
गुप्त साम्राज्य (Gupta Empire)
गुप्त काल को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्ण युग’ (Golden Age) कहा जाता है। मौर्यों के पतन के बाद यह हुई भारत की राजनीतिक एकता को गुप्त शासकों ने पुनः स्थापित किया तथा लगभग सम्पूर्ण भारत को एक राजनीतिक छत्र के अधीन किया एवं शक्तिशाली विदेशी आक्रान्ताओं का सफलतापूर्वक सामना कर भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा। गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था। 275 ई. के लगभग गुप्त वंश के शासन की स्थापना की थी। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
गुप्त शासकों की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं जो निम्न हैं- के.पी. जायसवाल इन्हें शूद्र/जाट, एलन, आर.के. मुखर्जी और रोमिला थापर- वैश्य, गौरीशंकर ओझा व रमेशचन्द्र मजूमदार- क्षत्रिय तथा हेमचन्द्र राय चौधरी इन्हें ब्राह्मण मानते हैं।
गुप्तकाल के प्रमुख स्रोत:
साहित्यिक स्रोत-
नाटक – विशाखदत्त रचित देवीचन्द्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, भासदेव कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान-शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् आदि।
महाकाव्य – कालिदास रचित कुमारसम्भवम्, रघुवंशम्, मेघदूत व ऋतुसंहारम्।
स्मृतियाँ – बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति।
पुराण – वायु पुराण, स्मृति पुराण, शिव पुराण, ब्रह्मा पुराण।
जैन साहित्य – जिनसेन रचित हरिवंश पुराण।
गुप्त वंश के शासक
शासक | NCERT पुस्तक | मा. शिक्षा बोर्ड, राज. पुस्तक | राज. ग्रंथ अकादमी का पुस्तक |
श्रीगुप्त | 319 से 334 ई. | 319-325 ई. | 320-335 ई. |
चन्द्रगुप्त | 335-380 ई. | 325-375 ई. | 335-375 ई. |
चन्द्रगुप्त (II) | 380-412 ई. | 375-412 ई. | 375-414 ई. |
कुमारगुप्त | 455-467 ई. | 412-455 ई. | 414-455 ई. |
स्कन्दगुप्त | 455-467 ई. | 455-467 ई. |
प्रमुख शासक और घटनाएं
श्रीगुप्त
श्रीगुप्त गुप्त वंश का संस्थापक व प्रथम शासक था। सम्भवतः अयोध्या गुप्त वंश की प्रारम्भिक राजधानी थी।
चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार उसने महाराजा की पदवी धारण की थी। इत्सिंग ने श्रीगुप्त के लिए ‘चेलिकैतो’ नाम का उल्लेख किया है। उसके अनुसार श्रीगुप्त ने चीनी यात्रियों के लिए नालंदा के पूर्व में स्थित ‘मृगशिखावन’ के निकट एक मंदिर बनवाया था।
घटोत्कच
श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी था इसने भी ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की।
गुप्त-लिच्छवि संबंध घटोत्कच के समय ही प्रारम्भ हुये।
चन्द्रगुप्त प्रथम
गुप्त वंश का प्रतापी शासक। चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यारोहण के अवसर पर गुप्त-सम्वत् का प्रारम्भ 319-20 ई. में किया था।
अन्य महत्वपूर्ण जानकारी
विदेशी साहित्य– फाह्यान का ‘फा-की’ की तथा ह्वेनसांग (युआन च्वांग) का ‘सि-यु-की’ नामक ग्रन्थ ह्वेनसांग व इत्सिंग के यात्रा वृत्तांत।
पुरातात्विक स्रोत– प्रयाग और एरण अभिलेख– चन्द्रगुप्त के प्रयाग एवं ‘एरण अभिलेख’, चन्द्रगुप्त-द्वितीय का महरोली स्तम्भ-लेख तथा उदयगिरी गुहा अभिलेख, कुमारगुप्त-प्रथम का मंदसौर लेख, गया शिलालेख, भित्तरी स्तम्भ-लेख, जूनागढ़ का जूनागढ़ प्रशस्ति, भित्तरी स्तम्भ-लेख, गढ़वागुटे के लेख आदि।
मुद्राएं– गुप्त युग से भारतीय मुद्रा के इतिहास में नवीन युग की शुरुआत हुई। समुद्र गुप्त की मुद्राओं से उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने की जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त प्रथम की मुद्राओं से उसके लिच्छवि-विवाह के सम्बन्धों का पता चलता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय की रजत मुद्राएँ शक मुद्राओं से साम्यता रखती हैं। स्पष्ट है कि उसने शकों को परास्त किया।
