल्लिखित)।
  • हम्मीर व मुहम्मद बिन तुगलक के बीच सिंगोली नामक स्थान पर युद्ध हुआ।

राणाक्षेत्रसिंह (राणाखेता) (1364-82 ई.)

  • राणा हम्मीर का पुत्र। इसने बुंदी को अपने अधीन किया।

राणालक्षसिंह (राणालाखा) (1382-1421 ई.)

  • राणा खेता का पुत्र, वृद्धावस्था में मारवाड़ के शासक राव चूँड़ा राठौड़ की पुत्री व रणमल की बहिन हंसा बाई के साथ विवाह।
  • राणा लाखा के काल में एक बनजारे नेपिछौलाझील का निर्माण कराया।
  • राणा लाखा ने ‘झोटिंग भट्ट‘ एवं ‘धनेश्वर भट्ट‘ जैसे विद्वान पंडितों को राज्याश्रय दिया।
  • राणा लाखा के काल में मगरा जिले के जावर गाँव में चाँदी की खान खोज निकाली, जिसमें चाँदी और सीसा बहुत निकलने लगा। कुँवर चूड़ा व राणा मोकल इसके पुत्र थे।

राणामोकल (1421-1433 ई.)

  • राणा लाखा व हंसा बाई से वृद्धावस्था में उत्पन्न पुत्र।
  • इसके समय राठौड़ों का मेवाड़ में प्रभाव बढ़ गया था।
  • राणा मोकल ने समद्विश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा द्वारिकानाथ (विष्णु) का मंदिर बनवाया।
  • राणा मोकल की हत्या महाराणा खेता की पासवान के पुत्र चाचा और मेरा नामक सामन्तों ने सन् 1433 में की।

कुँवरचूड़ा

  • लाखा का बड़ा पुत्र, राजपूताने का भीष्म, मारवाड़ के राव चूँडा

राठौड़ की पुत्री का विवाह लाखा के साथ एवं उसके पुत्र मोकल के उत्तराधिकारी बनने पर कुंवर चूंडा ने मोकल का साथ दिया।

कुम्भायाकुम्भकर्ण (1433-68 ई.)

  • मेवाड़ का महानतम शासक, राणा मोकल व सौभाग्य देवी का पुत्र।
  • महाराणा कुम्भा का काल ‘कला एवं वास्तुकला का स्वर्णयुग‘ कहा जाता है।
  • गुरु का नाम – जैनाचार्य हीरानन्द।
  • कुम्भा ने आचार्य सोमदेव को ‘कविराज‘ की उपाधि प्रदान की।
  • कुम्भा की पुत्री – रमाबाई (संगीत शास्त्र की ज्ञाता, उपनाम- वागीश्वरी)।

  • सारंगपुरकाप्रसिद्धयुद्ध(1437 ई.) में मालवा के महमूद खिलजी प्रथम को हराया। इस विजय के उपलक्ष्य में विजय स्तम्भ/कीर्ति स्तम्भ (चित्तौड़) का निर्माण कराया, जो 1440 ई. में बनना शुरू होकर 1448 ई. में पूर्ण हुआ।
  • विजय स्तम्भ के शिल्पीजैताउसकेपुत्रनापापोमापूंजा थे। विजय स्तम्भ को ‘भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष‘ भी कहा जाता है। इसकी नौ मंजिलें है तथा तीसरी मंजिल पर अरबी भाषा में नौ बार ‘अल्लाह‘ लिखा हुआ है।
  • राजस्थान की वह पहली ऐतिहासिक इमारत जिस पर डाक टिकट जारी हुआ था – विजयस्तम्भ (15 अगस्त, 1949 को 1 रु. का डाक टिकट)। कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति के लेखक – कवि अत्रि व उसका पुत्र महेश।
  • रणकपुर का प्रसिद्ध जैन मंदिर इसी काल में निर्मित – 1439 ई. (चौमुख मन्दिर/आदिनाथ मन्दिर), इस मंदिर को ‘खम्भों का अजायबघर‘ तथा ‘स्तम्भों का वन’ कहा जाता है। कुल 1444 खम्भे, मंदिर परिसर में प्रसिद्ध वैश्या मंदिर।
  • निर्माता – धरणकशाह या धन्ना सेठ (कुम्भा का वित्त मंत्री), प्रधान शिल्पी – दैपाक/देपा।
  • इस मन्दिर को चतुर्मुख जिनप्रसाद भी कहा जाता है।
  • मेह कवि ने इस मन्दिर को त्रिलोक दीपक तथा विमलसूरी ने इस मन्दिर को नलिनी गुल्म विमान कहा है।
  • चित्तौड़ दुर्ग में जैन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण इसी काल में, निर्माता – जैन महाजन जीजाशाह।
  • कुम्भलगढ़, अचलगढ़ (आबु पर्वत) सहित 32 दुर्गों का निर्माता (मेवाड़ में कुल 84 दुर्ग हैं जिनमें से 32 दुर्ग़ों का निर्माता कुम्भा स्वयं है)

  • कुम्भा की उपाधियाँ – हालगुरु – गिरि दुर्गो का स्वामी होने के कारण। 2. राणो रासो – विद्वानों का आश्रयदाता होने के कारण। 3. हिन्दू सुरत्ताण – समकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा प्रदत्त। 4. अभिनव भरताचार्य – संगीत के क्षेत्र में कुम्भा के विपुल ज्ञान के कारण। 5. राजगुरु – राजाओं को शिक्षा देने की क्षमता होने के कारण कहलाये। 6. तोडरमल – कुम्भा के हयेश (अश्वपति), हस्तीश (गजपति) और नरेश (पैदल सेना का अधिपति) होने से
  • कहलाये। नाटकराज का कर्त्ता-नृत्यशास्त्र के ज्ञाता होने के कारण। 8. धीमान-बुद्धिमत्तापूर्वक निर्माणादि कार्य करने से। 9. शैलगुरु-शस्त्र या भाला का उपयोग सिखाने से। 10. नंदिकेश्वरावतार-नंदिकेश्वर के मत का अनुसरण करने के कारण।
  • राणा कुंभा को राजस्थान में स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है।
  • कुम्भस्वामी मंदिर, एकलिंग मंदिर, मीरा मंदिर, शृंगार गोरी मंदिर आदि का चित्तौड़ दुर्ग में निर्माण।
  • इनके राज्याश्रित कान्ह व्यास द्वारा ‘एकलिंग-महात्म्य‘ पुस्तक रचित जिसमें ‘राजवर्णन‘ अध्याय स्वयं कुंभा ने लिखा। कुम्भा द्वारा रचित विभिन्न ग्रन्थ – संगीत राज – यह कुंभा द्वारा रचित

सारे ग्रंथों में सबसे वृहद्, सर्वश्रेष्ठ, सिरमौर ग्रंथ है। भारतीय संगीत की गीत-वाद्य-नृत्य, तीनों विधाओं का गूढ़तम विशद् शास्त्रोक्त समावेश इस महाग्रंथ में हुआ है। 2. रसिक प्रिया – गीत गोविन्द की टीका। 3. कामराजरतिसार – यह ग्रंथ कुंभा के कामशास्त्र विशारद होने का परिचायक ग्रंथ है।

  • अन्यग्रंथ – संगीत मीमांसा, सूड़ प्रबन्ध, संगीत रत्नाकर टीका, चण्डी शतक टीका आदि।
  • प्रसिद्ध वास्तुकार मण्डन को आश्रय, कुम्भलगढ़ दुर्ग का प्रमुख शिल्पी मण्डन था।
  • मण्डन- ये खेता ब्राह्मण के पुत्र तथा कुंभा के प्रधान शिल्पी थे। इनके द्वारा

रचित ग्रन्थ हैं  –

  1. प्रासाद मंडन– इस ग्रंथ में देवालय निर्माणकला का विस्तृत विवेचन है।
  2. राजवल्लभ मंडन– इस ग्रंथ में नागरिकों के आवासीय गृहों, राजप्रासाद एवं नगर रचना का विस्तृत वर्णन है।
  3. रूप मंडन– यह मूर्तिकला विषयक ग्रंथ है।
  4. देवतामूर्ति प्रकरण (रूपावतार)– इस ग्रंथ में मूर्ति निर्माण और प्रतिमा स्थापना के साथ ही प्रयुक्त होने वाले विभिन्न उपकरणों का विवरण दिया गया है।
  5. वास्तु मंडन– वास्तुकला का सविस्तार वर्णन है।
  6. वास्तुसार– इसमें वास्तुकला संबंधी दुर्ग, भवन और नगर निर्माण संबंधी वर्णन है।
  7. कोदंड मंडन– यह ग्रंथ धनुर्विद्या संबंधी है।
  8. शकुन मंडन– इसमें शगुन और अपशगुनों का वर्णन है।
  9. वैद्य मंडन– इसमें विभिन्न व्याधियों के लक्षण और उनके निदान के उपाय बताए गए हैं।

  • मंडन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी तथा पुत्र गोविन्द ने कलानिधि नामक ग्रन्थों की रचना की।
  • कुंभाकालीन जैन आचार्य – सोमसुन्दर सूरि, जयशेखर सूरि, भुवन कीर्ति एवं सोमदेव।
  • कुम्भा के समय माण्डलगढ़ पर महमूद खिलजी प्रथम ने 3 बार आक्रमण किए।
  • कुम्भा के समय गुजरात व मेवाड़ में संघर्ष का मुख्य कारण नागौर के उत्तराधिकार का मामला था।
  • मालवा व गुजरात के मध्य चम्पानेर की संधि (1456) कुम्भा के विरूद्ध हुई।
  • कुम्भा की हत्या उसके पुत्र उदा (उदयकरण) ने सन् 1468 ई. में कटारगढ़ (कुम्भलगढ़) में की परन्तु कुंभा के बाद उसका दूसरा पुत्र रायमल राजा बना।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग कुम्भा द्वारा अपनी पत्नी कमलदेवी की याद में 1443-1459 के बीच बनवाया गया। कुम्भलगढ़ दुर्ग को कुभलमेर दुर्ग, मछीदरपुर दुर्ग, बैरों का दुर्ग, मेवाड़ के राजाओं का शरण स्थली भी कहा जाता    है।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्राचीर भारत में सभी दुर्ग़ों की प्राचीर से लम्बी है। इसकी प्राचीर 36 किमी. लम्बी है। अतः इसे भारत की मीनार भी कहते हैं। इसकी प्राचीर पर एक साथ चार घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग के लिए अबुल-फजल ने कहा है कि, “यह दुर्ग इतनी बुलन्दी पर बना है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिर पर रखी पगड़ी गिर जाती है।

  • कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ दुर्ग को “एस्ट्रुकन” दुर्ग की संज्ञा दी है।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में पाँच द्वार हैं-
  1. ओरठपोल 2. हल्लापोल 3. हनुमानपोल 4. विजयपोल 5. रामपोल
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में सबसे ऊँचाई पर बना एक छोटा दुर्ग कटारगढ़ है। इस कटारगढ़ दुर्ग को मेवाड़ की आँख कहते हैं।
  • कटारगढ़ दुर्ग कुम्भा का निवास स्थान था।
  • कुम्भलगढ़ दुर्ग में 1537 ई. में उदयसिंह का राज्याभिषेक हुआ।
  • मेवाड़ प्रजामण्डल के संस्थापक माणिक्यलाल वर्मा (मेवाड़ का गांधी) को प्रजामण्डल के समय कुम्भलगढ़ दुर्ग ही नजरबंद करके रखा गया था।
  • हल्दीघाटी युद्ध (1576 ई.) के बाद 1578 ई. में महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग का अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं महाराणा प्रताप का 1578 ई. में दूसरा औपचारिक रूप से राज्याभिषेक हुआ।

नोट – कटारगढ़ दुर्ग में 9 मई, 1540 को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ।

  • कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग (सिरोही), बसंतगढ़ (सिरोही), भीलों की सुरक्षा हेतु भोमट दुर्ग (सिरोही) तथा बैराठ दुर्ग (बंदनौर, भीलवाड़ा) का निर्माण करवाया।
  • रायमल – रायमल के तीन पुत्र थे- (i) जयमल (ii) पृथ्वीराज (iii) राणासांगा।
  1. जयमल – बूंदी के सूरजन हाड़ा की पुत्री तारा से विवाह किया (टोडा टोंक को नहीं जीत सका) तो सुरजन हाड़ा ने इसे मरवा दिया।
  2. पृथ्वीराज – तेज गति से घोड़ा चलाने के कारण इसे उड़ना राजकुमार कहते हैं। इसने टोडा टोंक को जीता तो सुरजन हाड़ा की पुत्री तारा से विवाह किया।

नोट – इसने अपनी पत्नी तारा के नाम पर अजयमेरू दुर्ग का नाम तारागढ़ रखा।

महाराणासंग्रामसिंह (राणासांगा) (1509-28 ई.)

  • रायमल का पुत्र।
  • 24 मई, 1509 ई. को महाराणा संग्राम सिंह का राज्याभिषेक हुआ उस समय दिल्ली में लोदी वंश का सुल्तान सिकन्दर लोदी, गुजरात में महमूदशाह बेगड़ा और मालवा में नासिरूद्दीन खिलजी का शासन था।
  • मेवाड़ का सबसे प्रतापी शासक, ‘हिन्दूपत‘ कहलाता था।
  • मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय से सांगा का संघर्ष मेदिनीराय नामक राजपूत को शरण देने के कारण हुआ।
  • सन् 1519 को गागरोन (झालावाड़) युद्ध मे मालवा के शासक महमूद खिलजीद्वितीय को हराकर बंदी बनाया, फिर रिहा किया।
  • खातोली (बूँदी) के युद्ध (1517 ई.) व बाड़ी (धौलपुर) के युद्ध (1519 ई.) में दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हराया।
  • पंजाब के दौलत खां व इब्राहिम लोदी के भतीजे आलम खां लोदी ने फरगना (काबुल) के शासक बाबर को भारत आमंत्रित किया।
  • बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी (तुर्की भाषा) में राणा सांगा द्वारा बाबर को भारत आमंत्रित करने का उल्लेख किया। तुजुक-ए-बाबरी में बाबर ने कमल के फूल के बाग का वर्णन किया है जो धौलपुर में    है।
  • राणा सांगा का गुजरात से संघर्ष ईडर के मामले को लेकर हुआ (गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर)।
  • 1526 ई. के बयाना (भरतपुर) के युद्ध में बाबर को हराया।
  • ऐतिहासिक खानवा (भरतपुर की रूपवास तहसील में) के युद्ध- 17 मार्च 1527 ई. में मुगल शासक बाबर से हारा, घायलावस्था में युद्ध क्षेत्र से बाहर, खानवा के युद्ध में बाबर से पराजित होने का प्रमुख कारण बाबर का तोपखाना था।
  • खानवा के इस निर्णायक युद्ध के बाद मुस्लिम (मुगल) सत्ता की वास्तविक स्थापना हुई। खानवा स्थान गंभीरी नदी के किनारे है।
  • खानवा विजय के बाद बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की तथा खानवा युद्ध में जिहाद का नारा दिया।

  • खानवा युद्ध में राणा सांगा ने सभी राजपूत हिन्दू राजाओं को पत्र लिखकर युद्ध में आमंत्रित किया। राजपूतों में इस प्रथा को पोती परवण कहा जाता है।
  • राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजपूत राजा था जिसके समय सारी हिन्दू राजपूत जातियां विदेशियों को बाहर निकालने के लिए एकजुट हो गई थी।
  • खानवा के युद्ध मेंआमेरका – पृथ्वीराज कच्छवाह मारवाड़का – मालदेव, बूंदीका – नारायण राव, सिरोहीका – अखैहराज देवड़ा प्रथम, भरतपुरका – अशोक परमार, बीकानेरका – कल्याणमल ने।
  • अपनी-अपनी सेना का नेतृत्व किया। अशोक परमार की वीरता से प्रभावित होकर राणा सांगा ने अशोक परमार को बिजौलिया ठिकाना भेंट किया।
  • हसन खां मेवाती खानवा युद्ध में राणा सांगा के युद्ध में सेनापति था।
  • खानवा के युद्ध में झाला अज्जा ने सांगा का राज्य चिह्न व मुकुट लेकर सांगा की सहायता की व अपना बलिदान दिया।
  • 30 जनवरी 1528 को कालपी (मध्यप्रदेश) में सरदारों द्वारा विष दिये जाने के कारण बसवां (दौसा) में मृत्यु।
  • मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में सांगा का दाह संस्कार हुआ तथा वहीं पर उसकी छतरी है।
  • राणा सांगा के दाह संस्कार के समय उसके शरीर पर 80 घाव लगे हुए थे। इसलिए राणा सांगा को सैनिकों का भग्नावशेष भी कहा जाता है।

विक्रमादित्य (1531-35 ई.)

राणा सांगा का अल्पवयस्क पुत्र, उसकी माता कर्णावती (कर्मावती) या कमलावती ने संरक्षिका बनकर शासन किया।

कर्णावती ने 1534 ई. में बहादुरशाह (गुजरात) के आक्रमण के समय हुमायुं को सहायता हेतु राखी भेजी।

सन् 1535 में बहादुरशाह के आक्रमण के समय चित्तौड़ दुर्ग में जौहर (चित्तौड़ का दूसरा साका)।

बनवीर (1536-37 ई.)

  • सांगा के भाई पृथ्वीराज का अवैध दासी पुत्र।
  • इसने विक्रमादित्य की हत्या कर राजकुमार उदयसिंह की हत्या करने के लिए महल में प्रवेश किया, किन्तु पन्नाधाय द्वारा अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह की रक्षा की गई।

उदयसिंह (1537-72 ई.)

  • सन् 1537 मे मेवाड़ का शासक बना (जोधपुर के राजा मालदेव की सहायता से)।
  • शेरशाह मारवाड़ विजय के बाद चित्तौड़ की ओर बढ़ा तो उदयसिंह ने कूटनीति से काम ले किले की कूंजियाँ (चाबियाँ) शेरशाह के पास भेज दी।
  • 1559 ई. मे उदयपुर की स्थापना।
  • सन् 1567-68 में अकबर द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण के समय किले का भार जयमल राठौड़ व पत्ता सिसोदिया (साला-बहनोई) को सौंपकर अरावली पहाड़ियों में प्रस्थान।
  • सन् 1568 में अकबर का चित्तौड़ पर कब्जा, जयमल, पत्ता, वीर कल्ला जी   राठौड़ शहीद, अकबर ने जयमल व पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर आगरे के किले के दरवाजे पर पाषाण मूर्तियां स्थापित करवायीतथा बीकानेर के रायसिंह ने जूनागढ़ किले की सूरजपोल पर भी जयमल-पत्ता की हाथी पर सवार पाषाण मूर्तियाँ स्थापित करवाई।
  • 1568 ई. में यह चित्तौड़ का युद्ध चित्तौड़ का तीसरा साका था।
  • उदयसिंह का 1572 ई. को गोगुन्दा (उदयपुर) में देहान्त हो गया जहाँ उनकी छतरी बनी हुई है।
  • उदयसिंह ने अपनी प्रिय भटियाणी रानी के पुत्र जगमाल सिंह को युवराज नियुक्त किया था।

महाराणाप्रताप (1572-97 ई.)

  • उदयसिंह व जयवन्ती बाई (पाली के अखैराज सोनगरा (चौहान) की पुत्री) का पुत्र, जन्म 9 मई 1540 ई. में पाली में अपने ननिहाल में हुआ।
  • प्रताप का विवाह जैसलमेर की छीरबाई से हुआ था इन्होंने 17 और भी विवाह किए थे।
  • उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात गोगुन्दा (उदयपुर) में राणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ तथा बाद में राज्याभिषेक समारोह कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ।
  • राणा कीका एवं पातल नाम से भी जाने जाते थे।
  • बादशाह अकबर ने अपनी अधीनता स्वीकार करवाने हेतु सर्वप्रथम जलाल खाँ को महाराणा प्रताप के पास नवम्बर, 1572 ई. में भेजा। मार्च, 1573 ई. में अपने सेनापति कच्छवाहा मानसिंह को महाराणा प्रताप के पास भेजा लेकिन प्रयत्न निष्फल रहा।
  • पुनः सितम्बर, 1573 में आमेर के शासक भगवन्तदास (मानसिंह के पिता) एवं दिसम्बर, 1573 में राजा टोडरमल महाराणा प्रताप को राजी करने हेतु भेजे गये परन्तु प्रताप ने अकबर के अधीन होना स्वीकार नहीं किया। फलतः अकबर ने उन्हें अधीन करने हेतु 2 अप्रेल, 1576 ई. को मानसिंह को सेना देकर मेवाड़ भेजा।
  • अकबर की अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव अस्वीकार।

