सिंधु घाटी सभ्यता: एक विस्तृत परिचय

सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की एक प्राचीन और नगरीय सभ्यता थी। यह अपनी सुनियोजित शहरी बनावट, उन्नत जल निकासी प्रणाली और व्यापारिक कौशल के लिए जानी जाती है। इसकी खोज 1921 में रायबहादुर दयाराम साहनी ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के मार्गदर्शन में की थी।

यह सभ्यता कांस्य युग की थी और इसका विस्तार त्रिभुजाकार था, जो लगभग 13 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ था। इसके प्रमुख शहरों में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, कालीबंगा, बनवाली, धौलावीरा, सुरकोटड़ा और लोथल शामिल हैं।


नगर नियोजन और संरचनाएँ

सिंधु सभ्यता का नगर नियोजन समकालीन सभ्यताओं में सबसे उत्कृष्ट था।

नगरों का विभाजन

अधिकांश नगर दो भागों में विभाजित थे:

  • पश्चिमी टीला (गढ़): यह ऊँचा और दीवारों से घिरा हुआ था, जहाँ शासक और संभ्रांत नागरिक रहते थे।
  • पूर्वी टीला (निचला शहर): यह अपेक्षाकृत नीचा था और यहाँ आम नागरिकों की रिहायशी बस्तियाँ थीं। हालाँकि, लोथल इसका अपवाद था, जहाँ शहर का ऐसा कोई विभाजन नहीं मिला।

सड़कें और जल निकासी

शहरों की सड़कें ग्रिड शैली में बनी थीं, जो एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। यहाँ की भूमिगत जल निकासी प्रणाली अत्यंत उन्नत थी, जिसमें ढकी हुई नालियों का उपयोग किया जाता था।

भवन निर्माण

भवन पक्की ईंटों (अनुपात 4:2:1) से बनाए जाते थे। कालीबंगा और रंगपुर में कच्ची ईंटों का भी प्रयोग होता था। मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर गलियों में खुलते थे, लेकिन लोथल में मुख्य सड़क पर खुलने के प्रमाण मिले हैं।

महत्वपूर्ण संरचनाएँ

  • विशाल स्नानागार: मोहनजोदड़ो में मिला यह स्नानागार 11.89 × 7 × 2.43 मीटर का एक बड़ा कुंड था, जिसके फर्श को डामर से जलरोधी बनाया गया था। सर जॉन मार्शल ने इसे “विश्व का एक अद्भुत निर्माण” कहा था।
  • अन्नागार: हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से विशाल अन्नागार मिले हैं, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली और एक संगठित शासन व्यवस्था का संकेत देते हैं।
  • गोदीबाड़ा (डॉकयार्ड): लोथल से ईंटों से बना एक चतुर्भुजाकार गोदीबाड़ा मिला है, जो इस बात का प्रमाण है कि यह एक प्रमुख बंदरगाह था।


अर्थव्यवस्था और व्यापार

सिंधु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, उद्योग और व्यापार पर आधारित थी।

कृषि

  • प्रमुख फसलें: गेहूँ और जौ।
  • अन्य फसलें: धान (लोथल और रंगपुर से चावल के प्रमाण), बाजरा और कपास। सिंधुवासी विश्व में सर्वप्रथम कपास की खेती करने वाले माने जाते हैं।
  • जुताई: कालीबंगा से जुते हुए खेत के प्राचीनतम साक्ष्य मिले हैं।

उद्योग और शिल्प

  • मनके का निर्माण: चन्हुदड़ो, लोथल और बालाकोट मनके बनाने के प्रमुख केंद्र थे।
  • धातु कर्म: वे तांबा, कांस्य, सोना और चाँदी का उपयोग करते थे। मोहनजोदड़ो से एक कांसे की नर्तकी की मूर्ति मिली है।

व्यापार

  • व्यापारिक संबंध: इनका मेसोपोटामिया (सुमेरिया), अफगानिस्तान और बहरीन जैसे क्षेत्रों के साथ व्यापार होता था। मेसोपोटामिया के ग्रंथों में सिंधु क्षेत्र को ‘मेलुहा’ कहा गया है।
  • आयात-निर्यात: वे सोना, चाँदी, तांबा, टिन और बहुमूल्य पत्थरों का आयात करते थे, जबकि कृषि उत्पाद, कपास, मिट्टी के बर्तन और मनके जैसी वस्तुओं का निर्यात करते थे।
  • वस्तु विनिमय: चूँकि यहाँ सिक्कों का प्रचलन नहीं था, व्यापार संभवतः वस्तु विनिमय के माध्यम से होता था।


सामाजिक और धार्मिक जीवन

सिंधु समाज मातृ सत्तात्मक था।

लिपि

सिंधुवासियों को लिपि का ज्ञान था, जिसे भाव-चित्रात्मक लिपि कहा जाता है। इसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

धार्मिक प्रथाएँ

  • प्रमुख देवता: मुहरों पर एक सींग वाले बैल और कूबड़ वाले बैल का अंकन मिलता है। मुख्य पुरुष देवता पशुपति महादेव (आद्य शिव) थे, जिन्हें योगी की मुद्रा में दर्शाया गया है।
  • प्रमुख देवी: मातृ देवी (पृथ्वी देवी) की पूजा की जाती थी, जिसकी कई टेराकोटा मूर्तियाँ मिली हैं।
  • अन्य पूजाएँ: वे लिंग, वृक्ष (पीपल) और अग्नि की भी पूजा करते थे।

अंत्येष्टि

मोहनजोदड़ो में तीन प्रकार की अंत्येष्टि विधियाँ प्रचलित थीं: पूर्ण दफन, आंशिक दफन और दाह संस्कार। आमतौर पर, मृतक को सिर उत्तर दिशा में रखकर दफनाया जाता था।