- गुप्त संवत् व शक संवत् के मध्य 241 वर्षों का अंतर पाया जाता है। शक संवत की स्थापना 78 ई. में कनिष्क ने की थी। माना जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने 58 ई. पू. में विक्रम संवत की स्थापना की थी।
- चंद्रगुप्त प्रथम, गुप्तवंश का प्रथम ऐसा शासक था जिसने अपने बाहुबल के आधार पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने भारत में सोने के सिक्के चलाये। उसने वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपनी कूटनीतिक एवं राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। उसने लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर उत्तर भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य-लिच्छवी राज्य (वैशाली में) का समर्थन प्राप्त कर लिया। लिच्छवियों के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को गुप्त शासकों ने इतना अधिक महत्व दिया कि न केवल चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने सिक्के पर ‘लिच्छवयः’ शब्द अंकित किया व कुमार देवी की आकृति बनवाई वरन् समुद्रगुप्त ने भी लिच्छवी दोहित्र की उपाधि ग्रहण की।
- वसुबंधु चन्द्रगुप्त प्रथम का समकालीन था।
- चंद्रगुप्त प्रथम अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को सत्ता की बागडोर सौंप कर सेवानिवृत हो गया।
- चंद्रगुप्त का राज्य प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्वी भाग तक विस्तृत था।
समुद्रगुप्त
- चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। यह लिच्छवी रानी कुमारदेवी का पुत्र था। समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के 9 व दक्षिण भारत के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसकी विजय यात्राओं की सफलता के आधार पर विन्सेंट स्मिथ ने इन्हें ‘भारतीय नेपोलियन’ कहा है। हरिषेण समुद्रगुप्त का मंत्री एवं दरबारी कवि था।
- प्रयाग प्रशस्ति : समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का विवरण उसके दरबारी कवि एवं संधिविग्राहिक (युद्ध एवं शांति का मंत्री) हरिषेण द्वारा लिखित प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है। इस प्रशस्ति को अशोक के कौशाम्बी स्तम्भ पर उत्कीर्ण कराया गया था। बाद में इस स्तम्भ को कौशाम्बी से लाकर इलाहाबाद (प्रयाग) के किले में खड़ा कराया गया। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि एवं संस्कृत भाषा की चम्पू-शैली (जिसमें गद्य और पद दोनों होते हैं) में लिखा गया है। यह अभिलेख समुद्रगुप्त के जीवनकाल का ही है।
- इस अभिलेख से समुद्रगुप्त के जीवन एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।
- इसके अलावा मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित ‘एरण’ अभिलेख तथा विभिन्न प्रकार की मुद्राओं जैसे- गरुड़ प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, परशु प्रकार, अश्वमेध प्रकार, व्याघ्रहणन एवं वीणावादन प्रकार की मुद्राओं से उसके संबंध में जानकारी मिलती है।
- इलाहाबाद के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने सबसे पहले नागवंश के दो राजाओं अच्युत और नागसेन को परास्त किया। इसे आर्यावर्त का प्रथम युद्ध कहा जाता है। उसके बाद कोटकुलज नामक राजा को हराकर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। अब गुप्तों की राजधानी पाटलिपुत्र में आ गई और उसके बाद उसने पाँच चरणों में अपना विजय अभियान पूरा किया। प्रथम चरण में उन्होंने गंगा-दोआब के नौ राज्यों (आर्यावर्त) का समूल नाश किया तथा प्रत्यक्ष रूप से अपने साम्राज्य में मिला लिया। इन राज्यों में अहिच्छत्र, विदिशा एवं चम्पावती के राज्य भी थे। इसे आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध कहा गया। द्वितीय चरण में उसने पंजाब के गणतंत्र तथा कुछ सीमावर्ती राज्यों को जीता। तृतीय चरण में उसने विंध्य क्षेत्र में आटविक राज्यों पर विजय प्राप्त की। फिर चौथे चरण में उसने पल्लव राज्य समेत दक्षिण के बारह राज्यों को जीता तथा अंतिम एवं पाँचवे चरण में उत्तर पश्चिम में कुछ विदेशी राज्यों को पराजित किया।
