प्राचीन काल की कला, संस्कृति, साहित्य और स्थापत्य
Art Culture Literature and Architecture of Ancient Times


वैदिक संस्कृति

 

  • वेद शब्द ‘विद्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘जानना’। वैदिक साहित्य में निम्न शामिल हैं:

    1. चार वेद, (2) ब्राह्मण ग्रंथ, (3) आरण्यक, (4) उपनिषद, (5) वेदांग।

  • वेद: आर्यों के प्रमुख ग्रंथ वेद हैं जो संख्या में चार हैं- (1) ऋग्वेद, (2) सामवेद, (3) यजुर्वेद और (4) अथर्ववेद।

1. ऋग्वेद: ऋग्वेद आर्यों का प्रमुख ग्रंथ, प्राचीनतम और नित्य कहा जाता है। यह ऋग्वेद ही सबके उप-ग्रंथों में उपलब्ध है। ऋग्वेद में 1017 सूक्त और 11 बालखिल्य (कुल 1028 सूक्त) और 10580 मंत्र हैं। संपूर्ण ऋग्वेद 10 मंडलों में विभाजित है। इसमें 2 से 7 मंडल सर्वाधिक प्राचीन हैं। पहला एवं दसवां मंडल सबसे बाद में जोड़ा गया है। ऋग्वेद सभी वेदों में प्राचीनतम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें अधिकांश सूक्तों में देवताओं का आह्वान है। महर्षि विश्वामित्र द्वारा रचित तृतीय मंडल में सूर्य देवता-सावित्र को समर्पित प्रसिद्ध ‘गायत्री मंत्र’ है। यह आज भी महत्वपूर्ण मंत्र है। ऋग्वेद का प्रत्येक मंडल किसी ऋषि या उनके परिवार से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद का पाठ होता (होतु) नामक पुरोहित करते थे।

पाणिनी अपनी अष्टाध्यायी में ऋग्वेद की 21 शाखाएँ बतलाते हैं।

इस समय कुछ विदुषी स्त्रियां भी थीं, जिन्होंने ऋग्वेद के सूक्तों और मंत्रों की रचनायें की थीं। इनमें लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, शची, विश्वश्वरा, पोलामी और सिंकतानिवारी प्रमुख हैं।

ऋग्वेद के अनुसार आर्य सप्त-सैंधव/सम सिंधु (सात नदियों की भूमि) में बसे थे। ऋग्वेद में नदी सूक्त (10वीं मंडल) में निम्न नदियों का उल्लेख है –

  1. कुभा (आधुनिक काबुल नदी), (2) गोमती (गुमल नदी), (3) क्रुमु (कुर्रम), (4) गंगा, (5) यमुना, (6) सरस्वती- इसे ‘नदीतमा’ कहा गया है। (7) सतदु (8) हृपड़ी (आधुनिक घौगर नदी) (9) सिंधु व इसकी पाँच सहायक नदियां – वितस्ता (झेलम), (ii) अस्कितनी (चेनाब), (iii) परणी (रावी) (iv) विपासा (व्यास) (v) शतुद्री (सतलज)। सिंधु को ऋग्वेद में हिरण्यनी भी कहा गया है।


  • इसके अलावा महनुषा, शुखस्तु (वर्तमान स्वात), सुवसु आदि नदियों का उल्लेख है। नदी सूक्त की अंतिम नदी गोमती है।

2. यजुर्वेद: (यजु अर्थात् सुखों का वेद): इसमें यज्ञ के समय बोले जाने वाले मंत्रों एवं नियमों तथा विधियों का उल्लेख है। इस वेद में राजयूसूय एवं वाजपेय यज्ञों का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद के दो भाग हैं –

1. कृष्ण यजुर्वेद एवं (2) शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद अधिक प्राचीन है। इसमें सूक्तों (पद्य) के अलावा गद्य टिप्पणियां भी हैं। शुक्ल यजुर्वेद में केवल सूक्त (पद्य) हैं।

  • शुक्ल यजुर्वेद की चार संहिताएं – काणव, कपिष्ठल, मैत्रायणी एवं तैत्तिरीय संहिता है। शुक्ल यजुर्वेद में केवल एक संहिता – वाजसनेयी संहिता है। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं – काण्व एवं माध्यान्दिनी हैं। यजुर्वेद अर्थान्यु पुरोहितों की दिदीचका पुस्तिका है जो कर्मकाण्डों की नियमावली का पालन करते थे।

  • यजुर्वेद का अंतिम भाग ‘ईशोपनिषद’ है, जिसका संबंध धार्मिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है।

3. सामवेद: यह नाम ‘समम’ से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ गीत/संगीत है। इस वेद में 1869 श्लोक हैं। इसे गान-ग्रंथ भी कहते हैं। भारतीय संगीत की उत्पत्ति इसी वेद से मानी जाती है। यह भारतीय संगीत का प्राचीनतम ग्रंथ है। इसके सभी मंत्र गेय रूप में हैं, जिन्हें ‘सोमकाण्ड’ के समय उद्गाता पुरोहित ‘गाता था। सामवेद की तीन शाखाएं मिलती हैं – कौथुम, राणायनीय और जैमिनीय। इसके मंत्रों का उच्चारण करने वाले को उद्गाता कहते थे।