सभ्यता का अवसान

सिंधु घाटी सभ्यता के अंत को लेकर कई मत हैं। कुछ विद्वान इसे अचानक हुई घटना मानते हैं, जैसे आर्यों का आक्रमण या भूकंप। वहीं, कुछ विद्वान इसे क्रमिक अवसान मानते हैं, जिसका कारण जलवायु परिवर्तन, बाढ़, नदियों का सूखना या जंगलों का विनाश हो सकता है।

सिंधु सभ्यता ने आधुनिक भारत को कई महत्वपूर्ण देन दी हैं, जैसे हल का उपयोग, 16 के गुणज वाली माप-तौल प्रणाली और धार्मिक प्रथाएँ।

सिंधु घाटी सभ्यता एक ‘काँस्य युगीन सभ्यता’ (Bronze Age Civilization) थी, जिसे सर्वप्रथम एक अँग्रेज़ चार्ल्स मेसन ने 1826 ई. में हड़प्पा नामक स्थान पर एक पुरास्थल के रूप में पहचाना, परन्तु वह इसकी प्राचीनता के बारे में कोई अनुमान नहीं लगा सका। इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ भी कहा जाता है क्योंकि इसकी खोज ‘सर्वप्रथम हड़प्पा स्थल’ पर ही हुई थी। इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ नाम सर जॉन मार्शल ने दिया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी क्षेत्र में पनपी, अतः इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहते हैं। सिंधु सभ्यता को आद्य ऐतिहासिक युग (Proto-historic Age) की सभ्यता माना जाता है।

 

सिंधु घाटी सभ्यता की खोज का श्रेय रायबहादुर दयाराम साहनी को दिया जाता है, जिन्होंने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक ‘सर जॉन मार्शल’ के निर्देशन में सन् 1921 में सर्वप्रथम इस स्थल का पुनरान्वेषण कर 1922 से उत्खनन कार्य कराया। इस सभ्यता का विस्तार क्षेत्र त्रिभुजाकार था। अधिकांश विद्वानों के मतानुसार सिंधु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ थे।

 

भारत में इसे प्रथम नगरीय क्रान्ति (नगरीय सभ्यता) भी कहा जाता है, क्योंकि हमें इस सभ्यता के लगभग आठ शहर मिले हैं-

 

1. हड़प्पा,

 

2. मोहनजोदड़ो,

 

3. चन्हुदड़ो,

 

4. कालीबंगा,

 

5. बनवाली,

6.धौलावीरा,

 

7. सुरकोटड़ा,

 

8. लोथल

 

सभ्यता के सर्वाधिक स्थल – गुजरात में ।

 

सभ्यता की नवीनतम खोज – (शहर) –

 

धौलावीरा (गुजरात, 1991)

सभ्यता का खोजा गया नवीनतम स्थल – बालाथल (उदयपुर, 1995), कुनाल (हरियाणा-1997 में)सभ्यता का विस्तार क्षेत्र – पश्चिम में सुत्कांगें डोर (बलूचिस्तान-पाकिस्तान) से, पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तक और उत्तर में मोडा/मांडा (कश्मीर) से दक्षिण में दायमाबाद (महाराष्ट्र) तक।

 

सिंधु सभ्यता का विस्तार 1299600 वर्ग किमी. (लगभग 13 लाख वर्ग किमी.) क्षेत्र में था। पश्चिम से पूर्व तक इसकी लम्बाई लगभग 1600 किमी. तथा उत्तर से दक्षिण तक विस्तार लगभग 1400 किमी. क्षेत्र में था।

 

सिंधु सभ्यता के अब तक लगभग 1000 स्थल खोजे जा चुके हैं।

 

इस सभ्यता के स्थलों का फैलाव सिंधु नदी तंत्र, घग्घर-हाकड़ा नदी तंत्र तथा नर्मदा-ताप्ती नदी तंत्र तक विस्तृत था।

 

कार्बन डेटिंग (C-14 विधि) के अनुसार इसका विकास काल 2350 ई. पूर्व से 1750 ई.पू. था।

 

सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान (शोर्तुघई तथा मुंडीगाक) में था। इस सभ्यता का प्रारंभिक काल संभवत: 3500 ई. पूर्व से 2600 ई. पूर्व तथा चरमोत्कर्ष काल 2500 ई. पूर्व से 1800 ई. पूर्व रहा होगा।

 

भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञातं प्राचीनतम कृषिगत बस्ती (सभ्यता स्थल) मेहरगढ़ (वर्तमान पाकिस्तान में) तथा भारत में सिंधु क्षेत्र के बाहर ज्ञात सर्वाधिक प्राचीन स्थल बालाथल (उदयपुर) है।

यह एक नगरीय या शहरी सभ्यता थी।

 

सुनियोजित नगर नियोजन- समकालीन काँस्ययुगीन सभ्यताओं में सर्वश्रेष्ठ नगर नियोजन।

 

हड़प्पा सभ्यता के सभी प्रमुख नगरों की बनावट लगभग एक समान थी। सम्पूर्ण नगर के दो भाग थे-

 

पश्चिमी भाग (पश्चिमी टीला), जो अपेक्षाकृत ऊँचा था तथा जो दीवारों (चारदीवारी) से सुरक्षित (किलेबंद-दुर्ग) था। इसमें शासक व संभ्रात नागरिक रहते थे।

 

पूर्वी भाग (पूर्वी टीला), जो अपेक्षाकृत नीचा था तथा जहाँ रिहायशी बस्तियाँ थीं, जिनमें सामान्य नागरिक रहते थे। परन्तु ‘लोथल’ (गुजरात) स्थल पर शहर के इस तरह से विभाजन के अवशेष नहीं मिले हैं।

ग्रिड शैली में बसावट, जिसमें सड़कें सीधी थी एवं एक दूसरे को समकोण में काटती थीं।

 