- प्रयाग प्रशस्ति में उसकी विजय नीति को निम्न प्रकार वर्णित किया है-
- प्रसभोद्धरण-नए राज्यों को जीतकर बलपूर्वक अपने राज्य में मिलाना। यह नीति उसने आर्यावर्त के राज्यों के प्रति अपनाई।
- ग्रहणमोक्षानुग्रह-राज्यों को जीतकर पुराने शासकों को ही लौटा देना। दक्षिणापथ के राज्यों के प्रति यह नीति अपनाई गई। इस नीति को राय चौधरी ने धर्म विजय की संज्ञा दी है।
- परचारीकरण-सेवक बनाना। इस नीति का पालन उसने मध्यभारत के आटविक राज्यों के साथ किया।।
- करदानज्ञाकरण प्रणामागमन कर एवं दान देना तथा आज्ञा का पालन करना तथा समुद्रगुप्त के पास अभिवादन हेतु आना। यह नीति सीमा स्थित राज्यों व गणराज्यों के प्रति अपनाई गई।
- भ्रष्टराज्योत्सन्न राजवंश प्रतिष्ठ- हारे हुए राज्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करना।
- आत्मनिवेदन कन्योपायदान-समर्पण व कन्यादान की नीति। इस नीति का पालन उसने विदेशी राजाओं के साथ किया।
- गणराज्यों पर विजय मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काम, खार्परिक आदि प्रमुख गणराज्य थे। इन राज्यों ने सर्वकरदान, आज्ञाकरण और प्रणामागमन द्वारा समुद्र गुप्त को संतुष्ट किया।
- विदेशी राज्यों पर विजय शक, कुषाण तथा मुरूण्ड आदि राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की।
- अपने विजय अभियान को पूरा करने के पश्चात उसने अश्वमेध यज्ञ संपन्न किया तथा ‘अश्वमेध पराक्रम’ की उपाधि धारण की और अश्वमेध प्रकार के सिक्के जारी किये। प्रभावती गुप्त (चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री) के पूना अभिलेख में समुद्रगुस को अनेक अश्वमेध यज्ञ करने वाला (अनेकाश्वमेध याजिन) कहा गया है।
- अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल’ साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। समुद्रगुप्त स्वयं कुशल वीणा वादक था। अपने कुछ सिक्कों पर उसने स्वयं को वीणा पर गाते हुए दिखाया है।
- हरिषेण ने उसे ‘शास्त्र तत्वार्थभर्तु’ कहा है।
- समुद्र गुप्त ने अनेक विरुद धारण किये, जिनकी जानकारी सिक्कों से मिलती है। जैसे अप्रतिरथ, व्याघ्घ्रपराक्रमांक, पराक्रमांक। विद्वानों ने उसे ‘कविराजा’ की उपाधि से भी सम्मानित किया था। समुद्रगुप्त को ‘धर्म की प्राचीर’ भी कहा गया है। प्रयाग प्रशस्ति में उसे ‘स्वभुजबल पराक्रमैकबन्धो’ कहा गया है।
- समुद्रगुप्त धार्मिक रूप से सहिष्णु था। वैष्णव धर्म में अपार श्रद्धा होते हुए भी उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान ‘वसुबंधु’ को अपना मंत्री बनाया। ‘अभिधर्मकोशकारिका’ वसुबंधु की प्रमुख रचना है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य
- समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच एक दुर्बल शासक रामगुप्त भी था।
- समुद्रगुप्त के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तवंश का श्रेष्ठतम शासक था। चंद्रगुप्त द्वितीय की माता का नाम दत्तदेवी था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल के बारे में जानकारी के अन विभिन्न स्रोत भी मिलते हैं, जिनमें कालीदास के ग्रंथ चीनी यात्री फाह्यान का यात्रा वृतांत, मथुरा का मंत्र लेख, उदयगिरि के दो लेख, इलाहाबाद का गढ़वा अभिलेख तथा साँची से प्राप्त अभिलेख के साथ विभिय प्रकार की मुद्राएँ प्रमुख हैं। मथुरा का स्तम्भ लेख मवमे पहला है। उदयगिरि का दूसरा अभिलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय के संधि विग्राहिक वीरसेन ने उत्कीर्ण कराया था। इलाहाबाद के गढ़वा अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजधानी पाटलिपुत्र का भी उल्लेख है।