  • हल्दीघाटी का युद्ध या खमनौर का युद्ध या गोगुन्दा का युद्ध – कर्नल टॉड ने मेवाड़ की थर्मोपल्ली कहा, जो 21 जून 1576 (A.L. श्रीवास्तव के अनुसार 18 जून 1576) को अकबर के सेनापति मानसिंह (आमेर) के विरुद्ध लड़ा जिसमें प्रताप की जीत, प्रिय अश्व चेतक मारा गया।
  • इस युद्ध में पहले मुगल सेना हार रही थी लेकिन मुगलों की ओर से मिहतर खाँ ने अकबर के आने की अफवाह फैला दी जिससे मुगल सैनिकों में जोश आ गया था।
  • इस युद्ध में विख्यात मुगल लेखक अल बदायूंनी भी उपस्थित था। उसने अपनी पुस्तक ‘मुन्तखव-उल-तवारीख’ में युद्ध का वर्णन किया। इस युद्ध में मुगलों का सेनापति आसफ खां था। महाराणा प्रताप का मुस्लिम सेनापति हकीम खां सूरी था।
  • अबुल फजल ने हल्दीघाटी (राजसमन्द में) के युद्ध को खमनौर का युद्ध तथा अल बदायूंनी ने गोगुन्दा का युद्ध कहा है।
  • 1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप के विरूद्ध भेजा था।
  • मुगलों के विरूद्ध युद्ध में सादड़ी (पाली) के जाये-जन्में दानी भामाशाह ने राणा प्रताप को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
  • कर्नल जेम्स टॉड ने दिवेर के युद्ध को ‘मेवाड़ का मेराथन‘ कहा है।
  • सन् 1585 से 1615 ई. तक चावण्ड मेवाड़ की राजधानी रही। यहीं 19 जनवरी 1597 को प्रताप का देहान्त हुआ।
  • चावण्ड के पास बाण्डोली गाँव मे प्रताप की छत्री बनी हुई।

महाराणाअमरसिंहप्रथम (1597-1620 ई.)

  • अमरसिंह प्रथम महाराणा प्रताप के पुत्र थे।
  • अमरसिंह का राज्याभिषेक चांवड़ में हुआ था।
  • सन् 1615 ई. में जहाँगीर की अनुमति से खुर्रम व अमरसिंह के बीच सन्धि हुईजिसे मुगल-मेवाड़ सधि के नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा मेवाड़ ने भी मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।
  • अमरसिंह का पुत्र कर्णसिंह जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ था।
  • आहड़ में महासतियों के पास गंगो गाँव मे अमरसिंह की छतरी बनी हुई है।
  • बादशाह जहांगीर महाराणा को अधीन करने के इरादे से 8 नवम्बर, 1613 को अजमेर पहुंचा और शाहजादा खुर्रम को सेना लेकर मेवाड़ भेजा। अंतः युद्धों से जर्जर मेवाड़ की अर्थव्यवस्था के मध्यनजर सभी सरदारों एवं युवराज कर्णसिंह के निवेदन पर महाराणा अमरसिंह ने 5 फरवरी, 1615 को निम्न शर्त़ों पर शहजादा खुर्रम से संधि की।

(1) महाराणा बादशाह के दरबार में कभी उपस्थित न होगा।

(2) महाराणा का ज्येष्ठ कुँवर शाही दरबार में उपस्थित होगा।

(3) शाही सेना में महाराणा 1000 सवार रखेगा।

(4) चित्तौड़ के किले की मरम्मत न की जाएगी।

महाराणाकर्णसिंह (1620-1628 ई.)

  • महाराणा कर्णसिंह का जन्म 7 जनवरी, 1584 को और राज्याभिषेक 26 जनवरी, 1620 को हुआ।
  • 1622 ई. में शाहजादा खुर्रम ने अपने पिता जहाँगीर से विद्रोह किया। उस समय शाहजादा उदयपुर में महाराणा के पास भी आया। माना जाता है कि वह पहले कुछ दिन देलवाड़ा की हवेली में ठहरा, फिर जगमंदिर में। महाराणा कर्णसिंह ने जगमंदिर महलों को बनवाना शुरू किया, जिसे उनके पुत्र महाराणा जगतसिंह प्रथम ने समाप्त किया। इसी से ये महल जगमंदिर कहलाते हैं।

महाराणाजगतसिंहप्रथम (1628-1652 ई.)

  • कर्णसिंह के बाद उसका पुत्र जगतसिंह प्रथम महाराणा बना।
  • जगतसिंह बहुत ही दानी व्यक्ति था। उसने जगन्नाथ राय (जगदीश) का भव्य विष्णु का पंचायतन मंदिर बनवाया। यह मंदिर अर्जुन की निगरानी और सूत्रधार (सुथार) भाणा और उसके पुत्र मुकुन्द की अध्यक्षता मेंबना। उक्त मंदिर की प्रतिष्ठा 13 मई, 1652 को हुई इस मंदिर की विशाल प्रशस्ति जगन्नाथ राय प्रशस्ति की रचना कृष्णभ़ट्ट ने की।
  • महाराणा ने पिछोला में मोहनमंदिर और रूपसागर तालाब का निर्माण कराया। जगमंदिर में जनाना महल आदि बनवाकर उसका नाम अपने नाम पर जगमंदिर रखा।
  • जगदीश मंदिर के पास वाला धाय का मंदिर महाराणा की धाय नौजूबाई द्वारा बनवाया गया। महाराणा जगतसिंह के समय ही प्रतापगढ़ की जागीर मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा मेवाड़ से स्वतंत्र करा दी गई।

महाराणाराजसिंह (1652-80 ई.)

  • महाराणा जगतसिंह के पुत्र राजसिंह का राज्याभिषेक 10 अक्टूबर, 1652 ई. को हुआ।
  • इन्होंने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसंमद झील का निर्माण करवाया। इसी झील के उत्तर में नौ चौकी पर 25 शिलालेखों पर संस्कृत का सबसे बड़ा शिलालेख ‘राज-प्रशस्ति’ अंकित है, जिसके लेखक रणछोड़ भट्ट तैलंग है।
  • राजसिंह ने किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमति से विवाह किया जिससे औरगंजेब स्वयं विवाह करना चाहता था। अतः दोनों मे कटुता उत्पन्न हुई।
  • महाराणा राजसिंह ने 1664 ई. में उदयपुर में अम्बा माता का तथा कांकरोली में द्वारिकाधीश मंदिर बनवाया।
  • महाराणा राजसिंह रणकुशल, साहसी, वीर, निर्भीक, सच्चा क्षत्रिय, बुद्धिमान, धर्मनिष्ठ और दानी राजा था। उसने महाराणा जगतसिंह द्वारा प्रारंभ की गई चित्तौड़ के किले की मरम्मत का कार्य जारी रखा और बादशाहऔरंगजेब के 2 अप्रेल, 1679 को हिन्दुओं पर जजिया लगाने, मूर्तियाँ तुड़वाने आदि अत्याचारों का प्रबल विरोध किया।
  • जोधपुर के अजीतसिंह को अपने यहाँ आश्रय दिया और जजिया कर देना स्वीकार नहीं किया।

महाराणाजयसिंह (1680-1698 ई.)

  • इन्होंने 1687 ई. में गोमती, झामरी, रूपारेल एवं बगार नामक नदियों के पानी को रोककर ढेबर नामक नाके पर संगमरमर की जयसमंद झील बनवाना प्रारंभ किया गया जो 1691 ई. में बनकर तैयार हुई।
  • इसे ढेबर झील भी कहते हैं।

महाराणाअमरसिंहद्वितीय (1698-1710 ई.)

  • वागड़ व प्रतापगढ़ को पुनः अपने अधीन किया एवं जोधपुर व आमेर को मुगलों से मुक्त कराकर क्रमशः अजीतसिंह एवं सवाई जयसिंह को वापस वहाँ का शासक बनने में सहायता की।
  • इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह से किया।
  1. अन्यसिसोदियाराज्य
  • मेवाड़ के राजवंश से निकले वीरों ने चार अन्य रिसायतें यथा-प्रतापगढ़, डूंगरपुर, शाहपुरा एवं बाँसवाड़ा स्थापित की। मेवाड़ के गुहिल शासक सामंतसिंह ने 1177 ई. में जालौर के शासक कीर्तिपाल (कीतू) से हारने के बाद वागड़ में परमारों को हराकर गुहिल वंश का शासन स्थापित किया। इसके वंशज डूंगरसिंह ने 1358 ई. में डूंगरपुर नगर बसाकर अपनी राजधानी बड़ौदा से डूंगरपुर स्थानान्तरित की। 1527 ई. में वागड़ का शासक महारावल उदयसिंह खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से युद्ध करते हुए शहीद हो गया। इसके बाद उसके दो पुत्रों ने वागड़ राज्य को दो हिस्सों में बांट लिया। बड़े पुत्र पृथ्वीराज ने डूंगरपुर तथा छोटे जगमाल ने बांसवाड़ा का शासन संभाला।
  • डूंगरपुर राज्य : 1527 के बाद वागड़ के डूंगरपुर क्षेत्र पर महारावल उदयसिंह के पुत्र पृथ्वीराज ने अपना शासन स्थापित किया। 1573 ई. में अकबर ने आक्रमण कर इसे जीत लिया। 1577 ई. में महारावल आसकरण ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। आसकरण के समय जोधपुर नरेश राव चन्द्रसेन ने अकबर से पराजित होकर डूंगरपुर में शरण ली थी। आसकरण की पटरानी प्रेमल देवी ने डूंगरपुर में सन् 1586 में भव्य नौलखा बावड़ी का निर्माण करवाया। यहां के शासक शिवसिंह (1730-1785 ई.) ने कपड़ा नापने का नया गज बनाया।
  • 1818 ई. में यहां के शासक महारावल जसवंतसिंह द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। सन् 1845 ई. में इनके शासन प्रबंध से असंतुष्ट होकर अंग्रेज सरकार ने इन्हें अपदस्थ कर वृन्दावन भेज दिया था।
  • बांसवाड़ा : 1527 ई. में वागड़ के गुहिल शासक महारावल उदयसिंह की मृत्यु के बाद राज्य का माही नदी के दक्षिण का हिस्सा उसके पुत्र जगमाल के हिस्से में आया। इसने बांसवाड़ा में भीलेश्वर महादेव मंदिर, फूलमहल एवं बाई का तालाब बनवाये। इसके वंशज उम्मेदसिंह ने 1818 ई. में अंग्रेजों से संधि कर ली और बांसवाड़ा राज्य की सुरक्षा का भार ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर आ गया।