जल निकासी की विलक्षण भूमिगत व्यवस्था – गन्दे पानी के निकास हेतु भूमिगत छोटी, बड़ी तथा गहरी एवं ढँकी हुई नालियों की व्यवस्था थी।

 

भवनों आदि के निर्माण में मानकीकृत- 7.5×15×30 सेमी या 10×20×40 सेमी आकार की पक्की ईंटों (कालीबंगा व रंगपुर में कच्ची ईंटों का) का प्रयोग होता था। पत्थर के भवनों का अभाव था। मकान सामान्यतः दो खण्डों में विभक्त होते थे।

 

भवन के दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर गली में खुलते थे परन्तु लोथल इसका अपवाद है। वहाँ मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर खुलने के अवशेष मिले हैं।

 

भवनों की छतों के लिए लकड़ी का प्रयोग किया जाता था।

वृहद् अन्नागार – ये सिन्धु घाटी सभ्यता में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की उपस्थिति को दर्शाते हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से विशाल अन्नागारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड़प्पावासी अधिशेष अनाज को इन अन्नागारों में सुरक्षित रखते थे।”

 

हड़प्पा के उत्खनन में छः-छः अन्नागारों (धान कोठार) वाली ईंट के चबूतरे पर बनी दो श्रृंखलाएँ प्राप्त हुई हैं।

 

मोहनजोदड़ो में प्राप्त विशाल अन्नागार का आकार 150×50 फीट है। इसकी उपस्थिति से वहाँ एक केन्द्रीय कर वसूलने वाली सत्ता की उपस्थिति का पता चलता है। ये अन्नागार दोनों ओर 6-6 की कतार में हैं।

 

क्षेत्रफल की दृष्टि से मोहनजोदड़े सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल था तथा भारत में सबसे बड़ा स्थल राखीगढ़ी है।

 

सार्वजनिक स्नानागार : यह विशाल स्नानागार ‘मोहनजोदड़ो’ में मिला है। यह 54 मीटर लम्बा एवं 33 मीटर चौड़ा था, जिसमें 11.89×7×2.43 मीटर (39×23×8 फीट) का कुण्ड बना हुआ था। जलाशय के चारों ओर बरामदे व स्नान हेतु चबूतरे बने हुए थे। स्नानागार का फर्श पक्की ईंटों का बना हुआ था। जल कुण्ड के पेंदे को डामर द्वारा जलरोधी बनाया गया था। सर जॉन मार्शल ने इसे विश्व का एक अद्भुत निर्माण कहा है।

 

मकान एक सीध में बने थे तथा उनकी खिड़‌कियाँ मुख्य सड़क पर न खुलकर बगल की गली में खुलती थी।

 

शौचालयों के लिए सोख्ता गड्डों का इस्तेमाल होता था।

 

प्रारंभिक हड़प्पावासी मिट्टी के बर्तनों के निर्माण हेतु पैर से चलाये जाने वाले चाक प्रयोग में लेते थे। परिपक्व हड़प्पा सभ्यता के काल में हाथ से चलाये जाने चाक (कुम्हार का चाक) का प्रयोग किया जाने लगा था।

 

मोहनजोदड़ो में एक बहुस्तंभीय सभागार तथा एक आयताकार भवन के अवशेष मिले हैं। ये संभवतः प्रशासकीय कार्यों हेतु प्रयुक्त होते थे।

 

मोहनजोदड़ो में बुने हुए कपड़े का एक टुकड़ा भी मिला है।

 

मोहनजोदड़ो के निचले शहर में एक मंदिरनुमा इमारत मिली है, जिसमें ऊँचे चबूतरे पर बैठने की मुद्रा में पत्थर की मूर्ति मिली है।

 

हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की निचली बस्ती में एक कक्षीय बैरकनुमा आवास भी मिले हैं। इनमें संभवत मजदूर वर्ग रहता था।

 

‘चहून्दड़ो’ (पाकिस्तान) एक मात्र सिंधु शहर है, जहाँ दुर्ग के अवशेष नहीं मिले हैं।

 

कालीबंगा (हनुमानगढ़, राजस्थान) से आद्य हड़प्पा काल (प्राक् या पूर्व हड़प्पा) एवं परिपक्व हड़प्पाकालीन संस्कृति

दोनों सभ्यताओं के अवशेष अलग-अलग स्तरों में प्राप्त हुए हैं। आद्य हड़प्पाकाल में खेतों को जोता जाता था। परंतु हड़प्पा काल में शायद उन्हें खोदा जाता था।

 

कालीबंगा में प्राप्त नगर के दोनों ही भाग सुरक्षा दीवार (परकोटे) से घिरे हुए हैं। अन्य स्थानों पर केवल उच्च भाग (दुर्ग) ही परकोटे से बंद था।

 

प्रसिद्ध सिंधु स्थल ‘लोथल” (गुजरात) में ईंट से निर्मित्त ‘गोदीबाड़ा’ (Dockyard) के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह सिंधु वासियों का प्रमुख बंदरगाह रहा होगा। अभी तक अन्य किसी सिंधु स्थल में गोदीबाड़े के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं। यह गोदीबाड़ा लगभग चतुर्भुजाकार था। इसके चारों ओर ईंटों की दीवार थी।

 

‘चावल’ की खेती के प्राचीनतम प्रमाण लोथल से प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा रंगपुर (गुजरात) में भी चावल का भूसा प्राप्त हुआ है।

 

‘सुरकोटड़ा’ (कच्छ, गुजरात) एकमात्र सिंधु स्थल है, जहाँ से वास्तव में घोड़े के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह नगर पत्थर के टुकड़ों की दीवार से घिरा हुआ था।

 

सुरकोटड़ा संभवतः सिंधुवासियों का अन्य बंदरगाह नगर था, परंतु यहाँ लोथल की तरह गोदीबाड़े के अवशेष नहीं मिले हैं।

 