- चन्द्रगुप्त ने शासक बनने के बाद उत्तरापथ और अवनि के गणराज्यों को समाप्त कर विक्रमादित्य की उपाधि धागा की। चन्द्रगुप्त द्वितीय को अनुश्रुतियों में शकारि कहा गया है। उसने शकों का दमन किया था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के अन्य नाम- देवगुप्त, देवराज, देवश्री थे।
- दिल्ली में कुतुबमीनार के पास स्थित मेहरौली लौह स्तम्प में शक क्षत्रप रूद्र सिंह तृतीय पर चन्द्रगुप्त विक्रमादिल की विजय का वर्णन है। यह गुप्तकालीन धातुकला का
- सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
- वाहलीक राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त ने व्यान नदी के पास विजयस्तम्भ की स्थापना की थी।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की पहचान विजेता तथा कुशल प्रशासक के साथ विद्वान, कलाप्रेमी तथा विद्वानों को आश्रय देन वाले शासक के तौर पर भी है। इसके समय पाटलिपुत्र और उज्जैयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थे।
- उसके दरबार में नौ विद्वान थे, जिन्हें ‘नवरत्न’ कहा गया है- कालिदास, धनवन्तरि, बेताल भट्ट, अमरसिंह, घटकपर, वाराहमिहिर, वररुचि, क्षपणक एवं शंकु ।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अनेक राजाओं को अपना मित्र व हितैषी बनाया। प्रमुख विवाह-
- नाग-राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह।
- पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय से।
- कुंतल नरेश से वैवाहिक संबंध बनाये।
- ध्रुवस्वामिनी से विवाह ।
- चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव धर्मावलम्बी था। उसके अभिलेखों और मुद्राओं में उसे ‘परमभागवत’ कहा गय है परन्तु वह अन्य धमों के प्रति सहिष्णु भी था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। फाह्यान भारत में लगभग 12 वर्ष (399-411 ई. तक रहा।
- फाह्यान भारत में स्थल मार्ग से होते हुए गोबी मरुदेश, खोतान, पामीर एवं स्वात घाटी को पार करता हुआ गंधार आया था, परन्तु वापस यह समुद्री मार्ग से लौटा था। चीन वापस लौटकर उसने अपना यात्रा वृतांत ‘फा-को-की’ नाम से लिखा उसमें फाह्यान ने पाटलिपुत्र का वर्णन किया है।
कुमारगुप्त-प्रथम
- कुमारगुप्त ने ‘महेन्द्रादित्य’ की उपाधि धारण की व चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद शासक बना।
- यह चन्द्रगुप्त द्विती य की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका सबसे बड़ा पुत्र था। कुमारगुप्त के शासन को जानने के कई स्रोत उपलब्ध है, जिनमें उसके विभिन्न अभिलेख भी शामिल हैं। इनमें विलसंड (भिलसंड), गड्या, मन्दसोर, करमदण्डा, मथुरा, साँची, आदि लेख प्रमुख हैं।
- गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के मिलते हैं।
- कुमारगुत के समय नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जो आगे चलकर बौद्ध धर्म व शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बना।
- कुमारगुप्त के समय पुष्यमित्रों का आक्रमण हुआ, जिसकी जानकारी स्कन्दगुप्त के ‘भितरी अभिलेख’ से मिलती है।
- कुमारगुत ने श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रादित्य, शक्रादित्य तथा
- अश्वमेध महेन्द्र आदि उपाधियाँ धारण की। कुमारगुप्त ने अपने नाम के सिके डलवाये और अश्वमेध
- यज्ञ करवाया।
- कुमारगुप्त ने सर्वप्रथम गुप्त मुद्रा पर गरुड़ के स्थान पर मयूर को अंकित करवाना प्रारम्भ किया।
स्कन्दगुप्त
