पादपकार्यिकी
परासरण (Osmosis)

  • विलेय: घुलने वाला पदार्थ
  • विलायक: घोलने वाला पदार्थ (सामान्यतः जल)
  • विलयन: विलेय एवं विलायक का मिश्रण
  • सान्द्रता: पदार्थ की मात्रा
    किसी विलायक का अपनी अधिक मात्रा या सान्द्रता से निम्न मात्रा या सान्द्रता की तरफ अर्द्धपारगम्य झिल्ली से होकर गुजरना परासरण कहलाता है।
    परासरण क्रिया के दौरान जल अर्द्धपारगम्य झिल्ली से होकर गुज़रता है।
  • थिसिल कीप चर्म पत्र प्रयोग परासरण से संबंधित है।
  • फेफर परासरणमापी भी परासरण से संबंधित है।
  • परासरणी दाब को सामान्यतः वायुमण्डलीय दाब के रूप में प्रकट किया जाता है।
  • परासरणी दाब की इकाई बार (Bars) है। 1 atm = 1.01 bars
    वांट हाफ का परासरणी दाब ज्ञात करने का सूत्र निम्न है-
    P V = n R T
    यहाँ:
  • P = परासरणी दाब
  • V = विलयन का आयतन
  • n = विलेय के मोलों की संख्या
  • R = गैस स्थिरांक (0.082 लीटर atm / मोल)
  • T = शुद्ध ताप (केल्विन में)
    उदाहरण: 1 मोल विलेय का 1 लीटर विलायक में 0°C या 273 K ताप पर परासरणी दाब कितना होगा?
    P \times 1 = 1 \times 0.082 \times 273
    P = 22.386 \text{ atm}
    P \approx 22.4 \text{ atm} या 22.7 \text{ bar}
    विलयनों के प्रकार-
    (i) उच्च परासरी विलयन / अतिपरासरी विलयन (Hypertonic Solution)
    (ii) अल्प परासरी विलयन (Hypotonic Solution)
    (iii) सम परासरी विलयन (Isotonic Solution)
    परासरण के प्रकार-
    (i) अंतः परासरण (Endosmosis): जब जल कोशिका के अंदर प्रवेश करता है, तो इस क्रिया को अंतः परासरण कहते हैं। इस क्रिया में विलयन अल्प परासरी होता है।
    जैसे- किशमिश को पानी में रखने पर किशमिश का फूलना।
    (ii) बहिः परासरण (Exosmosis): जब जल कोशिका से बाहर निकलता है, तो इस क्रिया को बहिः परासरण कहते हैं। इस क्रिया में विलयन उच्च परासरी होता है।
    जैसे- अंगूर को चाशनी के घोल में रखने पर अंगूर का सिकुड़ना (पिचकना)।
    परासरण का महत्त्व –
  • जड़ों में उपस्थित मूल रोमों द्वारा जल का अवशोषण परासरण के कारण ही होता है।
  • पादपों में वाष्पोत्सर्जन के समय रंध्रों का खुलना व बंद होना परासरण द्वारा ही होता है।
  • परासरण के द्वारा फलों व बीजों का स्फुटन तथा प्रकीर्णन होता है।

पादपों में जल अवशोषण (Water absorption in plants)
जीवन का उद्भव जलीय वातावरण में ही हुआ था। उद्विकास के दौरान जीवन पूर्ण रूप से जल पर ही निर्भर होकर रह गया है। इस कारण जल को जीवन द्रव्य कहा जाता है। निम्न वर्ग पादपों जैसे शैवालों (algae) में जल अवशोषण कोशिकीय सतह से, ब्रायोफाइट्स (bryophytes) में मूलाभासों (rhizoids) से, टेरिडोफाइट्स (pteridophytes), अनावृतबीजी (gymnosperms) तथा आवृतबीजी (angiosperms) पादपों में जल-अवशोषण सुविकसित जड़ों द्वारा होता है। पौधों को प्रायः मृदा में उपस्थित जल ही प्राप्त होता है। मूलों में पाये जाने वाले एक कोशिकीय मूल रोमों (unicellular root hairs) एवं मृदा में पाये जाने वाले कवक मूल (mycorrhiza) जड़ों के जल अवशोषण की सतह का विस्तार करते हैं। पादपों में जल मूल रोम से वल्कुट, अन्तरत्वचा से होते हुए दारू-वाहिकाओं (xylem vessels) में पहुँचता है। जल का यह मृदा से मूलरोम → वल्कुट → अंतस्त्वचा → जायलम वाहिकाओं तक प्रवाह जल का पार्श्वीय प्रवाह (lateral movement of water) कहलाता है तथा यह निम्न तीन पथों (pathways) द्वारा सम्पन्न होता है-