  • प्रतापगढ़ (देवलिया) : इस राज्य की स्थापना मेवाड़ घराने के राव बीका ने 1561 ई. में की थी। यहां के शासकों ने 1663 ई. में मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। फलतः मेवाड़ राज्य ने प्रतापगढ़ पर बार-बार आक्रमण किये। अंत में 1818 ई. में इस रियासत ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर मराठों एवं मेवाड़ के आतंक से छुटकारा पा लिया परन्तु यह अंग्रेजों के चंगुल में फँस गई।
  • शाहपुरा : इस छोटे से राज्य की स्थापना मेवाड़ शासक महाराणा अमरसिंह प्रथम के पौत्र सुजानसिंह ने 1631 ई. में की थी। प्रारम्भ में यहां का शासन मेवाड़ एवं मुगलों के नियंत्रण में रहा। 18वीं सदी के बाद यहां के शासकों ने अंग्रेजों से संधि कर ली।

चौहानवंश

(शाकम्भरीएवंअजमेरकेचौहान)

  • चौहानों का प्रारम्भिक राज्य नाडोल (पाली) था।
  • पृथ्वीराज रासो में चौहानों को ‘अग्निकुण्ड’ से उत्पन्न बताया गया।
  • पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा चौहानों को सूर्यवंशी मानते हैं। पृथ्वीराज विजय एवं हम्मीर महाकाव्य ग्रन्थ में भी इन्हें सूर्यवंशी माना है।
  • कर्नल टॉड ने चौहानों को विदेशी (मध्य एशियाई) माना है।
  • डॉ. दशरथ शर्मा बिजोलिया लेख के आधार पर चौहानों को ब्राह्मण वंशी मानते हैं।
  • चौहानों का मूल स्थान जांगलदेश मे शाकम्भरी (सांभर) के आसपास सपादलक्ष माना जाता है- इनकी राजधानी अह्छित्रपुर (नागौर) थी।
  • शाकम्भरी के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव को माना जाता है जिसने 551 ई. के आसपास राज्य स्थापित किया।
  • सांभर झील का निर्माण वासुदेव द्वारा करवाया गया।

प्रमुखचौहानशासक

अजयराज

  • यह पृथ्वीराज प्रथम का पुत्र था।
  • इसने 1113 ई. मे अजयमेरू (अजमेर) नगर बसाया।
  • इसी नगर को राजधानी बनाया एवं इसमें तारागढ़ नामक दुर्ग बनाया।
  • इसने दिगम्बरों व श्वेताम्बरों के मध्य शास्त्रार्थ की अध्यक्षता की थी।

अर्णोराज

  • तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराया
  • अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया।
  • इसने चौलुक्य जयसिंह की पुत्री कांचन देवी से विवाह किया था।
  • अर्णोराज शैव मतावलम्बी था।

विग्रहराजचतुर्थ (बीसलदेव/कविबांधव) (1158-1163 ई.)

  • विग्रहराज चतुर्थ, जिसे बीसलदेव भी कहा जाता है शाकम्भरी व अजमेर का महान् चौहान शासक था।
  • उसका शासनकाल सपादलक्ष का स्वर्णयुग माना जाता है।
  • इसने ढिल्लिका (दिल्ली) के तोमर शासक को हराकर अपने अधीन सामन्त बना लिया।
  • उसने संस्कृत भाषा मे ‘हरिकेली’ नामक नाटक की रचना की।
  • हरिकेली नामक नाटक की विषय वस्तु में अर्जुन व शिव के मध्य युद्ध का वर्णन है।
  • नरपति नाल्ह द्वारा रचित ग्रंथ ‘बीसलदेव रासो’ में रानी राजमती के कहने पर बीसलदेव द्वारा उड़ीसा के राजा से हीरे लाने का प्रसंग का सौन्दर्यात्मक वर्णन किया है। यह एक श्रेष्ठ शृंगार काव्य है।
  • समकालीन लोग इसे ‘कवि बान्धव’ नाम से पुकारते थे।
  • सोमदेव बीसलदेव का दरबारी कवि था, जिसने ‘ललित विग्रहराज’ ग्रंथ की रचना की।
  • उसने अजमेर मे संस्कृत विद्यालय की स्थापना की जिसे बाद मे कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़कर कर ‘ढाई दिन का झोपड़ा‘ बनवा दिया।
  • उसने बीसलपुर नामक कस्बे व झील का निर्माण करवाया।
  • इसने एकादशी के दिन पशु वध पर प्रतिबंध लगाया।

पृथ्वीराजतृतीय (रायपिथौरा) (1177-1192 ई.)

  • पृथ्वीराज प्रतापी राजा व श्रेष्ठ सेनानायक था।
  • उसके पिता का नाम सोमेश्वर व माता का नाम कर्पुरी देवी था।
  • पिता की मृत्यु के बाद उसने 11 वर्ष की आयु में अजमेर का शासन संभाला।
  • कन्नौज के राजा जयचंद गहड़वाल के साथ उसके कटुतापूर्ण सम्बन्ध थे।
  • जयचंद की पुत्री संयोगिता को स्वयंवर से उठाकर वह अजमेर ले आया और उससे विवाह किया।
  • तराईन के प्रथम युद्ध – 1191 ई. मे उसने तुर्क आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी को बुरी तरह हराया।
  • तराईन के द्वितीय युद्ध – 1192 ई. मे वह मुहम्मद गोरी से हार गया।
  • हसन निजामी के ताजुल मासिर के अनुसार गौरी द्वारा पृथ्वीराज को कैद किया गया व सुल्तान के विरूद्ध षड़यंत्र करते पाया गया तो उसकी हत्या कर दी गयी।
  • आल्हा व उदल महोबा के चंदेल शासक परमर्दीदेव के सेनानायक थे। दोनों वीर, साहसी थे एवं 1182 ई. में महोबा के युद्ध में पृथ्वीराज के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए।
  • ‘पृथ्वीराज रासो‘ के रचयिता चन्दवरदाई थे। इस ग्रंथ को चन्दवरदाई के पुत्र जल्हण ने पूरा किया।

रणथम्भौरकेचौहान

  • रणथम्भौर के चौहान वंश की स्थापना पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्द राज ने की।
  • रणथम्भौर की चौहान शाखा का सबसे प्रतापी शासक हम्मीर देव (1282-1301 ई) था। उसने 17 युद्ध लड़े जिसमे 16 में विजित रहा।
  • सन् 1291 ई. में उसने जलालुद्दीन खिलजी के आक्रमण को विफल किया।
  • जलालुद्दीन ने 1292 में रणथम्भौर को जीतने का दुसरा असफल प्रयास किया।
  • उसने अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोही सेनानायक मुहम्मदशाह को शरण दी अतः अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर 1301 ई. मे आक्रमण कर दिया।
  • हम्मीर लड़ता हुआ मारा गया, पत्नी रंगदेवी ने जौहर किया। यह राजस्थान का प्रथम साका था।
  • हम्मीर अपनी वीरता के साथ-साथ हठ के लिए भी प्रसिद्ध है।

जालौरकेचौहान

  • जालौर दिल्ली से गुजरात व मालवा जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाँ 13वीं सदी में सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जबालिपुर था तथा यहाँ के किले को ‘स्वर्णगिरी‘ कहते थे। सन् 1305 ई. में यहाँ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाना का दुर्ग पड़ता है, अतः पहले 1308 ई. में सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और साम वीर गति को प्राप्त हुए।
  • 1311 ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया और कई दिनों के घेरे के बाद अंतिम युद्ध में अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपूत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ तथा ‘वीरमदेव सोनगरा की बात’ में मिलती है।

नाडोलकेचौहान

  • चौहानों की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाक्पति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177 ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. में लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।

सिरोहीकेचौहान

  • सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रावती थी। बाद में बार-बार के मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहसमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इस के काल में महाराणा कुम्भा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहाँ के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा उसे सौंप दिया। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।

हाड़ौतीकेचौहान

  • हाड़ौती में वर्तमान बून्दी, कोटा एवं बारां के क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहाँ मीणा जाति का शासन स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बून्दी में ही आता था। 1342 ई. में यहाँ हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों का ही वंशज था। बून्दी का यह नाम वहाँ के शासक बून्दा मीणा के नाम पर पड़ा। मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बून्दी को अपने अधीन कर लिया। तब से बून्दी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहाँ के शासक सुर्जनसिंह ने अकबर से संधि कर मुगल अधीनता स्वीकार कर ली और तब से बून्दी मेवाड़ से मुक्त हो गया। 1631 ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने कोटा को बून्दी से स्वतंत्र कर बून्दी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को वहाँ का शासक बना दिया। मुगल बादशाह फर्रुखशियर के समय बून्दी नरेश बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बून्दी राज्य का नाम फर्रुखाबाद रख उसे कोटा नरेश को दे दिया परन्तु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बून्दी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बून्दी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें मराठे, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम प्रवेश बून्दी में हुआ, जब 1734 ई. में वहाँ के बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया।

1818 ई. में बून्दी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बून्दी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बून्दी का राजस्थान संघ में विलय हो गया।

राठौड़वंश

  • राजस्थान के उत्तरी व पश्चिमी भागों मे राठौड़ वंशीय राजपूतों का साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसे मारवाड़ कहते है।
  • राठौड़ का शाब्दिक अर्थ राष्ट्रकूट होता है।
  • जोधपुर के राठौड़ों का मूल स्थान कन्नौज था। उनको बंदायूँ वंश से उत्पन्न माना जाता है।
  • जोधपुर के राठौड़ वंश का संस्थापक राव सीहा था, जो कन्नौज के जयचंद गहड़वाल का प्रपौत्र था।
  • राव सीहा कुंवर सेतराम का पुत्र था व उसकी रानी सोलंकी वंश की पार्वती थी।

प्रमुखशासक

रावचूड़ाराठौड़

  • राव वीरमदेव का पुत्र, मारवाड़ का प्रथम बड़ा शासक था।
  • उसने मंडोर को मारवाड़ की राजधानी बनाया।
  • मारवाड़ राज्य में ‘सामन्त प्रथा‘ का प्रारम्भ राव चूड़ा द्वारा किया गया था।
  • राव चूड़ा की रानी चाँदकंवर ने चांद बावड़ी बनवाई।
  • राव चूड़ा ने नागौर के सूबेदार ‘जल्लाल खां‘ को हराकर नागौर के पास ‘चूड़ासर‘ बसाया था।
  • राव चूड़ा ने अपनी ‘मोहिलाणी‘ रानी के पुत्र ‘कान्हा‘ को राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया और अपने ज्येष्ठ पुत्र ‘रणमल‘ को अधिकार से वंचित कर दिया।
  • राठौड़ रणमल ने मेवाड़ के राणा लाखा, मोकल तथा महाराणा कुम्भा को अपनी सेवायें प्रदान की।
  • 1438 ई. में मेवाड़ के सामन्तों ने षड़यंत्र रचकर रणमल की हत्या कर दी थी।
  • चूड़ा की पुत्री हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के राणा लाखा के साथ हुआ।
  • चूड़ा के पुत्र रणमल की हत्या चित्तौड़ में हुई थी। (कुम्भा के कहने पर)

रावजोधा (1438-89 ई.)