‘धोलावीरा’ (गुजरात) में आर.एस. विष्ट के निर्देशन में उत्खनन हुआ है। इस सिंधु सभ्यता स्थल में नगर के तीन भाग (जबकि अन्य सभी नगरों में दो भाग) मिले हैं। इसके दो हिस्सों की दीवार से मजबूत घेराबंदी की गई थी।

 

धौलावीरा में दो आंतरिक अहाते मिले हैं-

 

नगर दुर्ग, जहाँ संभवतः शासक वर्ग (उच्चतम सत्ता) का निवास था।

 

मध्य नगर, जहाँ संभवतः शासक वर्ग के निकटतम संबंधी व अन्य अधिकारी रहते होंगे। यह धौलावीरा की खास विशेषता है। निचला शहर से अलग ‘मध्य शहर’ का अस्तित्व केवल धौलावीरा में ही मिला है।

 

इसके अलावा यहाँ अन्य सिन्धु स्थलों की भाँति निचला शहर, जहाँ सामान्य नागरिक रहते थे, भी मिला है। धौलावीरा में सिंधु सभ्यता के तीनों चरणों के अवशेष मिले हैं। इसे सात सांस्कृतिक चरणों में बाँटा गया है। यहाँ विशाल जलाशय के अवशेष मिले हैं, जो आश्चर्यजनक है। इसकी जल प्रबन्धन व्यवस्था अति उत्तम थी।

 

कालीबंगा में एक चबूतरे पर एक पंक्ति में ‘सात अग्निकुण्ड’ तथा एक गड्डे में पशुओं की हड्डियाँ व मृगभृंग पाये जाते हैं।

अल्लाहदीनो (पाकिस्तान) सिंधु स्थल का आकार मात्र 2 एकड़ के लगभग है। यह सबसे छोटा सिंधु स्थल था।

 

सिंधु सभ्यता की अधिकांश मुहरों पर बिना कूबड़ के एक सींग वाले सांड की आकृति है। कुछ हड़प्पा मुहरों पर कूबड़ वाले बैल का अंकन भी मिला है।

 

सूअर व भैंस की हड्डियाँ सभी स्थानों से मिली हैं।

 

ऊँट की अस्थियाँ केवल कालीबंगा में प्राप्त हुई हैं।

 

बैलगाड़ी की आकृति हड़प्पा एवं चहून्दड़ो से मिली है।

 

भारत में चाँदी सर्वप्रथम सिंधु सभ्यता में पाई गई है। चाँदी के बड़े बर्तन भी मिले हैं।

 

रेहड़ी एवं सुक्कुर स्थलों पर पत्थर से चर्ट फलकों व पिंलट फलकों का निर्माण कर अन्य स्थलों को निर्यात किया जाता था।

 

सिंधु संस्कृति में ‘सीपी निर्माण’ कार्य एक विकसित शिल्प

 

था। बालाकोट (बलूचिस्तान), लोथल एवं चहून्दड़ो सीप एवं चूड़ी निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे। लोथल एवं चहून्दड़ो में कार्नेलियन के सुराखदार मनकों का निर्माण होता था। मनकों का निर्यात ‘मेसोपोटामिया’ तक होता था। चहूदड़ो में सर्वाधिक मात्रा में मनके मिले हैं।

 

बर्तनों पर चिड़िया, मछली, पशु, पेड़ तथा पीपल की आकृतियों का अंकन मिलता है।

 

सिंधुवासी चाँदी, स्वर्ण, शीसा, ताँबा, काँसा आदि प्रमुख धातुओं का प्रयोग करते थे। सोने से मनकों, झुमकों, ताबीजों, कलंगी एवं सूई आदि निजी आभूषणों का निर्माण होता था।

 

सिंधुवासियों का अन्तक्षेत्रीय व्यापार राजस्थान, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के क्षेत्र के लोगों के साथ होता था।

 

सिंधुवासियों के आयात की मुख्य चीजें थीं- बहुमूल्य धातु-जैसे सोना (अफगानिस्तान, फारस तथा दक्षिण भारत से), ताँबा (राजस्थान, बलूचिस्तान तथा अरब से) तथा टीन (अफगानिस्तान एवं बिहार से)। इसके अलावा अर्द्ध-कीमती पत्थर जैसे- लाजवर्द (अफगानिस्तान), फिरोजा (फारस), जामनी (महाराष्ट्र), गोमेद (सौराष्ट्र), संगशयब (मध्य एशिया) तथा शंख (सौराष्ट्र एवं दक्कन से) मँगाए जाते थे।

 

◆ निर्यात की चीजें – गेहूँ, जौ, मटर, तिलहन जैसे कृषि उत्पाद तथा कपास की वस्तुएँ, मिट्टी के बर्तन, कार्नेलियन के मनके, सीपी की वस्तुएँ, टेराकोटा मूर्तियाँ, हाथी दाँत की चीजें तथा अन्य सामान।

 

‘सुमेरिया’ (मेसोपोटामिया) तथा सिंधु सभ्यता के बीच व्यापारिक संपर्क के कई साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध हैं। सुमेर के ग्रंथों में ‘मेलुहा’ से व्यापारिक संबंधों की चर्चा है, जो कि संभवतः सिंधु क्षेत्र का प्राचीन नाम है। इनमें दो मध्यवर्ती व्यापारिक स्थानों- दिलमन (बहरीन) तथा मंकन (मकरान तट)- की चर्चा भी है।

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से प्राप्त कई मुहरों पर जहाजों की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं। टेराकोटा के एक जहाज का आकार लोथल से प्राप्त हुआ है, जिसमें मस्तूल लगाने के लिए सुराख बना है।

 

हड़प्पा तथा चहुँदड़ो से ताँबे अथवा काँसे की बैलगाड़ी की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिन पर उनका चालक भी बैठा हुआ है। इसके साथ ही वहाँ से इक्कों की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं जो पंजाब में अब भी प्रचलित हैं।

 