4. अथर्ववेद: इसकी दो शाखाएं मिलती हैं- शौनक और पिप्पलाद। अथर्ववेद में कुल 20 अध्याय हैं तथा 731 सूक्त हैं जिनमें लगभग 6000 मंत्र हैं। अथर्ववेद में जादू-टोने, रोग निवारण, शल्य क्रिया, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वासों, शैतान एवं बीमारियों को दूर करने वाले मंत्र छंदो के रूप में हैं। इसी वेद में ऋग्वैदिक संस्था ‘सभा’ एवं ‘समिति’ को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है।

प्राचीन काल की कला, संस्कृति, साहित्य और स्थापत्य


कहा गया है। यह वेद युद्ध से संबंधित था तथा इसके दो सूक्त दुदुंभि को समर्पित हैं।

ब्राह्मण ग्रंथ

  • ब्राह्मण ग्रंथ प्रार्थना तथा यज्ञ उत्सव (यज्ञ-विधान) से संबंधित ग्रंथ है। इसका विषय ‘कर्मकाण्ड’ से संबंधित है तथा भाग गद्यात्मक है। प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ तथा वेद जिनसे ये संबंधित हैं, निम्न हैं:

    • ऋग्वेद – ऐतरेय एवं कौषीतकी (सांख्यन)।

    • यजुर्वेद – तैत्तिरीय एवं शतपथ ब्राह्मण।

    • सामवेद – तांड्य (महाब्राह्मण), जैमिनीय तथा षड्विंश (अद्भुत) ब्राह्मण।

    • अथर्ववेद – गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ।

  • तांड्य ब्राह्मण ग्रंथ ब्राह्मणों ग्रंथ में से एक है। इसमें ब्राह्मणतम औलत (जिसके द्वारा अनायों को आर्य बनाया जाता था) का भी उल्लेख है।

  • सबसे बड़ा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण ब्राह्मण ग्रंथ ‘शतपथ ब्राह्मण’ है। इसमें यज्ञों के साथ-साथ उत्तर वैदिक कालीन धर्म, दर्शन, रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों का भी उल्लेख है।

  • गोपथ ब्राह्मण में अग्निहोम व अश्वमेध जैसे यज्ञों का विधि-विधान है।

आरण्यक

  • इन ग्रंथों का पठन-पाठन जंगलों (अरण्य) में होने के कारण ही इन्हें ‘आरण्यक’ कहा जाता है। आरण्यकों का मुख्य विषय आध्यात्मिक तथा दार्शनिक चिंतन है। इनमें एक और संहिताओं व ब्राह्मणों के मिथकों एवं कर्मकाण्डों का तथा दूसरी ओर उपनिषदों के दर्शनों का संक्रमण मिलता है। प्रमुख आरण्यक निम्न हैं- ऐतरेय, सांख्यायन, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, जैमिनीयोपनिषदारण्यक, छांदोग्य आरण्यक, कौषीविकी आरण्यक।

उपनिषद

  • ये वैदिक कालीन दार्शनिक ग्रंथ हैं। इनमें आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म तथा जीवात्मा के बीच संबंध, विषय की उत्पत्ति, प्रकृति के रहस्य तथा अन्य विषयों पर दार्शनिक चिंतन हैं। इनमें कर्मकाण्डों की आलोचना एवं सम्यक ज्ञान एवं सम्यक विश्वास के मूल्यों पर बल दिया गया है। इनकी मुख्य विषयवस्तु ज्ञान से संबंधित है।

  • मुक्तिकोपनिषद के अनुसार उपनिषदों की कुल संख्या 108 है परंतु वर्तमान में प्रामाणिक 12 उपनिषद माने गए हैं, ये निम्न हैं –

    • ऋग्वेद से संबंधित – ऐतरेय, कौषीतकी।

    • सामवेद से संबंधित – छांदोग्य, केन।

    • यजुर्वेद से संबंधित – तैत्तिरीय, कथा, श्वेताश्वतर, वृहदारण्यक, ईश।

    • अथर्ववेद से संबंधित – मुण्डक, प्रश्न एवं माण्डूक्य।

  • छांदोग्य उपनिषद में अद्वैत दर्शन का सबसे प्राचीन एवं स्पष्ट रूप मिलता है।

  • पुनर्जन्म का विचार सर्वप्रथम वृहदारण्यक उपनिषद में, ये पूर्व कृत्यों तथा विस्तृत रूप में छांदोग्य उपनिषद में मिलता है।

  • उपनिषद मीमांसात्मक ग्रंथ हैं।

  • माण्डूक्य उपनिषद में उल्लेख है कि सृष्टि की उत्पत्ति एक आत्मा या ब्रह्म से हुई है।

  • गीता का निष्काम कर्म का सर्वप्रथम प्रतिपादन ईशोपनिषद में मिलता है।

  • कठोपनिषद में एक जगह उल्लेख है कि आत्मा का कभी न तो जन्म होता है और न कभी मृत्यु। (अर्थात् आत्मा अमर है।)