  • रणमल का पुत्र।
  • जोधा ने 12 मई 1459 ई. में जोधपुर नगर की स्थापना की तथा चिड़ियाटूंक पहाड़ी पर दुर्ग (मेहरानगढ़/मयूरध्वज/गढ़चिन्तामणि) बनवाया।
  • राव जोधा ने अपनी पुत्री का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ किया था।
  • मेहरानगढ़ की नींव करणी माता के हाथों रखी गई थी।
  • किपलिंग ने मेहरानगढ़ किले के लिए कहा, “यह किला परियों व अप्सराओं द्वारा निर्मित किला है।”
  • मेहरानगढ़ दुर्ग में मेहरसिंह व भूरे खां की मजार है।
  • मेहरानगढ़ दुर्ग में शम्भू बाण, किलकिला व गज़नी खां नामक तोपे हैं।
  • राव जोधा ने मेहरानगढ़ किले में चामुण्डा देवी का मन्दिर बनवाया जिसमें 30 सितम्बर 2008 को देवी के मन्दिर में दुर्घटना हुई जिसकी जाँच के लिए जशराज चौपड़ा कमेटी गठित की गयी।
  • राव जोधा के दो प्रमुख उत्तराधिकारी थे- राव सातल तथा राव सूजा।

रावगांगा (1515-32)

  • राव सूजा की मृत्यु के बाद उसका पौत्र गांगा मारवाड़ का शासक बना।
  • राव गांगा बाघा जी के पुत्र थे।
  • खानवा के युद्ध में गांगा ने अपने पुत्र मालदेव के नेतृत्व में सेना भेजकर राणा सांगा की मदद की थी।
  • राव गांगा ने गांगलोव तालाब, गांगा की बावड़ी व गंगश्याम जी के मंदिर का निर्माण करवाया।

रावमालदेव (1532-62 ई.)

  • राव मालदेव राव गांगा का बड़ा पुत्र था।
  • मालदेव ने उदयसिंह को मेवाड़ का शासक बनाने में मदद की।
  • मालदेव की पत्नी उमादे (जो जैसलमेर के राव लूणकर्ण की पुत्री थी) को रूठीरानी के नाम से जाना जाता है।
  • अबुल फज़ल ने मालदेव को ‘हशमत वाला’ शासक कहा था।
  • शेरशाह सूरी व मालदेव के दो सेनापतियों जैता व कुम्पा के बीच जनवरी, 1544 ई. मे गिरी सुमेल का युद्ध (जैतारण का युद्ध) हुआ जिसमें शेरशाह बड़ी मुश्किल से जीत सका।
  • गिरी सूमेल के युद्ध के समय ही शेरशाह के मुख से निकला कि “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।“
  • राव मालदेव के समय सिवाणा पर राणा डूँगरसी का अधिकार था।
  • राव मालदेव के समय बीकानेर का शासक राव जैतसी था।
  • मालदेव की रानी उमादे (रूठी रानी) को अजमेर से मनाकर ईश्वरदास जी जोधपुर लाये लेकिन आसा बारहठ ने रानी को एक दोहा सुनाया जिससे वह वापस नाराज हो गई।

रावचन्द्रसेन (1562-1581 ई.)

  • राव चन्द्रसेन मालदेव का तीसरा पुत्र था।
  • चन्द्रसेन के भाई राम के कहने पर अकबर ने सेना भेजकर जोधपुर पर कब्जा कर लिया था।
  • सन् 1570 ई. के नागौर दरबार में वह अकबर से मिला था लेकिन शीघ्र ही उसने नागौर छोड़ दिया।
  • चन्द्रसेन मारवाड़ का पहला राजपूत शासक था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और मरते दम तक संघर्ष किया। ‘मारवाड़ का भूला बिसरा नायक’ नाम से प्रसिद्ध।
  • चन्द्रसेन को ‘मारवाड़ का प्रताप’ कहा जाता है।

रावउदयसिंह (1583-95 ई.)

  • राव चन्द्रसेन का भाई।
  • राव उदयसिंह को मोटा राजा के नाम से भी जाना जाता है।
  • राव उदयसिंह ने 1570 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार की।
  • उसने अपनी पुत्री जोधाबाई (जगत गुंसाई/भानमती) का विवाह 1587 ई. में शहजादे सलीम (जहाँगीर) के साथ किया।
  • शहजादा खुर्रम इसी जोधाबाई का पुत्र था।

महाराजाजसवंतसिंह (प्रथम) (1638-78 ई.)

  • महाराजा जसवंत सिंह प्रथम का जन्म 26 दिसम्बर, 1626 ई. में बुहरानपुर में हुआ था।
  • गजसिंह के पुत्र जसवन्तसिंह की गिनती मारवाड़ के सर्वाधिक प्रतापी राजाओं में होती है।
  • शाहजहाँ ने उसे ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान की थी। वह जोधपुर का प्रथम महाराजा उपाधि प्राप्त शासक था।
  • शाहजहाँ की बीमारी के बाद हुए उत्तराधिकारी युद्ध में वह शहजादा दाराशिकोह की ओर से धरमत (उज्जैन) के युद्ध (1657 ई.) में औरंगजेब व मुराद के विरुद्ध लड़कर हारा था।
  • वीर दुर्गादास इन्हीं का दरबारी व सेनापति था।
  • मुहता (मुहणोत) नैणसी इन्हीं के दरबार में रहता था। नेणसी ने ‘मारवाड़ री परगना री विगत’ तथा ‘नैणसी री ख्यात’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे। इसे ‘मारवाड़ का अबुल फजल‘ कहा जाता है।
  • उसने मुगलों की ओर से शिवाजी के विरूद्ध भी युद्ध में भाग लिया था।
  • इनकी मृत्यु सन् 1678 ई. में अफगानिस्तान के जमरूद नामक स्थान पर हुई थी।
  • महाराजा जसवंत सिंह ने ‘भाषा-भूषण’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की।
  • जसवंतसिंह द्वारा रचित अन्य ग्रंथ अपरोक्ष सिद्धान्त सार व प्रबोध चन्द्रोदय नाटक हैं।

अजीतसिंह (1678-1728 ई.)

  • अजीतसिंह जसवन्त सिंह प्रथम का पुत्र था।
  • वीर दुर्गादास राठौड़ ने अजीतसिंह को औरंगजेब के चंगुल से मुक्त कराकर उसे मारवाड़ का शासक बनाया था।
  • अजीतसिंह ने अपनी पुत्री इन्द्रकुंवरी का विवाह मुगल बादशाह फर्रूखशियर से किया था। अजीतसिंह की हत्या उसके पुत्र बख्तसिंह द्वारा की गयी।
  • अजीतसिंह के दाह संस्कार के समय अनेक मोर तथा बन्दरों ने स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति दी।

महाराजामानसिंह (1803-1843 ई.)

  • 1803 में उत्तराधिकार युद्ध के बाद मानसिंह जोधपुर सिंहासन पर बैठे। जब मानसिंह जालौर में मारवाड़ की सेना से घिरे हुए थे, तब गोरखनाथ सम्प्रदाय के गुरु आयस देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह शीघ्र ही जोधपुर के राजा बनेंगे। अतः राजा बनते ही मानसिंह ने आयस देवनाथ को जोधपुर बुलाकर अपना गुरु बनाया तथा वहां नाथ सम्प्रदाय के महामंदिर का निर्माण करवाया।
  • गिंगोली का युद्ध : मेवाड़ महाराणा भीमसिंह की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह के विवाद में जयपुर राज्य की महाराजा जगतसिंह की सेना, पिंडारियों व अन्य सेनाओं ने संयुक्त रूप से जोधपुर पर मार्च, 1807 में आक्रमण कर दिया तथा अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लिया। परन्तु शीघ्र ही मानसिंह ने पुनः सभी इलाकों पर अपना कब्जा कर लिया।
  • सन् 1817 ई. में मानसिंह को शासन का कार्यभार अपने पुत्र छत्रसिंह को सौंपना पड़ा। परन्तु छत्रसिंह की जल्दी ही मृत्यु हो गई। सन् 1818 में 16, जनवरी को मारवाड़ ने अंग्रेजों से संधि कर मारवाड़ की सुरक्षा का भार ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दिया।

दुर्गादासराठौड़

  • वीर दुर्गादास जसवन्त सिंह के मंत्री आसकरण का पुत्र था।
  • उसने अजीतसिंह को मुगलों के चंगुल से मुक्त कराया।
  • उसने मेवाड़ व मारवाड़ में सन्धि करवायी।
  • अजीतसिंह ने दुर्गादास को देश निकाला दे दिया तब वह उदयपुर के महाराजा अमर सिंह द्वितीय की सेवा मे रहा।
  • दुर्गादास का निधन उज्जैन में हुआ और वहीं क्षिप्रा नदी के तट पर उनकी छतरी (स्मारक) बनी हुई है।

अमरसिंहराठौड़

  • जोधपुर के गजसिंह का पुत्र व महाराजा जसवन्त सिंह का भाई जो नाराज होकर शाहजहाँ की सेवा में चला गया।
  • सन् 1644 ई. मे उसने शाहजहाँ के साले व मीरबक्शी सलावत खाँ की भरे दरबार में हत्या कर दी थी।
  • सन् 1644 ई. में ‘मतीरे की राड‘ नामक युद्ध अमर सिंह राठौड़ व बीकानेर के कर्णसिंह के मध्य लड़ा गया।
  • अमरसिंह को नागौर का शासक बनाया गया।
  • वीरता के कारण वह आज भी राजस्थानी ख्यालों में प्रसिद्ध।

बीकानेरकेराठौड़

रावबीका (1465-1504 ई.)

  • बीकानेर के राठौड़ वंश का संस्थापक राव जोधा का पुत्र राव बीका था।
  • राव बीका ने करणी माता के आशीर्वाद से 1465 ई. में जांगल प्रदेश में राठौड़ वंश की स्थापना की तथा सन् 1488 ई. में नेरा जाट के सहयोग से बीकानेर (राव बीका तथा नेरा जाट के नाम को संयुक्त कर नाम बना) नगर की स्थापना की।
  • राव बीका ने जोधपुर के राजा राव सुजा को पराजित कर राठौड़ वंश के सारे राजकीय चिह्न छीनकर बीकानेर ले गये।
  • राव बीका की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र ‘नरा‘ बीकानेर का शासक बना।

रावलूणकरण (1504-1526 ई.)