सिंधु समाज मातृ सत्तात्मक था।

 

शिकार करना सिंधुवासियों के मनोरंजन का प्रमुख साधन था।

 

आवागमन के लिए बैलगाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।

 

सिंधुवासियों को लिपि का ज्ञान था। इस लिपि को ‘भाव-चित्रात्मक लिपि’ (Pictographic) व गोमूत्राक्षर लिपि भी कहा गया है। इस लिपि की लिखावट अधिकांश बायीं से दायीं ओर है तथा कुछ लेखन दायीं से बायीं ओर भी हुआ है। कुछ मुहरों में क्रमशः दाई ओर से बाई ओर तथा फिर बाई ओर से दाई ओर लिखा गया है। बी. बी. लाल ने इसे’ बुस्ट्रोफेदम’ नाम दिया है। यह लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है। इस लिपि के लगभग 400 चिह्नों की पहचान की जा चुकी है।

 

इसमें चिड़िया, मछली तथा विभिन्न प्रकार की मानवाकृतियाँ बनी हुई हैं। हड़प्पा की लिपि में संकेतों की संख्या 400 से 600 के बीच मानी गई है, जिसमें 40 से 60 मूल हैं तथा अन्य उनके विभिन्न अभिरूप हैं। मूल संकेतों में कई चिह्न लगाकर अभिरूप बनाए गए हैं।

 

हड़प्पावासियों की भाषा अभी अज्ञात है। अब तक भाषा की प्रकृति के संदर्भ में दो प्रकार के तर्क दिए गए हैं: यह या तो इंडो-यूरोपीय या इंडो-आर्य समूह की भाषा है या द्रविड़ परिवार की है। द्रविड़ परिकल्पना को स्वीकार करने में लगभग सहमति-सी बन गई है।

 

सिंधुवासियों को लोहे की जानकारी होने के प्रमाण नहीं मिले हैं।

 

सिंधुवासी मृतक के पैर दक्षिण दिशा में एवं सिर उत्तर में रखकर गाढ़ते थे।

 

पुरातत्वेत्ताओं ने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल तथा रोपड़ जैसे कई स्थानों पर कब्रिस्तानों का उत्खनन किया है। ये कब्रिस्तान साधारणतः बस्तियों की परिधि में हैं। मोहनजोदड़ो

 

में अंतिम संस्कार की तीन विधियाँ थीं- पूर्ण दफन, आंशिक दफन (शव को जंगली जानवरों तथा चिड़ियों के समक्ष कुछ दिन छोड़कर कुछ अस्थियों का दफन) तथा दाह संस्कार के बाद दफन । लेकिन साधारणतः पूर्ण दफन का प्रयोग होता था. जिसमें मृतक शरीर को पीठ के बल, सिर को साधारणतः उत्तर दिशा में व पैर दक्षिण दिशा में रखकर दफनाया जाता था।

कई कब्रें ईंट को प्रकोष्ठ से बनाई गई थीं, जैसा कि कालीबंगा में देखने को मिलता है।

 

राजनैतिक स्थिति – राजनैतिक व्यवस्था के बारे में कोई

 

भी स्पष्ट प्रमाण नहीं है। इतना स्पष्ट है कि हड़प्पा की शासन व्यवस्था कुशल एवं संगठित थी।

 

कृषि –

 

गेहूँ व जौ मुख्य खाद्यान्न ।

 

लोथल से धान (चावल) और बाजरे की खेती के साक्ष्य।

 

कपास की खेती के आरम्भिक साक्ष्य। सिंधुवासियों को विश्व में सर्वप्रथम कपास की खेती करने का श्रेय दिया जाता है।

 

चावल की खेती के साक्ष्य केवल लोथल व रंगपुर (दोनों गुजरात) में मिले हैं।

 

कालीबंगा से जुते हुए खेत के प्रारम्भिक (प्राचीनतम ) प्रमाण प्राप्त। यहाँ दो दिशाओं में एक-दूसरे से समकोण बनाते हुए हल जोतने के चिह्न अभी भी सुरक्षित हैं।

 

‘हल’ से अनभिज्ञ लेकिन मुख्यतः ‘कुदाल’ का प्रयोग।

 

पशुपालन –

 

एक सींग का बिना कूबड़ वाला तथा कूबड़ वाला बैल पूज्य ।

 

बैल, भेड़, बकरी, कुत्ता, बिल्ली मुख्य पशु।

 

भैंस, हाथी, गधे, सूअर, गाय, गैंडे से परिचित ।

 

सिन्धु स्थलों से घोड़े के प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिले हैं। लोथल से घोड़े की मृण्मूर्ति एवं सूरकोटड़ा से घोड़े की हड्डियों के अवशेष मिले हैं।

 

कला –

 

मृद माण्ड- सिंधु सभ्यता के स्थलों से दो प्रकार के मृद भाण्ड- एक बिना डिजायन वाले तथा दूसरे चित्रित मृदभाण्ड पर्याप्त मात्रा में फैले हैं। यहाँ बहुसंख्यक गुलाबी रंग के चमकीले मृद भाण्ड प्राप्त हुए हैं, जिन पर गहरे लाल व काले रंग से चित्र बने हुए हैं।

 

विभिन्न पशु आकृतियों के मिट्टी के खिलौने प्राप्त ।

 

मातृ देवी की अनेक मृण्मूर्तियाँ मिली हैं।

 

सील – मुहरें (सीलें) अधिकांशतः सेलखड़ी (स्टेटाइट-मुलायम पत्थर) की बनी हुई हैं। ये सिंधुवासियों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कलात्मक रचनाएँ हैं। अधिकांशतः वर्गाकार व कुछ आयताकार सीलें या मोहरें प्राप्त हुई हैं। कुछ सीलें हाथीदाँत की भी हैं। सबसे प्रसिद्ध सील पशुपति (योगी) की सील है, जिसके सिर पर सींग अथवा सींगयुक्त मुकुट है तथा वह प‌द्मासन लगाए चौकी पर विराजमान है। इसके दाहिनी ओर एक हाथी और एक बाघ तथा बाईं ओर एक गैंडा व एक भैंसा दर्शाया गया है। मुख्यतः एक सींग वाले बिना कूबड़ वाले सांड की मुहरें मिली हैं साथ ही कुछ कूबड़ वाले बैल की सीलें भी प्राप्त हुई