वेदांग या सूत्र साहित्य

  • वेदांगों की रचना वेदों के अध्ययन एवं उनके अभिप्राय को समझने हेतु की गई थी। वेदांग कुल 6 हैं।

    1. शिक्षा (स्वर विज्ञान): इसमें स्वर, वर्ण आदि के सही उच्चारण का प्रतिपादन है। ‘पाणिनीय शिक्षा’ सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा ग्रंथ है।

    2. कल्प (कर्मकाण्ड): इसमें पारलौकिक व सामाजिक जीवन के नियम, संस्कार और कर्मकांडों का वर्णन है। इसके तीन भाग हैं- श्रोत कल्प, गृह्य कल्प एवं धर्म कल्प।

    3. व्याकरण: भाषा के वैज्ञानिक ज्ञान हेतु इनकी रचना हुई।

    4. निरुक्त (व्युत्पत्ति): इसमें शब्दों की व्युत्पत्ति का उल्लेख है। ‘यास्क’ का निरुक्त सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है।

    5. ज्योतिष: इसमें ज्योतिष-विज्ञान का विधान है। इसका महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘ज्योतिष वेदांग’ है।

    6. छंद: छन्दों के समुचित ज्ञान हेतु इनकी रचना हुई है। छंद ग्रंथों में ‘छंद सूत्र’ (आचार्य पिंगल द्वारा रचित) महत्वपूर्ण है।

 

बौद्ध संस्कृति

बौद्ध साहित्यः बौद्ध साहित्य पालि भाषा में लिखा गया है। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक महत्वपूर्ण हैं। ये हैं-

1. सुत्तपिटक (धर्म-सिद्धान्त): बौद्धधर्म के सिद्धान्तों और बुद्ध के उपदेशों का वर्णन। यह पाँच भागों में विभक्त है-

1. दीर्घ निकाय, 2. मझिम निकाय

, 3. संयुक्त निकाय,

4. अंगुतर निकाय एवं

5. खुद्दक निकाय।

2. अभिधम्म पिटक (आचार नियम): बौद्ध धर्म का

आध्यात्मिक व दार्शनिक विवेचन, जिसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘कथा वत्थु’ है। इसकी रचना मोग्गलिपुत्र तिस्स ने की थी।

3. विनय पिटकः भिक्षु-भिक्षुणियों के संघ व उनके दैनिक जीवन आचरण सम्बन्धी नियमों का वर्णन। इसके तीन भाग हैं- विभंग, खन्दक व परिवार।

अन्य प्रमुख बौद्ध ग्रंथ-

ललित विस्तार: महायान सम्प्रदाय के इस ग्रंथ में महात्मा

बुद्ध के जीवन का उल्लेख मिलता है। इस ग्रंथ का उपयोग सर एडविन आरनॉल्ड ने ‘The Light of Asia’ की रचना में किया, जिसका हिन्दी अनुवाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘बुद्धचरित’ नाम से किया।

जातक कथाएँ: पालि भाषा में रचित इन कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ एवं बुद्ध कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन का वर्णन मिलता है। भारतीय कथा साहित्य का यह प्राचीनतम संग्रह है।

मिलिन्दपन्हो : प्रथम शताब्दी ई.पू. में नागसेन कृत पालि भाषा में रचित इस ग्रंथ में यूनानी शासक मिलिन्द (मीनेण्डर) और बौद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य दार्शनिक विषय को लेकर हुए वाद-विवाद का वर्णन किया गया है।

महाविभाष : संस्कृत भाषा में वसुमित्र द्वारा रचित बौद्ध ग्रंथ। महावस्तु : संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रन्थ में बुद्ध की अद्भुत शक्ति तथा बोधिसत्व की प्रतिष्ठा का वर्णन है।

दीपवंश: पालि भाषा में इस ग्रंथ की रचना श्रीलंका में की गई। इसमें तत्कालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक दशा तथा श्रीलंका के राजवंशों का वर्णन किया गया है।

महावंश: 5वीं सदी में श्रीलंका में रचित इस ग्रंथ का लेखक महानाम था।

अट्ठकथाः इनकी रचना त्रिपिटकों पर भाषा एवं व्याख्या के रूप में की गई है। अट्ठकथा पालि भाषा में है। बुद्धघोष ने पाँचवीं सदी में सिंहल देश (लंका) में अनेक अट्ठकथाओं की रचना की थी।

दिव्यावदान: बौद्ध साहित्य के इस ग्रंथ में परवतीं मौर्य शासकों एवं शुंगवंश के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग का उल्लेख मिलता है।

सारिपुत्र प्रकरण : यह अश्वघोष द्वारा रचित नाटक ग्रंथ है, जो संस्कृत में लिखा गया है।

बुद्ध चरित तथा सौन्दरानन्द अश्वघोष द्वारा संस्कृत भाषा में लिखे गए ग्रंथ।

धम्मपद : इसे बौद्ध धर्म की ‘गीता’ कहते हैं।

बुद्धवंश: इस पद्यमयी रचना में 24 पूर्ववर्ती बुद्धों एवं गौतम बुद्ध की कथा है।

कथावत्थु : तृतीय बौद्ध संगीति के बाद मोगलिपुततिस्स ने इस ग्रंथ की रचना की थी। इसमें सभा में हुए सभी वाद-विवादों का वर्णन है।