  • अपने बड़े भाई राव नरा की मृत्यु हो जाने के कारण राव लूणकरण राजा बना।
  • राव लूणकरण बीकानेर का दानी, धार्मिक, प्रजापालक व गुणीजनों का सम्मान करने वाला शासक था। दानशीलता के कारण बीठू सूजा ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ राव जैतसी रो छन्द में इसे ‘कर्ण‘ अथवा ‘कलियुग का कर्ण‘ कहा है।
  • सन् 1526 ई. में इसने नारनौल के नवाब पर आक्रमण कर दिया परन्तु धौंसा नामक स्थान पर हुए युद्ध में लूणकरण वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • ‘कर्मचन्द्रवंशोंत्कीकर्तनंक काव्यम्‘ में लूणकरण की दानशीलता की तुलना कर्ण से की गई है।

रावजैतसी (1526-1541 ई.)

  • बाबर के उत्तराधिकारी कामरान ने 1534 ई. में भटनेर पर अधिकार करके राव जैतसी को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए कहा परन्तु जैतसी ने अपनी बड़ी सेना के साथ 26 अक्टूबर, 1534 को अचानक कामरान पर आक्रमण कर दिया और उन्हें गढ़ छोड़ने के लिए बाध्य किया।
  • बीकानेर का शासक राव जैतसी मालदेव (मारवाड़) के साथ पहोबा के युद्ध (1541 ई.) में वीरगति को प्राप्त, इस युद्ध का वर्णन बीठू सूजा के प्रसिद्ध ग्रन्थ राव जैतसी रो छन्द में मिलता है।

रावकल्याणमल (1544-1574 ई.)

  • राव कल्याणमल, राव जैतसी का पुत्र था जो जैतसी की मृत्यु के समय सिरसा में था।
  • 1544 ई. में गिरी सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी ने मारवाड़ के राव मालदेव को पराजित किया, इस युद्ध में कल्याणमल ने शेरशाह की सहायता की थी तथा शेरशाह ने बीकानेर का राज्य राव कल्याणमल को दे दिया।
  • कल्याणमल ने नागौर दरबार (1570 ई.) मे अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
  • अकबर ने नागौर के दरबार के बाद सन् 1572 ई. में कल्याणमल के पुत्र रायसिंह को जोधपुर की देखरेख हेतु उसे प्रतिनिधि बनाकर जोधपुर भेज दिया।
  • कवि पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) कल्याणमल का ही पुत्र था।
  • पृथ्वीराज राठौड़ की प्रसिद्ध रचना ‘बेलि क्रिसन रूकमणी री’ है, कवि दुरसा आढ़ा ने इस रचना को पाँचवा वेद एवं 19वाँ पुराण कहा है। इटालियन कवि डॉ. तेस्सितोरी ने कवि पृथ्वीराज राठौड़ को ‘डिंगल का होरेस’ कहा है।
  • अकबर ने कवि पृथ्वीराज राठौड़ को गागरोन का किला जागीर में दिया था।

महाराजारायसिंह (1574-1612 ई.)

  • कल्याणमल का उत्तराधिकारी रायसिंह बना जिसे दानशीलता के कारण प्रसिद्ध इतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद ने ‘राजपूताने का कर्ण‘ कहा है।
  • अकबर ने इसे महाराजा की पदवी प्रदान की।
  • बीकानेर का शासक बनते ही रायसिंह ने ‘महाराजाधिराज‘ और महाराजा की उपाधियाँ धारण की। बीकानेर के राठौड़ नरेशों में रायसिंह पहला नरेश था जिसने इस प्रकार की उपाधियाँ धारण की थी।
  • मुगल बादशाह अकबर ने रायसिंह को सर्वप्रथम जोधपुर का अधिकारी नियुक्त किया था।
  • रायसिंह ने अपने मंत्री कर्मचन्द की देखरेख में राव बीका द्वारा बनवाये गये पुराने (जूना) किले पर ही नये किले जूनागढ़ का निर्माण सन् 1594 में करवाया। किले के अन्दर रायसिंह ने एक प्रशस्ति भी लिखवाई जिसे अब ‘रायसिंह प्रशस्ति‘ कहते हैं। किले के मुख्य प्रवेश द्वार सूरजपोल के बाहर जयमल-पत्ता की हाथी पर सवार पाषाण मूर्तियाँ रायसिंह ने ही स्थापित करवाई। इस दुर्ग में राजस्थान की सबसे पहली लिफ्ट स्थित है।
  • रायसिंह द्वारा सिरोही के देवड़ा सुरताण व जालौर के ताज खाँ को भी पराजित किया।
  • रायसिंह ने ‘रायसिंह महोत्सव’ व ‘ज्योतिष रत्नमाला’ ग्रन्थ की रचना की।
  • ‘कर्मचन्द्रवंशोकीर्तनकंकाव्यम’ में महाराजा रायसिंह को राजेन्द्र कहा गया है तथा लिखा गया है कि वह हारे हुए शत्रुओं के साथ बड़े सम्मान का व्यवहार करता था।
  • इसके समय मंत्री कर्मचन्द ने उसके पुत्र दलपत सिंह को गद्दी पर बिठाने का षड़यंत्र किया तो रायसिंह ने ठाकुर मालदे को कर्मचन्द को मारने के लिए नियुक्त किया परन्तु वह अकबर के पास चला गया।

महाराजाकर्णसिंह (1631-1669 ई.)

  • सूरसिंह के पुत्र कर्णसिंह को औरंगजेब ने जांगलधर बादशाहकी उपाधि प्रदान की।
  • कर्णसिंह ने विद्वानों के सहयोग से साहित्यकल्पदुम ग्रन्थ की रचना की।
  • 1644 ई. में बीकानेर के कर्णसिंह व नागौर के अमरसिंह राठौड़ के बीच ‘मतीरा री राड़‘ नामक युद्ध हुआ।
  • इसके आश्रित विद्वान गंगानन्द मैथिल ने कर्णभूषण एवं काव्यडाकिनी नामक ग्रन्थों की रचना की।

महाराजाअनूपसिंह (1669-1698 ई.)

  • महाराजा अनूपसिंह द्वारा दक्षिण में मराठों के विरूद्ध की गई कार्यवाहियों से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने इन्हें ‘महाराजा‘ एवं ‘माही भरातिव‘ की उपाधि से सम्मानित किया।
  • महाराज अनूपसिंह एक प्रकाण्ड विद्वान, कूटनीतिज्ञ, विद्यानुरागी एवं संगीत प्रेमी थे। इन्होंने अनेक संस्कृत ग्रन्थों – अनूपविवेक, काम-प्रबोध, अनूपोदय आदि की रचना की। इनके दरबारी विद्वानों ने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। इनमें मणिराम कृत ‘अनूप व्यवहार सागर‘ एवं ‘अनूपविलास‘, अनंन भट्ट कृत ‘तीर्थ रत्नाकर‘ तथा संगीताचार्य भावभट्ट द्वारा रचित ‘संगीत अनूपाकुंश‘, ‘अनूप संगीत विलास‘, ‘अनूप संगीत रत्नाकर‘ आदि प्रमुख हैं। उसने दक्षिण भारत से अनेकानेक ग्रन्थ लाकर अपने पुस्तकालय में सुरक्षित किये। अनूप पुस्तकालय में वर्तमान में बड़ी संख्या में ऐतिहासिक व महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह मौजूद है। दयालदास की ‘बीकानेर रा राठौड़ां री ख्यात‘ में जोधपुर व बीकानेर के राठौड़ वंश का वर्णन है।
  • अनूपसिंह द्वारा दक्षिण में रहते हुए अनेक मूर्तियाँ का संग्रह किया व नष्ट होने से बचाया। यह मूर्तियों का संग्रह बीकानेर के पास ‘तैंतीस करोड़ देवताओं के मंदिर‘ में सुरक्षित है।

महाराजासूरजसिंह

  • 16 अप्रेल, 1805 को मंगलवार के दिन भाटियों को हराकर इन्होंने भटनेर को बीकानेर राज्य में मिला लिया तथा भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रख दिया (क्योंकि इन्होंने हनुमानजी के वार मंगलवार को यह जीत हासिल की थी)।

अन्यतथ्य

  • 1818 ई. में बीकानेर के राजा सूरजसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सुरक्षा संधि कर ली और बीकानेर में शांति व्यवस्था कायम करने में लग गये।
  • 1834 ई. में जैसलमेर व बीकानेर की सेनाओं की बीच बासणी की लड़ाई हुई।
  • राजस्थान के दो राज्यों के बीच हुई यह अंतिम लड़ाई थी।
  • 1848 ई. में बीकानेर नरेश रतनसिंह ने मुल्तान के दीवान मूलराज के बागी होने पर उसके दमन में अंग्रेजों की सहायता की।
  • 1857 ई. की क्रान्ति के समय बीकानेर के महाराजा सरदार सिंह थे जो अंग्रेजों के पक्ष में क्रान्तिकारियों का दमन करने के लिए राजस्थान के बाहर पंजाब तक गये।
  • बीकानेर के लालसिंह ऐसे व्यक्ति हुए जो स्वयं कभी राजा नहीं बने परन्तु जिसके दो पुत्र-डूंगरसिंह व गंगासिंह राजा बने।
  • बीकानेर के राजा डूंगरसिंह के समय 1886 को राजस्थान में सर्वप्रथम बीकानेर रियासत में बिजली का शुभारम्भ हुआ।
  • 1927 ई. में बीकानेर के महाराज गंगासिंह (आधुनिक भारत का भगीरथ) राजस्थान में गंगनहर लेकर आये जिसका उद्घाटन वायसराय लॉर्ड इरविन ने किया।
  • गंगासिंह अपनी विख्यात गंगा रिसाला सेना के साथ द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में युद्ध लड़ने के लिये ब्रिटेन गये।
  • बीकानेर रियासत के अंतिम राजा सार्दूलसिंह थे।

किशनगढ़केराठौड़

  • राजस्थान में राठौड़ वंश का तीसरा राज्य किशनगढ़ था, जिसकी स्थापना सन् 1609 मेंजोधपुर के शासक मोटा राजा उदयसिंह के पुत्र श्री किशन सिंह ने की थी। सम्राट जहाँगीर ने यहाँ के शासक ‘महाराजा’ का खिताब दिया। यहाँ महाराजा सांवत सिंह प्रसिद्ध राजा हुए, जो कृष्ण भक्ति में राजपाठ छोड़कर वृंदावन चले गए एवं ‘नागरीदास’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कच्छवाहवंश

  • ‘कच्छवाह‘ अपने आपको भगवान श्री राम के पुत्र ‘कुश‘ की संतान मानते हैं।
  • संस्थापक – दुलहराय (तेजकरण), मूलतः ग्वालियर निवासी था।
  • 1137 ई. में उसने बड़गुजरों को हराकर नवीन ढूँढाड़ राज्य की स्थापना की।
  • दुलहराय के वंशज कोकिलदेव ने 1207 ई. में मीणाओं से आमेर जीतकर अपनी राजधानी बनाया, जो 1727 ई. तक कच्छवाह वंश की राजधानी रहा।
  • इसी वंश के शेखा ने शेखावटी मे अपना अलग राज्य बनाया।

भारमल (1547-1574 .) याबिहारीमल

  • 1547 ई. में भारमल आमेर का शासक बना।
  • भारमल प्रथम राजस्थानी शासक था, जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार की व 1562 ई. में अपनी पुत्री हरखाबाई उर्फ मानमति या शाही बाई (मरियम उज्जमानी) का विवाह अकबर से किया।
  • मुगल बादशाह जहाँगीर हरखाबाई का ही पुत्र था।

भगवन्तदास (1574-1589 ई.)