 

हैं। सीलों का आकार आधा इंच से ढाई इंच तक है। वर्गाकार मुहरों पर जानवरों की आंकृति एवं अभिलेख खुदे हुए हैं तथा आयताकार मुहरों पर केवल संक्षिप्त अभिलेख हैं।

 

मोहनजोदड़ो से 12 सेन्टीमीटर लम्बी एक नर्तकी की काँस्य मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें जूड़ा बाँधे एक युवती नृत्य मुद्रा में दिखाई गई है।

 

हड़प्पा से लाल पत्थर की बनी खड़े नग्न पुरुष की मूर्ति प्राप्त हुई है।

 

पत्थर की मूर्तियों में सर्वोत्तम उदाहरण मोहनजोदड़ो से प्राप्त सेलखड़ी निर्मित दाढ़ी वाले व्यक्ति का है, जिसके वस्त्र-आभूषण सज्जित हैं।

 

इसके अतिरिक्त कपड़े बुनने के तथा सोना चाँदी के आभूषणों की प्राप्ति से सिन्धु सभ्यता में धातु कला के प्रमाण भी मिले हैं।

 

लोथल व देसलपुर से ताँबे की मुहरें भी मिली हैं।

 

व्यापार – चूँकि यह एक नगरीय सभ्यता थी अतएव व्यापार का अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहाँ से कपास, गेहूँ, गन्ना, हाथी दाँत आदि का निर्यात होता था। इसके प्रमाण मेसोपोटामिया (सुमेरिया) क्षेत्र से प्राप्त हड़प्पन सीलें व अभिलेख हैं। सिन्धुवासी सम्भवतः ताँबा गणेश्वर (राजस्थान), सोना कोलार (दक्षिण भारत) व लकड़ी कश्मीर से मँगाते थे। विभिन्न प्रकार की धातुओं का आयात दक्षिण और पूर्वी भारत, कश्मीर, कर्नाटक और नीलगिरी से होता था।

 

उद्योग, व्यापार व वाणिज्य आधारित अर्थव्यवस्था मोहनजोदड़ो से प्राप्त मिट्टी की बैलगाड़ियों के नमूने, हड़प्पा से प्राप्त ताँबे का एक छोटा-सा रथ, सिन्धु घाटी में बिछा हुआ सड़कों का जाल तथा लोथल बंदरगाह के साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि व्यापार जल और थल दोनों ही मार्गों से होता था। सिंधुवासियों के मेसोपोटामिया (या सुमेरिया आधुनिक ईराक), अफगानिस्तान, बहरीन व मध्य एशिया क्षेत्र के साथ व्यापारिक संबंध थे।

 

सिक्कों का प्रचलन न होने के कारण क्रय-विक्रय संम्भवतः वस्तु विनिमय के माध्यम से किया जाता होगा।

 

माप-तौल- हड़प्पावासी व्यावसायिक तथा निर्माण कार्यों में माप-तौल का प्रयोग करते थे। तौल के रूप में प्रयुक्त कई चीजें प्राप्त हुई हैं। तौल पद्धति की एक श्रृंखला 1, 2, 4, 8 से 64 इत्यादि की तथा 16 के दशमलव गुणाजों की थी। सिंधु सभ्यता के नगरों में माप-तौल की इकाईयों में एकरूपता मिलती है।

 

माप चिह्नों से युक्त कई छड़ें (इनमें से एक काँसे की है) प्राप्त की गई हैं। हड़प्पावासी माप की रैखिक प्रणाली के जनक थे, जो कि ‘अर्थशास्त्र’ के अंगुल के बराबर था, जिसका प्रचलन अभी तक भारत में हो रहा है।

 

हड़प्पा में निचली बस्ती में 16 भट्टियाँ मिली हैं तथा एक मिट्टी का मूपा मिला है। संभवतः यहाँ ताँबा गलाने का काम होता था।

सिंधु सभ्यता स्थलों पर प्रयुक्त ईंटों का आकार 4:2:1 के अनुपात में था।

 

सिंधुवासियों के लिए कच्चे माल के स्रोतः

 

चाँदी – अफगानिस्तान व ईरान से।

 

सोना – कोलार (कर्नाटक) की खानों से।

 

ताँबा – मुख्यतः गणेश्वर व जोधपुरा (राजस्थान) से।

 

टिन – अफगानिस्तान व ईरान से।

 

लाजवर्द – गुजरात, अफगानिस्तान से।

 

फिरोजा व जेड – मध्य एशिया से।

 

फ्लिंट व चर्ट प्रस्तर खण्ड- सिंध (पाकिस्तान) की रोड़ी व सख्खूर खदानों से।

 

अलाबास्तर – संभवतः अफगानिस्तान से।

 

धर्म-

 

मुहरों, मुहरों के छापों, ताबीजों तथा ताम्र-गोलियों से हम हड़प्पावासियों की धार्मिक प्रवृत्ति की जानकारी प्राप्त करते हैं। मुख्य पुरुषदेवता ‘पशुपति महादेव (आद्य शिव)’ हुआ करता था, जिसे मुहरों में योगी की मुद्रा में बैठा हुआ, तीन मुखों एवं दो सींगों से युक्त दिखाया गया है। वह चार पशुओं (हाथी, बाघ, बारहसिंगा एवं भैंस, प्रत्येक का मुख अलग-अलग चार दिशाओं में) से घिरा हुआ है तथा दो हिरण उसके पैर के पास बैठे हुए हैं।