उपादान: इसमें विशिष्ट बौद्धों के चरितों का वर्णन पद्यमय है।

बोरोबुदूर का बौद्ध स्तूप, जो विश्व का सबसे विशाल तथा अपने प्रकार का एक मात्र स्तूप है, का निर्माण शैलेन्द्र राजाओं ने मध्य जावा (इण्डोनेशिया) में कराया।

बुद्ध के ‘पंचशील सिद्धान्त’ का वर्णन छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता है।

भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र की प्रगति बौद्ध धर्म के प्रभाव से हुई। बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ उसका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर पड़ा। यही कारण है कि शंकराचार्य को कभी-कभी प्रच्छन्न बौद्ध भी कहा जाता है।

बौद्ध धर्म की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही। साँची, भरहुत, अमरावती के स्तूपों तथा अशोक के शिला स्तम्भों, कार्ले की बौद्ध गुफाएँ (पुणे, महाराष्ट्र), अजन्ता ऐलोरा गुफाएँ (महाराष्ट्र), बाघ गुफाएँ (मध्य प्रदेश) तथा बाराबार एवं नागार्जुनी की गुफाएँ (बिहार) बौद्ध कालीन स्थापत्य कला एवं चित्रकला के श्रेष्ठतम आदर्श हैं।

बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर भट्टि (द. भारत) में निर्मित प्राचीनतम स्तूप को महास्तूप की संज्ञा दी गई है।

गान्धार शैली के अन्तर्गत ही सर्वाधिक बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया। सम्भवतः प्रथम बुद्ध मूर्ति मधुराकला के अन्तर्गत बनी।

पूना (महाराष्ट्र) स्थित कार्ले की अधिकांश बौद्ध गुफाएँ एवं कौल्वी की गुफाएँ झालावाड़ (राजस्थान) हीनयान सम्प्रदाय की कला का अनोखा उदाहरण हैं। कुछ गुफाएँ महासांधिक (महायान) सम्प्रदाय की भी हैं।

जैन संस्कृति


जैन धर्म की विशेष देन **साहित्य एवं कला के क्षेत्र में रही है। जैन साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं – प्रथम, श्वेताम्बर साहित्य और दूसरा, दिगम्बर साहित्य। श्वेताम्बरों के ग्रंथ **अर्द्धमागधी (प्राकृत) भाषा में है जो ‘अंग’ कहलाते हैं। अन्य ग्रंथों में भद्रबाहु का ‘कल्प-सूत्र’ प्रमुख है। दिगम्बरों के ग्रंथ प्राकृत एवं प्राकृत भाषाओं में हैं। जैन लेखकों में गुजरात के राजा कुमारपाल के दरबार के हेमचन्द्र बहुत प्रसिद्ध लेखक हुए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से उनके द्वारा रचित ‘परिशिष्ट पर्व’ जैन साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। संपूर्ण जैन साहित्य इतिहास, धर्म और शिक्षा की दृष्टि से ज्ञान का अपूर्ण भंडार है।

  • वर्धमान के तप का वर्णन ‘आचरांग सूत्र’ से ज्ञात होता है। इसी ग्रंथ में जैन साधुओं के आचार व्यवहार से संबंधित नियमों का संकलन मिलता है।

  • ‘नायधम्मकहा सूत्र’ में महावीर की शिक्षाओं का संग्रह है।

  • जैन धार्मिक ग्रंथ ‘आगम’ कहलाते हैं।

  • इसके अंतर्गत 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र, 1 नन्दिसत्र, 1 अनुयोग द्वार व 4 मूल सूत्र शामिल हैं। जैन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखा गया है।


 

जैन संस्कृति

 

जैन धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ कल्पसूत्र संस्कृत में है। राष्ट्रकूट नरेश ‘अमोघवर्ष’ जैन सन्यासी बन गया था। उसने रत्नमालिका नामक ग्रंथ की रचना की। भद्राबाहुचरित से जैन मुनि भद्राबाहु के साथ ही सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के अंतिम समय की घटनाओं का वर्णन मिलता है। तमिल ग्रंथ ‘कुरल’ के कुछ भाग भी जैनियों द्वारा रचे गए हैं। उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश इत्यादि में अनेक जैन-मंदिर, मूर्तियां, गुफाएं आदि के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं।

  • खजुराहो में कई जैन तीर्थंकरों जैसे- पार्वनाथ, आदिनाथ के मंदिर हैं। उड़ीसा की उदयगिरि एवं खण्डगिरि पहाड़ियों में सबसे प्राचीन 35 जैन गुफाएं मिलती हैं।

  • एलोरा में भी कई जैन गुफाएं प्राप्त हुई हैं। काठियावाड़ की गिरनार और पालिताना पहाड़ियों पर, रणकपुर (राजस्थान), पारसनाथ (बिहार), श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में भी अनेक जैन मंदिर हैं।

  • शत्रुंजय पहाड़ी पर 500 मंदिर हैं। यहाँ जैन तीर्थंकरों की चतुर्मुखी मूर्तियां देखने को मिलती हैं। श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली की 57 फुट खड़ी खड्गासन प्रतिमा अनुपम है।


