भारतीय चुनावी व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण

भारतीय चुनावी व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण

लोकतंत्र की नींव उसकी चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर आधारित होती है

भारत ने अपनी चुनावी प्रणाली को मजबूत करने के लिए समय-समय पर कई कदम उठाए हैं। फिर भी चुनौतियाँ बनी हुई हैं। आइए जानते हैं कि किन उपायों से इस व्यवस्था को और अधिक विश्वसनीय और प्रभावी बनाया जा सकता है।

चुनावी वित्त में सुधार

  • राजनीतिक दलों के वैध खर्चों का आंशिक राज्य वित्तपोषण
  • सभी बड़े चंदों का डिजिटल माध्यम से खुलासा अनिवार्य
  • चुनाव आयोग और CAG द्वारा कड़े लेखा-परीक्षण
  • सार्वजनिक खर्च पर नज़र रखने के लिए ऑनलाइन पोर्टल
  • राजनीतिक दलों को RTI अधिनियम के दायरे में लाना।

आंतरिक पार्टी लोकतंत्र

  • कानून द्वारा नियमित आंतरिक चुनाव अनिवार्य।
  • पारदर्शी उम्मीदवार चयन प्रक्रिया।
  • दल के संविधान का नियमित ऑडिट।
  • एक प्रभावी नियामक ढांचा।

डिजिटल अभियान और डीपफेक नियंत्रण

  • सभी ऑनलाइन विज्ञापनों पर प्रकटीकरण लेबल
  • राष्ट्रीय स्तर पर डीपफेक डिटेक्शन सेल
  • नियम न मानने वाले प्लेटफॉर्म पर दंड।
  • जन-जागरूकता अभियान।

चुनाव आयोग को सशक्त बनाना

  • वित्तीय स्वायत्तता प्रदान करना।
  • स्वतंत्र स्थायी कैडर
  • संसदीय समितियों द्वारा नियमित ऑडिट।

चुनावी प्रक्रिया में सुधार

  • टोटलाइज़र मशीन का उपयोग।
  • समान राष्ट्रीय मतदाता सूची।
  • आदर्श आचार संहिता का कड़ाई से पालन।

समकालिक और सतत चुनाव

  • स्थायी राष्ट्रीय मतदाता सूची और पहचान पत्र।
  • एक निश्चित चुनावी कैलेंडर।

निष्कर्ष

  • पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं।
  • चुनाव आयोग की स्वायत्तता से जनता का विश्वास बढ़ेगा।
  • प्रौद्योगिकी का सही उपयोग आवश्यक है।
  • राजनीतिक दलों के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करना होगा।
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  • केंद्र सरकार ने गंभीर आपराधिक आरोपों में लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रहे केंद्रीय और राज्य मंत्रियों को हटाने के लिये लोकसभा में 130वाँ संविधान (संशोधन) विधेयक, 2025 प्रस्तुत किया है।

    130वाँ संविधान (संशोधन) विधेयक, 2025

    • संशोधन: विधेयक में संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239AA में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है, जो क्रमशःकेंद्रीय मंत्रिपरिषद राज्य मंत्रिपरिषद तथा केंद्रशासित प्रदेशों के मंत्रियों से संबंधित हैं।
    • मुख्य उपबंध: इस कानून के दायरे में मंत्री (मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री सहित) को भी शामिल किया जाएगा। पाँच वर्ष या उससे अधिक की सज़ा वाले अपराधों के लिये गिरफ्तारी के बाद लगातार 30 दिनों तक हिरासत में रखे गए व्यक्ति को प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा हटाया जाएगा।
      • हिरासत से रिहाई के बाद उसका निष्कासन प्रतिवर्ती हो सकता है अर्थात् वह पुनः पद धारण कर सकता है।
    • उद्देश्य: संवैधानिक नैतिकता तथा सुशासन को कायम रखना, यह सुनिश्चित करना कि गंभीर आरोपों के तहत मंत्री पद पर बने न रह सकें और जनता का विश्वास बना रहे

     

वर्तमान कानूनी ढाँचा और न्यायिक दृष्टिकोण: आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे मंत्रियों का पद

वर्तमान में, गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण किसी मंत्री को स्वचालित रूप से पद से हटाने का कोई कानून नहीं है। यह कानूनी ढाँचा “दोषसिद्धि तक निर्दोषता की धारणा” के सिद्धांत पर आधारित है।


मौजूदा कानूनी प्रावधान

  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (RPA): इस अधिनियम की धारा 8 के तहत, किसी विधायक या मंत्री को तभी अयोग्य ठहराया जा सकता है जब उसे किसी अपराध के लिए कम से कम दो साल की कैद की सज़ा सुनाई गई हो।

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988: RPA की धारा 8(1) के अनुसार, यदि किसी विधायक को भ्रष्टाचार के लिए दोषी पाया जाता है, तो उसे छह साल के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है, भले ही उसे केवल जुर्माना ही क्यों न लगाया गया हो। अगर उसे कारावास की सज़ा मिलती है, तो अयोग्यता कारावास की अवधि के साथ-साथ रिहाई के बाद छह साल तक जारी रहती है।


न्यायिक निर्णयों का प्रभाव

विभिन्न न्यायिक मामलों ने इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण दिए हैं:

  • पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन मामला (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल संसद के पास ही अयोग्यता के लिए कानून बनाने या नए आधार जोड़ने का अधिकार है। न्यायालय ने राजनीतिक दलों को गंभीर अपराधों के आरोपियों को टिकट न देने और उनकी सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की।

  • मनोज नरूला बनाम भारत संघ (2014): न्यायालय ने माना कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री बनाने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री को सलाह दी कि वे ऐसे व्यक्तियों को चुनने से बचें।

  • वी. सेंथिल बालाजी मामला (2025): न्यायालय ने एक मंत्री को अपने पद और स्वतंत्रता के बीच चुनाव करने का निर्देश दिया, क्योंकि उनकी फिर से नियुक्ति से न्यायालय को गुमराह किया गया था। इसके बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

  • अरविंद केजरीवाल मामला (2024): एक मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ज़मानत मिलने के बाद, न्यायालय ने उन्हें आधिकारिक कर्तव्यों का पालन करने से रोक दिया, हालांकि इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं किया। उन्होंने बाद में स्वेच्छा से पद छोड़ दिया।

ये सभी मामले दर्शाते हैं कि न्यायिक हस्तक्षेप के बावजूद, गंभीर आपराधिक आरोपों वाले मंत्रियों को हटाने के लिए एक स्पष्ट और मजबूत कानूनी ढाँचे की कमी है।

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