- गुप्त वंश का अंतिम महान शासक स्कन्दगुप्त था। स्कंदगुप्त कुमारगुप्त का सुयोग्य उत्तराधिकारी था। स्कन्दगुप्त एक विशाल साम्राज्य का मालिक था। स्कन्दगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में सौराष्ट्र (काठियावाड़) से लेकर पूर्व में बंगाल और उत्तर भारत के मध्य देश तक फैला हुआ था। उसके शासन के संबंध में जूनागढ़ अभिलेख, कहाँम स्तंभ लेख, बिहार स्तंभ लेख तथा इन्दौर ताम्र पत्र तथा भितरी अभिलेख से सूचना मिलती है। इसे शासन की बागडोर संभालते ही हूणों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। स्कन्दगुप्त ने हूणों का मुकाबला बुद्धिमानी और बोरतापूर्वक किया। हण मध्य एशिया की एक जाति थी। इनमें तोरमाण और मिहिर कुल प्रमुख आक्रान्ता थे।
- हूण आक्रमण के बाद शनै: शनैः गुष्ठों की शक्ति क्षीण होती गई। गुरुयुग शांति, समृद्ध और चतुर्मुखी विकास का युग
- था। कुछ इतिहासविदों ने इस युग की ‘आगस्टन युग’ तथा ‘पैरिक्लियन युग’ से तुलना की है।
- स्कन्दगुप्त का सबसे महत्वपूर्व अभिलेख ‘भितरी अभिलेख’ है, जिससे स्कन्दगुप्त के शासन की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख में उसे ‘गुप्तवंश का वीर’ कहा गया है।
- स्कन्दगुप्त ने पर्णदत्त के नेतृत्व में गिरनार पर्वत पर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई, जिसका निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य के समय हुआ था। इसकी जानकारी 456 ई. के जूनागढ़ अभिलेख से होती है। पर्षदत ने यह दायित्व अपने पुत्र चक्रपालित को सौंपा, जिसने इस झील पर विष्णु मंदिर भी बनवाया।
- स्कन्दगुप्त ने 466 ई. में चीनी राजा के दरबार में एक दूत भेजा।
- मुद्राएँः स्कन्दगुप्त ने कई प्रकार की मुद्राएँ चलाई जैसे-धनुर्धर प्रकार, बुल प्रकार, राजा व लक्ष्मी प्रकार, छत्र प्रकार, गरुड़ प्रकार, अश्वारोही प्रकार आदि।
- 467 ई. में स्कन्दगुप्त की मृत्यु हुई।
- परवर्ती गुप्त शासकः
- स्कंदगुप्त का निकटतम उत्तराधिकारी उसका सौतेला भाई पुरुगुप्त था। पुरुगुप्त ने केवल ‘धनुर्धर प्रकार’ के सोने के सिके चलाए। उसके राज्य में गुप्त साम्राज्य का हास हुआ।
- पुरुगुष्ठ से अंतिम गुप्त शासक विष्णुगुप्त (468-570 ई.) तक इस वंश में अनेक शासक हुए। जैसे- कुमारगुप्त द्वितीय, कुमारगुत तृतीय, बुधगुप्त आदि। ये साम्राज्य की सुरक्षा करने में विफल रहे।
- गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणः
- प्रशासनिक अकुशलता, कमजोर उत्तराधिकारी एवं गतिहीन अर्थव्यवस्था गुप्त साम्राज्य के हास के कुछ मूलभूत कारण थे। साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार, विदेशी आक्रमण एवं आन्तरिक विद्रोह इसे पतन के और निकट लाया।
- स्कन्दगुप्त व हूणों के संघर्ष का उल्लेख भितरी अभिलेख में है। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद हूण आक्रमणकारियों तोरमाण व मिहिरकुल ने पुनः आक्रमण किये। इन हुण आक्रमणकारियों ने गुप्त साम्राज्य की जीवन शक्ति को नष्ट कर अपना शासन स्थापित किया। गुप्त उत्तराधिकारी कमजोर सिद्ध हुए एवं हुण आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके।
- केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होते ही अधीनस्थ सामंतों ने पृथकतावादी रुख अपनाकर साम्राज्य की शक्ति को कम कर दिया। उत्तरी एवं दक्षिण-पूर्वी बंगाल में नियुक्त राज्यपालों ने स्वयं को गुप्त शासन के नियंत्रण से अलग कर लिया। मौखरियों ने बिहार एवं उत्तरप्रदेश में सत्ता पर
अधिकार किया एवं कन्नौज को अपनी राजधानी बनायी। परवर्ती गुप्त शासकों का अधिकार क्षेत्र मगध तथा बंगाल के कुछ भू-भाग तक ही सीमित रह गया।
गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था विकेन्द्रीकरण तथा स्थानीय स्वायत्त शासन प्रणाली पर आधारित थी। इसके अंतर्गत प्रान्तपतियों को विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते थे। प्रान्तीय शासकों को अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह स्थिति अत्यधिक लाभदायक सिद्ध हुई।