 

मौर्यकाल में परिवर्तन

 

मौर्य युग का दृष्टि से विशिष्ट युग था। एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था, विधि का आविष्कार और मुद्राणों के प्रयोग के साथ-साथ मौर्य कला के क्षेत्र में पत्थर का प्रयोग सर्वप्रथम इसी युग में प्रारंभ हुआ। कला के इतिहास में माध्यम का परिवर्तन मौर्य युग की बहुत बड़ी देन थी। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी। अतः बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ललित कलाओं का उपयोग किया गया था। भवन-निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि का उपयोग बौद्ध धर्म के निर्माण के लिए किया गया था।

मौर्यकालीन कला और स्थापत्य को निम्न प्रकार समझा जा सकता है:

  • राजप्रासाद और प्राचीर: मौर्यों के स्थापत्य वैभव की सूचना मेगास्थनीज और कौटिल्य के ग्रंथों से मिलती है। मेगास्थनीज ने पाटिलपुत्र नगर और मौर्य राजप्रसाद का विवरण दिया है। मौर्य सम्राटों की राजधानी पाटिलपुत्र एक बहुत ही विशाल नगरी थी, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। इसका वर्तमान नाम पाटिलपुत्रा था। इसका निर्माण एक दुर्ग के रूप में हुआ था। पाटिलपुत्र नगर एक प्राचीर से घिरा हुआ था, जिसमें 640 द्वार और 570 बुर्ज थे। इसका प्रासाद लकड़ी का बना हुआ था। कौटिल्य ने भी नगरों व उनमें निर्मित भवनों व राजप्रासादों का बहुत विस्तृत ब्यौरा दिया है। मेगास्थनीज ने पाटिलपुत्र नगर के नगरों एवं लकड़ी की एक प्राचीर और परिखा का उल्लेख किया है। मौर्यकालीन भवनों का सबसे सुन्दर उदाहरण पटना के निकट कुम्हरार में मौर्य प्रासाद में दिखाई देता है। मुद्राध्यक्ष के अनुसार पाटिलपुत्र की सुरक्षा के लिये लकड़ी की चारदीवारी का भी निर्माण किया गया था, जिसमें तोरणों के लिए अनेक छेद बने थे। ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार अशोक ने श्रीनगर व देवपटन नगरों की स्थापना करवाई।

  • स्तंभ-स्तूप: मौर्ययुग में पत्थर के साथ बनने को परम्परा दिखाई देती है। ये स्तंभ साधारणतः ‘अशोक की लाट’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। अशोक के स्तंभ निम्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं –

    1. बररा बखेड़ा (बसाइ)

    2. संकिसा

    3. रामपुर्वा

    4. लौरिया नन्दनगढ़

    5. रुम्मिनदेई

    6. निगलियावा

    7. मेरठ

    8. कौशाम्बी

    9. प्रयाग

    10. एरण

    11. बेसनागर

    12. सारनाथ

इन स्तम्भों पर अपने अभिलेख लिखवा कर अशोक ने प्रेम, सहिष्णुता और सौहार्द का संदेश दिया। ये स्तम्भ चुनार के पत्थर के बने हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष अधिकतर पशुओं की आकृति से मण्डित हैं। प्रायः इन शीर्षों पर सिंह, हाथी या वृषभ की आकृति प्रास हुई है।

मौर्य स्तम्भों की शीर्ष मूर्तियों के पाँच अंग हैं-

1. मेखला

3. चौको

2. घंटा या उल्टा कमल

4. पशुमूर्ति

5. चक्र

विश्व कला के इतिहास में मौर्य स्तम्भों जैसे स्तम्भ अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। मौर्य कालीन स्तम्भों पर एक विशेष प्रकार की चमक मिलती है।

अशोक के एकाश्म स्तम्भ मौर्यों की राजकीय कला का सर्वोत्तम उदाहरण उच्च कोटि के पॉलिसयुक्त विशाल एवं सुरुचिपूर्ण आकार वाले स्तंभ हैं जो एकाश्म तथा स्वतंत्र रूप से स्थापित हैं। ये स्तंभ बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। इसके ऊपर काली लेप लगाई जाती थी जिसकी चमक आज भी विद्यमान है। आकार एवं अवधारणा के अंतर के बावजूद इन पर अखमनी प्रभाव झलकता है।

सारनाथ का स्तम्भ- यह अशोक के स्तम्भों का सर्वश्रेष्ठ नमूना है जो हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से निर्मित है। इसमें चार सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुँह किए हुए हैं। इसमें महाधर्मचक है जिसमें 24 तीलियाँ हैं। सिंहों के नीचे की फलक पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं। इसी पर चार पशुओं-गज, सिंह, बैल व अश्व की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। इसकी विशेषता के कारण भारत सरकार ने इसको भारत का राष्ट्रीय चिह्न (National Emblem) स्वीकार किया है।