  • भगवन्त दास या भगवान दास भारमल का पुत्र था।
  • उसने अपनी पुत्री मानबाई (मनभावनी) का विवाह शहजादे सलीम (जहाँगीर) से किया। मानबाई को ‘सुल्तान निस्सा‘ की उपाधि प्राप्त थी।
  • खुसरो इसी का पुत्र था।

मानसिंह (1589-1614 ई.)

  • मानसिंह भगवन्त दास का पुत्र था।
  • मानसिंह आमेर के कच्छवाह शासकों में सर्वाधिक प्रतापी एवं महान् राजा था।
  • मानसिंह ने 52 वर्ष तक मुगलों की सेवा की।
  • मानसिंह 1573 में अकबर के दूत के रूप में राणा प्रताप से मिला था।
  • 1576 ई. में हल्दीघाटी युद्ध में उसने शाही सेना का नेतृत्व किया था।
  • अकबर ने उसे फर्जन्द (पुत्र) एवं राजा की उपाधि प्रदान की। वह अकबर के नवरत्नों में शामिल था।
  • मानसिंह ने बंगाल में ‘अकबर नगर‘ तथा बिहार में ‘मानपुर नगर‘ को बसाया।
  • मानसिंह स्वयं कवि, विद्वान, साहित्य प्रेमी व विद्वानों का आश्रयदाता था।
  • शिलादेवी (आमेर), जगत शिरोमणी (आमेर) गोविन्द देवजी (वृंदावन) मंदिर उसी ने बनवाये थे।

जयसिंहप्रथमयामिर्जाराजाजयसिंह (1621-1667 ई.)

  • इसने तीन मुगल बादशाहों जहाँगीर, शाहजहां व औरंगजेब को अपनी सेवाएँ दी।
  • उसने औरंगजेब की तरफ से शिवाजी को सन्धि के लिए बाध्य किया। यह सन्धि इतिहास में पुरन्दर की सन्धि (जून 1665 ई.) के नाम से प्रसिद्ध है।
  • उसकी योग्यता एवं सेवाओं से प्रसन्न होकर शाहजहाँ ने उसे ‘मिर्जा राजा‘ की उपाधि प्रदान की।
  • बिहारी सतसई के रचयिता कवि बिहारी उसके दरबारी कवि थे।
  • बिहारी का भांजा कुलपति मिश्र भी बड़ा विद्वान था, जिसने 52 ग्रन्थों की रचना की इनका दरबारी था।
  • इनकी मृत्यु बुरहानपुर के पास हुई थी।

जयसिंहद्वितीययासवाईजयसिंह (1700-1743 ई.)

  • इनका वास्तविक नाम विजयसिंह था।
  • बादशाह औरंगजेब ने उसकी वाकपटुता से प्रभावित होकर उसकी तुलना जयसिंह प्रथम से की तथा उसे जयसिंह प्रथम से भी अधिक योग्य अर्थात् सवाया जानकर विजयसिह का नाम बदलकर सवाई जयसिंह कर दिया।
  • सवाई जयसिंह ने मुगलों के लिए तीन बार मराठों से युद्ध किये।
  • सवाई जयसिंह द्वारा जाटों पर मुगलों की विजय होने के उपलक्ष्य में बादशाह मुहम्मद शाह ने जयसिंह को राज राजेश्वर, राजाधिराज, सवाई की उपाधि प्रदान की।
  • सवाई जयसिंह ने मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय से मिलकर 1734 ई. में हुरड़ा (भीलवाड़ा) मे राजस्थान के राजपूत राजाओं का सम्मेलन आयोजित किया जिसका उद्देश्य सामुहिक शक्ति द्वारा मराठा आक्रमण को रोकना था।
  • वह संस्कृत, फारसी, गणित एवं ज्योतिष का प्रकाण्ड विद्वान था उसे ‘ज्योतिष शासक’ भी कहा गया है।
  • उसने ‘जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की।
  • उसने जयपुर, दिल्ली, बनारस, उज्जैन व मथुरा में वैध शालाए बनवायी जिसमें सबसे बड़ी वेधशाला (जंतर-मंतर) जयपुर की है तथा सर्वप्रथम वेधशाला दिल्ली की है।
  • उसने 18 नवम्बर, 1727 ई. में जयपुर नगर की स्थापना की। जयपुर का प्रधान वास्तुकार बंगाली ब्राह्मण विद्याद्यर भट्टाचार्य था।
  • नाहरगढ़ दुर्ग, जयनिवास महल का निर्माण भी करवाया।
  • सवाई जयसिंह के समय ही आमेर राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ।
  • वह अंतिम हिन्दू शासक था जिसने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करवाया। इस   यज्ञ का पुरोहित पुण्डरीक रत्नाकर था।
  • मुगल बादशाह बहादुर शाह ने सवाई जयसिंह को आमेर की गद्दी से अपदस्थ करके विजय सिंह को आमेर का शासक बनाया तथा आमेर का नाम ‘मोमिनाबाद‘ रखा था।
  • पुण्डरीक रत्नाकर ने ‘जयसिंह कल्पदुम‘ नामक पुस्तक लिखी।

सवाईईश्वरीसिंह (1743-1750 ई.)

  • महाराजा सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ईश्वरीसिंह ने राजकाज संभाला। परन्तु उनके भाई माधोसिंह ने राज्य प्राप्त करने हेतु मराठों एवं कोटा-बून्दी की संयुक्त सेना के साथ जयपुर पर आक्रमण कर दिया।
  • बनास नदी के पास 1747 ई. में राजमहल (टोंक) स्थान पर हुए युद्ध में ईश्वरीसिंह की विजय हुई, जिसके उपलक्ष्य में उन्होंने जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में एक ऊंची मीनार ईसरलाट (वर्तमान सरगासूली) का निर्माण कराया।
  • 1750 ई. में मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर ने पुनः जयपुर पर आक्रमण किया। तब सवाई ईश्वरीसिंह ने आत्महत्या कर ली।

महाराजासवाईमाधोसिंहप्रथम (1750-1768 ई.)

  • जयपुर महाराजा ईश्वरीसिंह द्वारा आत्महत्या कर लेने पर माधोसिंह जयपुर की गद्दीपर बैठे।
  • माधोसिंह के राजा बनने के बाद मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर एवं जय अप्पा सिंधिया ने इससे भारी रकम की मांग की, जिसके न चुकाने पर मराठा सैनिकों ने जयपुर में उपद्रव मचाया, फलस्वरूप नागरिकों ने व्रिदोह कर मराठा सैनिकों का कत्लेआम कर दिया।
  • महाराजा माधोसिंह ने मुगल बादशाह अहमदशाह एवं जाट महाराजा सूरजमल (भरतपुर) एवं अवध नवाब सफदरजंग के मध्य समझौता करवाया। इसके परिणामस्वरूप बादशाह ने रणथम्भौर किला माधोसिंह को दे दिया। इससे नाराज हो कोटा महाराजा शत्रुसाल ने जयपुर पर आक्रमण कर नवम्बर, 1761 ई. में भटवाड़ा के युद्ध में जयपुर की सेना को हराया।
  • 1768 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। इन्होंने जयपुर में मोती डूंगरी पर महलों का निर्माण करवाया।

सवाईप्रतापसिंह (1778-1803 ई.)

  • महाराजा पृथ्वीसिंह की मृत्यु होने पर उनके छोटे भाई प्रतापसिंह ने 1778 ई. में जयपुर का शासन संभाला। इनके काल में अंग्रेज सेनापति जॉर्ज थॉमस ने जयपुर पर आक्रमण किया।
  • मराठा सेनापति महादजी सिंधिया को भी जयपुर राज्य की सेना ने जोधपुर नेरश महाराणा विजयसिंह के सहयोग से जुलाई, 1787 में तुंगा के मैदान में बुरी तरह पराजित किया।
  • प्रतापसिंह जीवन भर युद्धों में उलझे रहे फिर भी उनके काल में कला साहित्य में अत्यधिक उन्नति हुई। वे विद्वानों एवं संगीतज्ञों के आश्रयदाता होने के साथ-साथ स्वयं भी ब्रजनिधि नाम से काव्य रचना करते थे।
  • इन्होंने जयपुर में एक संगीत सम्मेलन करवाकर ‘राधागोविंद संगीत सार’ गंथ की रचना करवाई।

महाराजारामसिंहद्वितीय (1835-1880 ई.)