 

मुख्य देवी मातृ देवी (पृथ्वी देवी) थी, जिसे टराकोटा मूर्तियों में प्रदर्शित किया गया है। लिंग पूजा के पर्याप्त प्रमाण हैं, जिन्हें बाद में शिव के साथ जोड़ा गया है। लिंग के अतिरिक्त पत्थर की कई योनि आकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। सिंधुवासी देवताओं की पूजा वृक्षों (पीपल आदि) तथा पशुओं (एक सींग वाला तथा बिना कूबड़ का सांड आदि) के रूप में भी करते थे। वे भूत-प्रेतों में विश्वास करते थे तथा उनसे रक्षा के लिए ताबीजों का प्रयोग करते थे। मंदिर के अवशेष नहीं मिले हैं। इस काल में बैल (सांड) को शक्ति के रूप में पूजा जाता था।

 

इसी प्रकार की एक मुहर में एक नाग को योगी की आकृति के साथ दिखाया गया है। एक अन्य धारणा वृक्षात्मा की है जिसे एक पीपल के वृक्ष में दिखाया गया है।

 

सिंधु लोगों के चमकीले बर्तन प्राचीन विश्व में अपनी तरह के प्रथम उदाहरण हैं।

सिंधुवासियों में पूजा प्रथा

 

मातृ देवी की पूजा

 

लिंग पूजा

 

पशुपति (शिव) की पूजा

 

पशु पूजा- कूबड़ युक्त बैल एवं एक सींग वाला बैल।

 

वृक्ष पूजा – पीपल का वृक्ष

 

अग्नि पूजा के परोक्ष प्रमाण (कालीबंगा व लोथल से अग्निकुण्ड की प्राप्ति)

 

अवसान

 

– सिन्धु घाटी सभ्यता के अवसान की दो धारणाएँ हैं-

 

यकायक – बड़ी दुर्धटना जैसे भूकम्प आदि या आक्रमण द्वारा। मार्टिमर व्हीलर का मत है कि आर्यों के आक्रमण ने इस सभ्यता को नष्ट किया।

 

क्रमिक अवसान – जलवायु परिवर्तन के कारण जैसे- बाढ़

 

(मोहनजोदड़ो एवं चहून्दड़ो), नदियों का सूखना (कालीबंगा व बनवाली), भूमि की उर्वरता में कमी, जंगलों का विनाश, भूकम्प आदि। ओरेल स्टीन इस मत के समर्थक हैं।

 

भयंकर बाढ़ या अत्तिवृष्टि से यह सभ्यता नष्ट हुई। इसके प्रमाण जॉन मार्शल, मैके, एस. आर राव, राइक्स आदि ने दिये हैं।

 

अनावृष्टि (सूखा), जलवायु परिवर्तन व नदियों का मार्ग परिवर्तन-इस मत के पक्षधर लेमब्रिक, डेल्स आदि हैं।

 

सिन्धु घाटी सभ्यता की भारत को देन-

 

हल का प्रयोग व जुताई आज भी पश्चिमोत्तर भारत में उसी पद्धति (कालीबंगा की शैली) से जुताई होती है।

 

16 के गुणज में व्यवहृत माप-तौल का पैमाना।

 

केश विन्यास (जूड़ा) – मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति की तरह का केश विन्यास आज भी प्रचलित है।

 

धार्मिक प्रभाव –

 

मातृ देवी की पूजा- इसका रूपान्तरण सनातन धर्म की विभिन्न देवियों के रूप में हुआ।

 

पशुपति शिव की पूजा।

 

पीपल वृक्ष की पूजा

 

पशु पूजा

 

लिंग पूजा

 

 

 महत्त्वपूर्ण तथ्यः

हड़प्पा के सामान्य नगर क्षेत्र (पूर्वी टीले) के दक्षिण में एक ऐसा कब्रिस्तान स्थित है, जिसे R-37 नाम दिया गया है। इसमें 57 कब्रें मिली हैं।’

लोथल (गुजरात) एवं कालीबंगा (राजस्थान) में युग्म समाधियाँ (स्त्री व पुरुष के युग्म शवाधान) मिली हैं।

हड़प्पा की एक मुद्रा पर गरूड़ का अंकन मिला है।

हड़-ना में कछुए की हड्डियाँ तथा गधे की हड्डियाँ भी मिली हैं।

हड़प्पा में तरबूज के बीज पाये गये हैं।

हड़प्पा से सात पासे मिले हैं; जो घनाकार हैं तथा लगभग 3×3 सेमी. के आकार के हैं।

मोहनजोदड़ो से कुल 5 मेसोपोटामियाई मूल की बेलनाकार मुद्रायें मिली हैं। एक मुद्रा पर नाव की आकृति मिली है।

मोहनजोदड़ो से हत्थे के लिए छेद वाला एक बसूला मिला है, जो सिन्धु सभ्यता में विशिष्ट है।

मोहनजोदड़ो से सिल-बट्टा भी मिला है तथा मिट्टी का तराजू मिला है।

मोहनजोदड़ो से हाथी का कपाल-खण्ड भी प्राप्त हुआ है।

मोहनजोदड़ो से कोई कब्रिस्तान नहीं मिला है।

कालीबंगा का अर्थ काली चूड़ियों से है।

कालीबंगा का एक फर्श पूरे हड़प्पा सभ्यता का एकमात्र उदाहरण है, जहाँ अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया

है। इस पर प्रतिच्छेदी वृत्त का अलंकरण है।

भूकम्प का प्राचीनतम साक्ष्य कालीबंगा से प्राप्त हुआ है।

कालीबंगा से कुल 37 कब्रें मिली हैं। एक बच्चे की खोपड़ी मिली है, जिसमें 6 छेद हैं।