गुफाएँ- ‘सातघर’: अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने पहाड़ को फाटकर गुहा बनाने की परम्परा प्रारम्भ की। इस युग में बिहार में नागार्जुन और बाराबार की पहाड़ियों को काटकर निर्धन्यों व साधुओं (आजीवकों) के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया गया। ये गुहाएँ गिनती में सात हैं इसलिए इन्हें ‘सातघर’ कहा जाता है। इन गुहाओं को लकड़ी की झोंपड़ि‌यों की अनुकृति पर निर्मित किया गया है। इन सात गुहाओं में बाराबार की पहाड़ी में चार कर्ण चौपड़, सुदामा, लोमश ऋषि व विश्व झोंपड़ी की गुफा तथा नागार्जुन की पहाड़ी में दशरथ द्वारा निर्मित करवाई गई तीन गुहाएँ- गोपिका, वद‌धिक और बहियक हैं। इन तीनों में गोपिका गुफा मुख्य है जिसका निर्माण दशरथ ने अपने राज्याभिषेक वाले वर्ष में कराया था। ‘सुदामा की गुफा’ का निर्माण अवेक ने अपने शासनकाल के 12वें वर्ष तथा ‘कणं चौपड़’ की गुफा का 19वें वर्ष में कराया था। ‘विश्व झोंपड़ी’ की गुफा का निर्माण अशोक के शासनकाल के 12वें वर्ष में हुआ था। इन सभी गुहाओं में लोमश ऋषि गुफा अपने अलंकृत प्रवेश द्वार के लिए प्रसिद्ध है। यह दशरथ के समय बनी थी। यह बाराबार समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है। इनके अतिरिक्त राजगृह से 13 मील की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी गुफा है। इन गुफाओं से अशोक की धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी होती है।

चैत्यः चैत्यों का स्तूपों के साथ घना सम्बन्ध रहा है। जिस कक्ष में पूजा और आराधना होती थी उसे चैत्य कहते थे। अजन्ता का हीनयानी चैत्यगृह अशोक के काल का है। पूना के समीप भाजा की गुफा और इसका चैत्य सर्वाधिक प्राचीन माना गया है। इसका निर्माण लगभग 200 ई. पू. हुआ था।

स्तूपः बुद्ध और महान अहंतों की अस्थियों पर बनायी गई समाधियाँ स्तूप कहलाती हैं। स्तूप मिट्टी, प्रस्तर अथवा पकी इंटों की एक विशाल अर्द्ध गुंबदाकार संरचना होती थी जिनमें बुद्ध और उनके महत्त्वपूर्ण शिष्यों के अवशेष या महत्वपूर्ण वस्तुओं को रखा जाता है। साँची और सारनाथ के स्तूप प्रसिद्ध हैं। साँची का स्तूप वर्तमान में मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में विदिशा के समीप स्थित है। सबसे प्राचीन स्तूप नेपाल की सीमा पर पिपरहवा में है जो संभवतः अशोक से भी प्राचीन और शायद बुद्ध के कुछ ही काल बाद का बना है। इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम की ओर बुन्देलखण्ड की नागोद रियासत में भरहुत नामक स्थान पर एक विशाल स्तूप था। श्री कनिंघम ने सर्वप्रथम 1873 ई. में इस स्थान का पता लगाया था।

विहारः स्तूप और चैत्य दोनों प्राचीनकाल में शव समाधि थे, फिर धीरे-धीरे स्तूप घटनाओं के स्मारक बने और चैत्य देवालय बन गए। विहार यह स्थल था, जहाँ बौद्ध संघ निवास करता था, अर्थात् ये एक प्रकार के मठ थे। गोदावरी तट के प्राचीन नासिक का गौतमीपुत्र विहार हीनयान सम्प्रदाय का था।

धौली की हस्ति मूर्तिः मौर्य युग में उड़ीसा में धौली नामक स्थान पर चट्टान से काटकर एक विशाल हस्ति प्रतिमा के निर्माण का प्रयास किया गया। यह अधूरी मूर्ति है।।

यक्ष और यक्षणियों की मूर्तियाँः इस युग की यक्ष और यक्षणियों की मूर्तियाँ मथुरा के निकट परखम, बेसनगर, पटना, दीदारगंज, नोह, बड़ौदा, वाराणसी, अहिच्छत्र, अमीन और झींग का नगरा से प्राप्त हुई है।

मौर्यकाल में तीन प्रकार की मूर्तिकला शैलियाँ विकसित हुई-(1) गंधार शैली (2) मथुरा शैली (3) अमरावती शैली। गंधार शैली का जन्म गंधार (पाकिस्तान का पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश) में हुआ। गंधार कला को ‘हिंद-यूनानी’ कला

भी कहते हैं क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं, किंतु शैली यूनानी है। इसमें बुद्ध को कमलासन पर पारदर्शक कपड़ों में दर्शाया है। मथुरा शैली का विकास मधुरा में हुआ। यह स्वदेशी शैली थी व इसमें लाल पत्थर का प्रयोग किया गया था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था। मथुरा शैली की मूर्तियों की विशेषता इनकी विशालता व मूर्तियों में सिंहासन का पाया जाना है। अमरावती शैली का विकास कृष्णा और गोदावरी के मुहाने पर अमरावती और गुन्टूर जिलों में हुआ। इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषता-मूर्तियों में आभूषणों की भरमार व मूर्ति निर्माण में सफेद संगमरमर का प्रयोग थी।