यशोधर्मन का उदयः मौखरी वंश के शासक यशोधर्मन ने मालवा व उसके आसपास के क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। इससे गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।
आर्थिक ह्यस ने भी गुप्त वंश के पतन में योगदान दिया।
गुप्तकाल की जानकारी हेतु विभिन्न अभिलेख
प्रयाग प्रशस्तिः कवि हरिषेण द्वारा रचित ‘प्रयाग प्रशस्ति’ में हमें समुद्रगुप्त की दिग्विजय और उसकी महत्ता के संबंध में वर्णन मिलता है। इसमें समुद्रगुप्त को चंद्रगुप्त और कुमारदेवी का पुत्र, घटोत्कच का पौत्र तथा श्रीगुप्त का प्रपौत्र बताया गया है।
भितरी अभिलेख – इसमें स्कंदगुप्त द्वारा हूणों की पराजय तथा पुष्यमित्रों के साथ हुए युद्ध का वर्णन मिलता है। यह अभिलेख गाजीपुर (उत्तरप्रदेश) में स्थित है।
मंदसौर का सूर्य मंदिर अभिलेख संस्कृत विद्वान वत्सभट्टी द्वारा रचित इस अभिलेख में मंदसौर के शासक बन्धुवर्मा और सूर्यमंदिर के निर्माण का उल्लेख है। यह मध्यप्रदेश में दशपुर में स्थित है। इस प्रशस्ति में कुल 44 श्लोक हैं। बन्धुवर्मा कुमारगुप्त प्रथम का समकालीन था।
विलसढ़ का स्तंभ अभिलेख इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक की वंशावली है। यह कुमारगुप्त प्रथम का पहला अभिलेख है।
बिहार का स्तंभलेख इसमें कुमारामात्य अग्रहारिक, शौल्किक और गैल्मिक जैसे अफसरों के नाम मिलते हैं।
जूनागढ़ अभिलेख – इसमें गुप्त संवत का उल्लेख है। यह स्कंदगुप्त का महत्वपूर्ण अभिलेख है। इसमें हूण आक्रमण की सूचना मिलती है तथा स्कन्दगुप्त के शासनकाल की प्रथम तिथि गुप्त संवत 136-455 ई. उत्कीर्ण मिलती है।
कहौम का स्तंभ लेख इसमें जैन तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापित करने का वर्णन मिलता है।
उदयगिरि शिलालेख यह शिलालेख गुप्त संवत 82 में सनकानिक नामक सामंत ने अंकित करवाया।
मानकुंवर अभिलेख – कुमारगुप्त प्रथम का इलाहाबाद में स्थित यह लेख बुद्धिमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा स्थापित बुद्ध की मूर्ति पर उत्कीर्ण है। इसमें कुमारगुप्त को महाराज कहा गया है।
तुमैन अभिलेख – कुमारगुप्त प्रथम से संबंधित अभिलेख। इसमें कुमारगुप्त को शरदकालीन सूर्य की भाँति बतलाया गया है। यह मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित है।
एरण अभिलेख – यह 510 ई. का भानुगुप्त का अभिलेख है, जिसमें प्रथम बार सतीप्रथा का अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होता है। इसमें राजा गोपराज की मृत्यु और उसकी पत्नी के सती होने का जिक्र है। यह सागर (मध्यप्रदेश) में स्थित है। यह खण्डित अवस्था में है। इसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी बताया गया है। अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम दत्तदेवी मिलता है।
गुप्तों के अधिकांश अभिलेख कोशाम्बी शैली की ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं।
गुप्त प्रशासन (Gupta Administration)
गुप्त प्रशासन की प्रमुख विशेषता सत्ता का विकेन्द्रीकरण था। गुप्त वंश का विशाल साम्राज्य सामन्तीय व्यवस्था में विभक्त था।
केन्द्रीय प्रशासन (Central Administration)
राजा – प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सैनिक मामलों का प्रधान था लेकिन उसे कानून बनाने का अधिकार नहीं था। सम्राट का पद वंशानुगत था। ज्येष्ठ पुत्र को पूर्ण योग्यता के आधार पर ही ‘युवराज’ घोषित किया जाता था।
मंत्रिपरिषद – राजकार्य में सम्राट की सहायता करने के लिए मंत्री या अमात्य होते थे। मंत्रिपरिषद के पद वंशानुगत होते थे। मंत्रिपरिषद एक अस्पष्ट इकाई प्रतीत होती है। मंत्री विभिन्न पदों से जाने जाते थे जैसे- मंत्री, अमात्य, सचिव।