कालीबंगा से प्राप्त एक बर्तन पर सूती कपड़ों के साक्ष्य मिले हैं।

कालीबंगा में तंदूरी चूल्हे भी मिले हैं, जो आज भी उस इलाके में प्रयुक्त होते हैं।

लोथल से कुल 20 कब्रें मिली हैं। एक कब्र में मानव के साथ बकरे का भी कंकाल मिला है। तीन कब्रें दो-दो शवों (स्त्री-पुरुष के युग्म शवाधान) वाली भी मिली हैं।

लोथल से हाथी दाँत तथा मनके बनाने का कारखाना भी मिला है।

लोथल से अनेक मकानों में वृत्ताकार या चतुर्भुजाकार ‘अग्नि-स्थान’ पाये गये हैं, जिनमें राख के साथ मृकुण्ड पाये गये हैं। यह यज्ञ के कुण्ड प्रतीत होते हैं। यहाँ एक छोटा-सा दिशा मापक यंत्र मिला है।
 लोथल से एक मृण की ‘ममी’ का उदाहरण प्राप्त हुआ ‘है। कछुए की हड्डियाँ भी मिली हैं।

लोथल से प्राप्त एक मृणमूर्ति में मानव धड़ और पशु का सिर (वर्तमान में नृसिंह अवतार के समान) दिखाया गया है। इसी स्थल से प्राप्त एक गोरिल्ला की आकृति के रूपांकन के साक्ष्य भी हैं।

लोथल से वृत्ताकार चक्की के दो पाट मिले हैं। आटा पीसने की चक्की का यह पूरे सिन्धु सभ्यता का एकमात्र उदाहरण है।

लोथल से मेसोपोटामिया मूल की तीन बेलनाकार मुहरें तथा फारस की मोहर भी मिली है।

लोथल से मृदभाण्ड पर एक ऐसा साक्ष्य प्राप्त हुआ है, जो पंचतंत्र के ‘चालाक लोमड़ी’ के समान उदाहरण प्रस्तुत करता है।

लोथल में पैमाने तथा मिट्टी के बने ‘साहुल’ मिले हैं।

चहुँदड़ो में पकी मिट्टी के पाइप वाली नालियों के उदाहरण एवं लिपस्टिक के साक्ष्य भी मिले हैं।

कोटदिजी में पत्थर के बाणाग्र मिले हैं, जो किसी अन्य सिंधु स्थल पर नहीं मिले हैं।

रंगपुर आजादी के बाद भारत का खोजा जाने वाला प्रथम सिंधु स्थल है।

रंगपुर में मातृदेवी की मूर्ति और मुद्राएँ नहीं मिली हैं। यहाँ चावल की भूसी एवं बाजरे का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

धौलावीरा में 1000 वर्षों के क्रमिक विकास के साक्ष्य मिले हैं।

धौलावीरा में आवागमन हेतु प्राचीर युक्त क्षेत्रों में 14 विशाल द्वार मिले हैं। यहाँ कुल 16 छोटे-बड़े जलाशय मिले हैं। पूर्वी भाग में एक विशाल जलाशय (70×24×7.5 मीटर) मिला है, जिसमें जाने हेतु 31 सीढ़ियाँ हैं।

यहाँ प्राप्त सर्वाधिक उल्लेखनीय पुरावशेष स्टेडियम है, जो पूर्व से पश्चिम में 283 मी. तथा उत्तर से दक्षिण में 45 से 47.5 मी. का है।

मालवण (सूरत, गुजरात) में प्रथम काल में पूर्व से पश्चिम की तरफ जाती हुई एक खाई 1.5 मीटर चौड़ी तथा 18.30 मीटर लम्बी, मिली है। विद्वान इसे सिंचाई की नहर कहते हैं।

बनवाली (हरियाणा) को समृद्धों का शहर भी कहते है।

यहाँ बड़े-बड़े आवासों के साथ-साथ घरों से ‘वॉश बेसिन’ का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। यहाँ शहर का उच्च नगर एवं निम्न नगर में विभाजन नहीं मिला है बल्कि संपूर्ण नगर एक ही प्राचीर से घिरा हुआ है।

बनवाली में नगर नियोजन शतरंज की बिसात या जाल के आकार में मिला है। इसकी सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर नहीं काटती हैं, जबकि अन्य शहरों में सड़कें समकोण पर काटती हैं। नगर में पानी के निकास हेतु नालियों का अभाव देखा गया है।

बनवाली में मिट्टी के खिलौने की तरह एक ‘हल’ मिला है। यहाँ (बनवाली में) तांबे के बाणाग्र, उस्तरे, मनके-चर्ट फलक, कार्नीलियन, गोमेद तथा कांचली मिट्टी और मिट्टी के अवशेष प्राप्त हुए हैं। अच्छी किस्म के ‘जौ’ भी मिले हैं। यहाँ बैलगाड़ी के पहिये के निशान भी मिले हैं।

मीठाथल से पानपात्र और चंचुक प्रकार के बर्तन, शंख की चूड़ियाँ तथा पत्थर की अँगूठी पायी गयी है।

आलमगीरपुर हड़प्पा सभ्यता का पूर्वी छोर माना जाता है।

बालाकोट से सीप उद्योग का साक्ष्य प्राप्त हुआ है, क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में सीप की बनायी हुई चीजें प्राप्त हुई हैं।

माण्डा संभवतः पूरे हड़प्पा क्षेत्र के लिए इमारती लकड़ियों की आपूर्ति करता रहा होगा।

यहाँ से एक उल्लेखनीय साक्ष्य यह है कि एक बस्ती को सुरक्षा हेतु बड़े-बड़े पत्थरों से घेर दिया गया है।

हड़प्पा सभ्यता का दक्षिणतम छोर, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के पास स्थित दायमाबाद है। यहाँ से एक ऐसी सुरक्षा प्राचीर का साक्ष्य प्राप्त हुआ है, जिसमें स्थान-स्थान पर ‘बुर्ज’ बने हुये हैं।

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