लोककलाः मौर्यकाल में राजकीय कला के अलावा स्वतंत्र रूप से लोककला का विकास भी हुआ। मिट्टी के सुंदर चमकदार बर्तन, काले पॉलिशदार मृदभांड, खिलौने और आभूषणों में इन कलाओं का उत्कर्ष मिलता है। इन कलाओं का विस्तार मथुरा से पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग तथा सोपारा वक मिलता है।

शिक्षा में योगदानः मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे।

मौर्यकालीन साहित्य व विज्ञानः मौर्यकाल को साहित्य-सूजन का काल कहा जाता है। इस काल में रचा गया प्रमुख साहित्य निम्न था

सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’। सुबंधु बिंदुसार का मंत्री था।

कौटिल्य का अर्थशास्व।

मेगस्थनीज की ‘इंडिका’।

मोगलिपुत्रतिस्स ने ‘कथावत्थ’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ और भद्रबाहु ने ‘कल्पसूत्र’ की रचना की थी।

जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र और समवायांग सूत्र का अधिकांश भाग इसी युग में लिखा गया।

जैन धर्म के ग्रंथ प्राकृत भाषा में तथा बौद्ध धर्म के ग्रंथ पालि भाषा में रचे गए।

कापिटकों का संग्रह इसी युग में हुआ।

इस काल में भाषाएँ तीन प्रमुख रूप से मुखरित हो रही थीं- संस्कृत, प्राकृत और पालि।

मौर्यकाल में दो प्रकार

की लिपियाँ प्रयुक्त होती थीं-

(1) ब्राह्मी लिपि,

(2) खरोष्ठी लिपि।

खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती थी।

इस लिपि का प्रयोग अशोक ने अपने पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती थी।

अशोक के अभिलेख व शिलालेखः

मौर्यकाल के अध्ययन के स्रोत के रूप में अशोक के अभिलेखों का अत्यधिक महत्व रहा है। अशोक के काल का इतिहाय हमें मुख्यतः उसके अभिलेखों से ही प्राप्त होता है। अभी तक अशोक के 47 से अधिक स्थलों पर अभिलेख प्राप्त हुए है जिनकी संख्या 150 से ज्यादा है। ये अभिलेख राजकीय आदेश के रूप में जारी किए गए थे जो देश के एक कोने से दूसरे कोने तक बिखरे पड़े हैं। इन अभिलेखों से एक ओर जहाँ साम्राज्य की सीमा के निर्धारण में मदद मिलती है वहीं इनमें अशोक के प्रशासन एवं उसके धार्मिक विश्वास तथा उसके व्यक्तिगत जीवन, उसकी आंतरिक व विदेश नीति जैसी अनेक महत्वपूर्ण बातों की सूचना मिल जाती है।

अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि एवं प्राकृत भाषा में प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अशोक के अभिलेखों में तीन लिपियों का प्रयोग किया गया है। ये लिपियाँ हैं-

1. ब्राह्मी लिपि-अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है।

2. खरोष्ठी लिपि- मनसेरा (हजारा-पाकिस्तान) और शाहबाजगढ़ी (पेशावर-पाकिस्तान) अभिलेखों को खरोष्ठी लिपि में लिखा गया है। यह लिपि सैंधव लिपि की तरह दाई से बाईं ओर लिखी जाती है।

3. ग्रीक (यूनानी) एवं अरामाइक लिपि ‘शार-ए-

कुजा’ अभिलेख द्विभाषीय अभिलेख है। यह अरामाइक लिपि में है। इसके अलावा काबुल नदी के किनारे जलालाबाद के पास से प्राप्त लमघान शिलालेख भी अरामाइक लिपि का महत्वपूर्ण शिलालेख है।’

अशोक के अभिलेखों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) शिलालेख.

(3) स्तम्भ लेख

(2) लघु शिलालेख

(5) गुहालेख।

(4) लघु स्तम्भ लेख

शिलालेखः ये पहाड़ों की शिलाओं पर लिखित अभिलेख हैं। ये निम्न हैं-

वृहद शिलालेखः ये 14 विभिन्न लेखों के समूह हैं जो निम्न 8 स्थानों पर प्राप्त हुये हैं।

शाहबाजगढ़ी व मनसेरा (पाकिस्तान), कालसी (उत्तराखण्ड), गिरनार (गुजरात) घौली व जोगद (उड़ीसा), एर्रागुड़ी (आन्ध्रप्रदेश) एवं सोपारा (महाराष्ट्र)।

1. शाहबाजगढ़ी (पाकिस्तान) पेशावर जिले की युसुफजई तहसील में स्थित इस अभिलेख में 12वें

शिलालेख के अलावा अन्य सभी अभिलेख हैं। इसकी खोज 1836 ई. में. जनरल कोर्ट ने की थी। 12वाँ अभिलेख यहीं पर कुछ दूरी पर एक पृथक शिला पर उत्कीर्ण है।

2. मनसेहरा (पाकिस्तान) हजारा जिले में प्राप्त तीन शिलाओं पर उत्कीर्ण इन अभिलेखों में से प्रथम शिला पर 1 से 8वाँ, दूसरी शिला पर 9वें से 12वाँ तक तथा तीसरी शिला पर 13वाँ एवं 14वाँ अभिलेख उत्कीर्ण है। प्रथम दो शिलाओं की खोज जनरल कनिंघम ने की थी।