गुप्तकालीन प्रमुख अधिकारी
अधिकारी | विवरण |
महासेनापति | सेना का सर्वोच्च अधिकारी |
कुमारमात्य | प्रशासनिक अधिकारी |
रणभंडागारिक | सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला |
महादण्डनायक | युद्ध व न्याय विभाग का कार्य देखने वाला |
महाबलाधिकृत | सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी |
महाअश्वपति | अश्वारोही सेना का प्रधान |
महापिलुपति | हाथी सेना का प्रधान |
दण्डपाशिक | पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
विनयस्थितिकस्थापक | धर्म संबंधी मामलों का प्रधान, जो सार्वजनिक मंदिरों का प्रबंध करता था। |
महाप्रतिहार | राजप्रसाद का मुख्य सुरक्षा अधिकारी |
भंडागाराधिकृत | कोष का प्रधान |
अग्रहारक | दान विभाग का प्रधान |
दण्डपाशिक | पैदल सेना और घुड़सवारों का अध्यक्ष |
दौवारिक | दुर्गों की रक्षा का अधिकारी |
महाक्षपटलिक | दस्तावेजों और अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी |
औपरिक | करों का संग्रह करने वाला |
न्याय राज | न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश |
प्रान्तीय प्रशासन (Provincial Administration)
गुप्त साम्राज्य विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था। केन्द्र द्वारा शासित क्षेत्र की सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ कहलाती थी। राष्ट्र का शासक ‘गोप्ता’ होता था।
‘देश’ ‘भुक्ति’ में बंटा हुआ था। भुक्ति का प्रधान ‘उपरिक’ कहलाता था।
भुक्ति से छोटी इकाई ‘विषय’ थी, जिसका शासक ‘विषयपति’ था।
‘विषय’ ‘वीथियाँ’ में बंटा हुआ था। ‘वीथि’ की समिति में भू-स्वामियों एवं सैनिक कार्यों से संबद्ध व्यक्तियों को रखा गया था।
गुप्तकालीन मुद्राएं
गुप्तकाल में विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ प्रचलन में थीं:
गदमुद्रा: यह गरुड़ की आकृति वाली मुद्रा थी।
अश्वमेध प्रकार: यह अश्वमेध यज्ञ के प्रतीक के रूप में प्रचलित थी।
धनुर्धारी प्रकार: धनुष के साथ राजा की आकृति वाली मुद्रा।
व्याघहनन प्रकार: बाघ का शिकार करते राजा की आकृति।
सिंहनिदान प्रकार: सिंह के शिकार का दृश्य।
चक्रवर्ती प्रकार: सम्राट के रूप में राजा।
परशु प्रकार: परशु लिए हुए राजा।
चण्डन प्रकार: चण्डन की आकृति।
पर्वत प्रकार: पर्वत की आकृति।
कात्र्तिक प्रकार: कार्तिकेय की आकृति।
न्याय प्रशासन (Judicial Administration)
राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था। राजा के न्यायालय को सभा, संस्थितम अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था।
नारद स्मृति में गुप्तकाल में चार प्रकार के न्यायालय थे- 1. कुल, 2. श्रेणी, 3. गण, 4. राजकीय न्यायालय।
अपराध के अनुसार कम या अधिक अर्थदण्ड दिया जाता था। प्राणदण्ड और शारीरिक दण्ड प्राय: नहीं दिया जाता था।
महत्वपूर्ण तथ्य (Important Facts)
गुप्त प्रशासन-व्यवस्था के दौरान विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति तीव्र हो गई थी। गुप्त शासन प्रणाली में हमें सामंतवाद की विशेषताएँ मिलती हैं।
गुप्तकाल में दास प्रथा का प्रचलन था। नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।
प्राम भित्ति होने का प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से मिलता है।
गुप्तकाल में उज्जैन, भरुच, प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे।
गुप्तकाल में वस्तु उद्योग सर्वाधिक महत्वपूर्ण व विकसित था।
विदेशी व्यापार- गुप्तकाल में पूर्वी तट पर स्थित बदरगाहाँ-ताम्रलिप्ति, घेण्डशाला एवं कन्दरा से व्यापार दक्षिणी पूर्वी एशिया के साथ तथा पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच, सोपारा, कल्याण आदि बंदरगाहों से व्यापार भूमध्यसागर व पश्चिमी एशिया के साथ सम्भव होता था।