  • महाराजा रामसिंह को नाबालिग होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने अपने संरक्षण में ले लिया। इनके समय मेजर जॉन लुडलो ने जनवरी, 1843 ई. में जयपुर का प्रशासन संभाला सरकार ने अपने संरक्षण में ले लिया।
  • इनके समय मेजर जॉन लुडलो ने जनवरी, 1843 ई. में जयपुर का प्रशासन संभाला तथा उन्होंने सतीप्रथा, दास प्रथा एवं कन्या वध, दहेज प्रथा आदि पर रोक लगाने के आदेश जारी किये।
  • महाराजा रामसिंह को वयस्क होने के बाद शासन के समस्त अधिकार दिये गये। 1857 ई. के स्वतंत्रता आन्दोलन में महाराजा रामसिंह ने अंग्रेजों की भरपूर सहायता की। अंगेजी सरकार ने इन्हें सितार-ए-हिन्द कीउपाधि प्रदान की।
  • 1870 ई. में गवर्नर जनरल एवं वायसराय लॉर्ड मेयो ने जयपुर एवं अजमेर की यात्रा की।
  • दिसम्बर, 1875 ई. में गवर्नर जनरल नार्थब्रुक तथा फरवरी, 1876 ई. प्रिंस अल्बर्ट ने जयपुर की यात्रा की। उनकी यात्रा की स्मृति में जयपुर में अल्बर्ट हॉल (म्यूजियम) का शिलान्यास प्रिंस अल्बर्ट के हाथों          करवाया गया तथा जयपुर को गुलाबी रंग (1835 – 1880 ई.) से  रंगवाया ।

  • इनके समय सन् 1845 में जयपुर में महाराजा कॉलेज तथा संस्कृत कॉलेज का निर्माण हुआ। महाराजा रामसिंह के काल में जयपुर की काफी तरक्की हुई। 1880 ई. में इनका निधन हो गया।
  • जयपुर के सवाई प्रतापसिंह ने 1799 ई. में हवामहल का निर्माण करवाया। हवामहल में 953 खिड़कियाँ है तथा यह पाँच मंजिला है।
  • जयपुर के जगतसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सन्धि की थी।
  • जयपुर राजाओं की छतरियाँ गेटोर (नाहरगढ़ के पास) के नाम से जानी जाती है।
  • जयपुर के नाहरगढ़ किले में एक जैसे नौ महल है।

अन्यवंश

(हाड़ाझालाभाटीजाटयदुवंशीवागड़केगुहिल)

अलवरराज्यकाइतिहास

  • 11वीं सदी में अलवर का क्षेत्र (मेवात) अजमेर के चौहानों के अधीन था। पृथ्वीराज चौहान की पराजय (1192 ई.) के बाद मेवाती स्वतंत्र हो गये। 1527 ई. में खानवा के युद्ध के बाद यह क्षेत्र मुगल साम्राज्य का अंग हो गया।
  • बाद में यह जयपुर राज्य का अंग हो गया। सन् 1671 में जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह ने मौजमाबाद के कछवाह सामंत कल्याणसिंह नरुका को माचेड़ी की रियासत प्रदान की। 1775 ई. में प्रतापसिंह ने भरतपुर राज्य से अलवर छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया। तभी से यह अलवर राज्य बन गया।
  • 1803 ई .में राव राजा बख्तावर सिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। सन् 1815 में यहाँ के शासक बख्तावर सिंह की मृत्यु के बाद उसके दो उत्तराधिकारी (विनयसिंह व बख्तावरसिंह) एक साथ गद्दी पर बैठे तथा दोनों अल्पवयस्क राजा बराबर के शासक थे।

  • कम्पनी सरकार ने भी दोनों को बराबर का शासक होने की मान्यता दे दी। परन्तु बाद में विनयसिंह (बन्नेसिंह) के दबाव से बख्तावरसिंह को कुछ परगनों की जागीर देकर अलवर के शासक पद से हटा दिया गया।
  • 1857 की क्रांति के समय विनयसिंह ही अलवर का शासक था। यहाँ के परवर्ती शासक महाराज जयसिंह ने नरेन्द्र मण्डल के सदस्य के रूप में गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया। नरेन्द्र मंडल को यह नाम महाराजा जयसिंह ने ही दिया था।
  • अलवर नरेश जयसिंह को उनकी सुधारवादी नीतियों के कारण अंग्रेजी सरकार ने 1933 ई. में तिजारा दंगों के बाद पद से हटाकर राज्य से ही निष्कासित कर दिया था। वे यूरोप चले गए, वहीं पेरिस में सन् 1937 में उनका देहान्त हुआ।
  • 1938 ई. में अलवर में प्रजामण्डल की स्थापना हुई। देश स्वतंत्र होने के बाद अलवर का मत्स्य संघ में विलय हो गया जो मार्च, 1949 में राजस्थान में शामिल हो गया।

कोटाराज्यकाइतिहास

  • कोटा प्रारम्भ में बून्दी रियासत का ही एक भाग था। यहाँ हाड़ा चौहानों का शासन था। शाहजहाँ के समय 1631 ई. में बून्दी नरेश राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का पृथक् राज्य देकर उसे बून्दी से स्वतंत्र कर दिया। तभी से कोटा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
  • कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्रण में था, जिसे बून्दी के चौहान वंश के संस्थापक देवा के पौत्र जैत्रसिंह ने मारकर अपने अधिकार में कर लिया।
  • कोटिया भील के कारण इसका नाम कोटा पड़ा। माधोसिंह के बाद उसका पुत्र यहाँ का शासक बना जो औरंगजेब के विरूद्ध धरमत के उत्तराधिकार युद्ध में मारा गया।

झालाजालिमसिंह (1769-1823 ई.)

  • कोटा का मुख्य प्रशासक एवं फौजदार था। वह बड़ा कूटनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक था। मराठों, अंग्रेजों एवं पिंडारियों से अच्छे संबंध होने के कारण कोटा इनसे बचा रहा।
  • दिसम्बर, 1817 ई. में यहाँ के फौजदार जालिमसिंह झाला ने कोटा राज्य की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। रामसिंह के समय सन् 1838 ई. में महारावल झाला मदनसिंह जो कि कोटा का दीवान एवं फौजदार था तथा झाला जालिमसिंह का पौत्र था, को कोटा से अलग कर ‘झालावाड़‘ का स्वतंत्र राज्य दे दिया गया।
  • इस प्रकार 1838 ई. में झालावाड़ एक स्वतंत्र रियासत बनी। यह राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा बनायी गई आखिरी रियासत थी। इसकी राजधानी झालरापाटन बनाई गई।
  • 1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद मार्च, 1948 में कोटा राजस्थान संघ में विलय हो गया और कोटा महाराव भीमसिंह इसके राजप्रमुख बने एवं कोटा राजधानी। बाद में इसका विलय वर्तमान राजस्थान में हो गया।

भरतपुरराज्यकाइतिहास

  • राजस्थान के पूर्वी भाग-भरतपुर, धौलपुर, डीग आदि क्षेत्रों पर जाट वंश का शासन था। यहाँ जाट शक्ति का उदय औरंगजेब के शासन काल से हुआ था।
  • धीरे-धीरे जाट शक्ति संगठित होती गई और औरंगजेब की मृत्यु के आसपास जाट सरदार चूड़ामन ने थून में किला बनाकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था।
  • चूड़ामन के बाद बदनसिंह को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह ने डीग की जागीर दी एवं ‘ब्रजराज‘ की उपाधि प्रदान की।
  • बदनसिंह के पुत्र सूरजमल ने सोधर के निकट दुर्ग का निर्माण करवाया जो बाद में भरतपुर केशव दुर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बदनसिंह ने उसे अपनी राजधानी बनाया। इसने जीते जी अपने पुत्र सूरजमल को शासन की बागडोर सौंप दी।
  • सूरजमल ने डीग के महलों का निर्माण करवाया। सूरजमल ने 12 जून, 1761 ई. को आगरे के किले पर अधिकार कर लिया। वह 1763 ई. में नजीब खाँ रोहिला के विरूद्ध हुए युद्ध में मारा गया।
  • उसके बाद उसका पुत्र जवाहरसिंह भरतपुर का राजा बना। इसने विदेशी लड़ाकों की एक पेशेवर सेना तैयार की। 29 सितम्बर, 1803 ई. में यहाँ के शासक रणजीतसिंह ने अंग्रेजों से सहायक संधि कर ली। स्वतंत्रता के बाद भरतपुर का मत्स्य संघ में विलय हुआ जो 1949 में राजस्थान में शामिल हो गया।

जैसलमेरराज्यकाइतिहास

  • जैसलमेर में भाटी वंश का शासन था जो स्वयं को चन्द्रवंशी यादव एवं श्रीकृष्ण के वंशज मानते हैं। यादवों के ही एक वंशज भट्टी ने 285 ई. में भटनेर (हनुमानगढ़) के किले का निर्माण कर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। इसके वंशज भाटी कहलाने लगे।
  • भट्टी के वंशज मंगलराव को गजनी के शासक ढुण्डी द्वारा परास्त होने के कारण जैसलमेर क्षेत्र में आना पड़ा।
  • उसने तन्नौट में भाटी वंश की दूसरी राजधानी स्थापित की। बाद में इसी वंश के शासक देवराज भाटी ने लोद्रवा को पँवार शासकों से छीनकर तन्नौट के स्थान पर अपनी नई राजधानी बनाई 1155 ई. में रावल जैसलदेव भाटी ने जैसलमेर दुर्ग का निर्माण करवाया तथा अपनी राजधानी जैसलमेर स्थानान्तरित की। यहाँ के परवर्ती शासक हरराज ने अकबर के नागौर दरबार में मुगल अधीनता स्वीकार कर अपनी पुत्री का विवाह अकबर से किया।
  • औरंगजेब के समय यहाँ का शासन महारावल अमरसिंह के हाथों में था जिन्होंने ‘अमरकास‘ नाला बनाकर सिंधु नदी का पानी अपने राज्य में लाया।
  • 1818 ई. में यहाँ के शासक मूलराज ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा अंग्रेजों को दे दिया।
  • 30 मार्च, 1949 ई. को जैसलमेर रियासत का राजस्थान में विलय हो गया। यहाँ के अंतिम शासक जवाहरसिंह के काल में राजा की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण घटिना घटित हुई, जिसमें यहाँ के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सागरमल गोपा को जेल में अमानवीय यातनाएँ देकर 3 अप्रेल, 1946 को जलाकर मार डाला गया।

करौलीकाइतिहास

  • यादवों का अन्य राज्य करौली में था। इस रियासत का कुछ भाग मत्स्य जनपद में तथा कुछ भाग सूरसेन जनपद में आता था।
  • करौली में यदु वंश के शासन की स्थापना विजयपाल यादव द्वारा 1040 ई. में की गई। यहाँ के शासक तिमनपाल ने तिमनगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। मुहम्मद गौरी ने यहाँ के शासक कुँवरपाल को हरा तिमनगढ़ दुर्ग पर कब्जा कर लिया था।
  • 1327 ई. में अर्जुनपाल यादव ने मुस्लिमों से छीनकर यहाँ पुनः यादवों का शासन स्थापित किया। उसने 1348 ई. में कल्याणपुर नगर बसाया जो अब करौली के नाम से जाना जाता है।
  • 1650 ई. में धर्मपाल-द्वितीय ने करौली को अपनी राजधानी बनाया। 1817 ई. में करौली नरेश ने ब्रिटिश सरकार से संधि कर ली तथा करौली अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।
  • सन् 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन में कोटा नरेश को स्वतंत्रता सेनानियों के कब्जे से मुक्त कराने हेतु करौली राज्य की सेना भेजी गई थी।
  • स्वतंत्रता के बाद करौली रियासत मत्स्य संघ में मिल गई जो अंततः राजस्थान का हिस्सा बनी। उसके बाद करौली को सवाईमाधोपुर जिले में शामिल किया गया। 19 जुलाई, 1997 को करौली पृथक् जिला (32वाँ) बना।

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