3. कालसी (उत्तरप्रदेश) इस शिलालेख की खोज फोरेस्ट ने देहरादून जिले की यमुना व टॉस नदियों के संगम के पास सन् 1860 ई. में की थी।

4. गिरनार (गुजरात) जूनागढ़ (काठियावाड़) के समीप गिरनार पर्वत पर कर्नल जेम्स टॉड द्वारा सन् 1822 ई. में खोजा गया। यह शिलालेख बीच में एक खड़ी रेखा द्वारा दो भागों में विभाजित किया गया है। बार्थी ओर के भाग में 5 लेख तथा दायीं ओर के भाग में 7 लेख उत्कीर्ण हैं। इनके नीचे बायीं ओर तीसरा अभिलेख तथा दायीं ओर 14वाँ अभिलेख उत्कीर्ण है।

5. धौली व जोगड़ (ओडिशा) सन् 1837 ई. में किटो ने पुरी जिले की धौली की तीन छोटी पहाड़ि‌यों की एक श्रृंखला पर उत्कीर्ण इन अभिलेखों की खोज की। जोगड़ की पहाड़ियों पर उत्कीर्ण इन अभिलेखों का पता वाल्टर इलियट ने सन् 1850 ई. में लगाया। इन दोनों स्थानों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में 11वाँ व 13वाँ अभिलेख नहीं है बल्कि अन्य दो अभिलेख उत्कीर्ण हैं। इन दोनों को पृथक कलिंग प्रज्ञापन (edicts) कहते हैं।

6. एांगुड़ी (आंध्रप्रदेश) करनूल जिले में पत्थरों के

छः टीलों पर उत्कीर्ण इन वृहद् शिलालेखों व लघु शिलालेखों की खोज सन् 1929 ई. में पुरातत्वविद् अनुघोष ने की थी। इस अभिलेख में लिपि दाई से बाई ओर उत्कीर्ण है। अशोक के अन्य सभी अभिलेखों में लिपि बाई से दाई ओर है।

7. सोपारा (महाराष्ट्र) थाना जिले में एक खण्डित शिला पर अशोक के 8वें शिलालेख के कुछ हिस्से उत्कीर्ण मिले हैं।

सभी शिलालेखों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

प्रथम वृहद शिलालेख इसमें पशुहत्या पर प्रतिबंध की बात की गई है।

दूसरा वृहद शिलालेख इसमें समाज कल्याण से संबंधित कार्य बताए गए हैं तथा इसे धर्म में शामिल किया

गया है। इसमें चिकित्सा सुविधा, मार्ग निर्माण, कुर्जी खोदना एवं वृक्षारोपण कर लेख मिलता है।

तीसरा वृहद शिलालेख इसमें वर्णित है कि लोगों में धर्म की शिक्षा देने के लिये युक्त, रज्जुक और प्रादेशिक जैसे अधिकारी पाँच वर्षों में दौरा करते थे।

चौथा अभिलेख इसमें धम्म नीति से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये गए हैं। इसमें भी ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति आदर दिखाया गया है।

पाँचवाँ अभिलेख इस अभिलेख में अशोक के राज्यारोहण के 13वें वर्ष के बाद धम्म महामात्र की नियुक्ति का उल्लेख है।

छठा शिलालेख – इसमें धम्म महामात्र के लिये आदेश जारी किया गया है कि वह राजा के पास किसी भी समय सूचना प्रेषित कर सकता है।

सातवाँ शिलालेख – इसमें धम्म का स्पष्ट स्वरूप बताते हुए सभी सम्प्रदायों के लिये सहिष्णुता की बात की गई है।

आठवाँ शिलालेख इस अभिलेख में सम्राट अशोक द्वारा आखेटन का त्याग तथा उसके स्थान पर धम्म यात्रा करने की सूचना दी गई है।

नवम् शिलालेख – इस शिलालेख में अशोक खर्चीले समारोह जैसे जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आयोजित समारोह की निंदा करता है तथा उन समारोहों पर रोक लगाने की बात करता है।

दशम शिलालेख इस अभिलेख में ख्याति, गौरव की निंदा की गई है।

ग्यारहवाँ शिलालेख इसमें धम्म नीति की व्याख्या की गई है।

बारहवाँ शिलालेख इस शिलालेख में विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य सहिष्णुता पर बल दिया गया है तथा सर्वधर्म समभाव की अवधारणा का व्लेख किया गया है।

तेरहवाँ अभिलेख यह सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख है। इस अभिलेख में कलिंग विजय, अशोक के हृदय परिवर्तन तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की सूचना मिलती है। इसमें युद्ध विजय के बदले धम्म विजय पर बल दिया गया है। इस अभिलेख से ही अशोक की विदेश नीति पर प्रकाश पड़ता है। यहाँ कहा गया है कि देवाना‌म्पिय ने अपने समस्त सीमावर्ती राज्यों पर विजय पाई जो लगभग 600 योजन तक का क्षेत्र है।

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