  • एपोप्लास्ट पथ (Apoplast pathway)
  • सिमप्लास्ट पथ (Symplast pathway)
  • रसधानीय पथ (Vacuolar pathway)
  1. एपोप्लास्ट पथ (Apoplast pathway/Non-living pathway)
    पादपों में जल का प्रवाह जब कोशिका भित्तियों तथा कोशिकाओं के मध्य उपस्थित अन्तर कोशिकीय अवकाशों के द्वारा (निर्जीव पथ) होता है तो इस मार्ग को एपोप्लास्ट पथ तथा जल का यह प्रवाह एपोप्लास्टिक प्रवाह कहलाता है। इस प्रवाह को अजीवित प्रवाह भी कहते हैं। अधिकांश पादपों की कोशिका भित्तियाँ पूर्ण रूप से जल के प्रति पारगम्य होती हैं। जल का इस प्रकार होने वाला प्रवाह अनियंत्रित एवं विसरण के द्वारा होता है तथा इसमें ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है। पादपों की जड़ों में पाई जाने वाली अन्तरत्वचा की कोशिका भित्तियों में कैस्परी पट्टिकाएँ (casparian strips) पायी जाती हैं, जिनमें सुबेरिन (suberin) उपस्थित होता है, अतः अन्तरत्वचा से आगे इस विधि द्वारा जल प्रवाह नहीं हो सकता। अंतरत्वचा से आगे जल का प्रवाह कोशिका कलाओं द्वारा सम्पन्न होता है। जल के इस प्रवाह को पराझिल्लीय प्रवाह (transmembranous flow) कहते हैं। वल्कुटीय कोशिकाओं में अधिकांश जल प्रवाह इस विधि से ही होता है।
  2. सिमप्लास्ट पथ (सजीव पथ) (Symplast/Living pathway)
    जब जल एवं आयन एक कोशिका से दूसरी कोशिका में प्लाज्मोडेस्मेटा (Plasmodesmata) से होते हुये प्रवाहित होते हैं तो इसे सिमप्लास्टिक प्रवाह कहते हैं। इस प्रकार का प्रवाह परासरण की क्रिया द्वारा होता है तथा इसमें ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  3. रसधानी पथ (Vacuolar pathway)
    इस प्रकार के प्रवाह में जल एक कोशिका से दूसरी कोशिका में जीवद्रव्य कला के द्वारा प्रवेश करता है न कि प्लाज्मोडेस्मेटा के द्वारा। यह प्रक्रिया भी परासरण द्वारा सम्पन्न होती है तथा इसमें भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह एक प्रकार से सिमप्लास्ट पथ का प्रकार है। इसमें जल टोनोप्लास्ट से होकर गुजरता है।
    मृदा जल
    अधिकांश पादपों में जल की आपूर्ति मृदा में उपस्थित जल के द्वारा ही होती है। मृदा जल का मुख्य स्रोत वर्षा का जल है। तेज वर्षा के बाद अधिकांश जल बहकर नदी, तालाबों, पोखरों एवं समुद्रों में चला जाता है, जो अपवाहित जल (running water) कहलाता है। हल्की वर्षा के जल का अधिकांश भाग मृदा द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है, जिसे मृदा जल कहते हैं।
    मृदा में उपस्थित जल कई प्रकार का होता है। इन सभी प्रकारों में से केशिका जल का अवशोषण जड़ों के द्वारा किया जाता है इसलिए इसे प्राप्य जल कहते हैं।
    पादपों में जल अवशोषण करने वाले अंग
    स्थलीय पादपों में जल का अवशोषण मुख्य रूप से जड़ों द्वारा ही होता है। मृदा से जल अवशोषण में जड़ के वर्धन प्रदेश में पाया जाने वाला मूलरोम क्षेत्र मुख्य भूमिका निभाता है। मूलरोम क्षेत्र कोशिका वर्धन क्षेत्र के ठीक पीछे स्थित होता है। यह जड़ का 1.0-5.0 सेमी. लम्बाई का क्षेत्र है। जड़ द्वारा जल अवशोषण की मात्रा मूलरोम क्षेत्र में पाये जाने वाले मूल रोमों की संख्या व संरचना पर निर्भर करती है। इस प्रदेश में प्रति वर्ग मि.मी. क्षेत्र में लगभग 200 से 300 मूल रोम पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में दारू (xylem) पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता तथा अधस्त्वचा (hypodermis) व अन्तरत्वचा (endodermis) जल के प्रति पूर्ण रूप से पारगम्य होती है। जिससे इस क्षेत्र में अवशोषण की दर व मात्रा अधिक होती है। अधिकांश अधिपादपों (epiphytes) में आर्द्रता-ग्राही जड़ों में पाये जाने वाले विलामेन (velamen) ऊतक के द्वारा वातावरण में उपस्थित नमी का अवशोषण होता है।
    रसारोहण (Ascent of sap)
    पौधों में मूलरोमों द्वारा अवशोषित जल तनों व शाखाओं से होते हुये शीर्ष भागों तक पहुँचता है। जल व खनिजों का मूलरोम से पादप शीर्ष तक गुरुत्वाकर्षण के विपरीत दिशा में प्रवाह रसारोहण (ascent of sap) कहलाता है। रसारोहण की इस क्रिया को समझने से पहले रसारोहण के मार्ग को समझना आवश्यक है।
  4. रसारोहण का मार्ग (Path of ascent of sap):
    पौधों में जल का प्रवाह जायलम वाहिकाओं (xylem vessels) तथा जायलम वाहिनिकाओं (xylem tracheids) के द्वारा होता है जो निम्न प्रयोग द्वारा समझाया जा सकता है-
    प्रयोग: एक बीकर में इओसिन (इओसिन एक अभिरंजक है जो अभिरंजन प्रदान करता है) विलयन को लेकर उसमें बालसम (Balsam) पादप की शाखा लगा देते हैं। कुछ समय बाद देखते हैं कि बालसम की पत्तियों के पर्णवृंत का अनुप्रस्थ काट काटकर अवलोकन करने पर पता चलता है कि जायलम वाहिकाएं व वाहिनिकाएं ही अभिरंजित होती हैं। अतः उक्त प्रयोग से स्पष्ट है कि पादपों में रसारोहण केवल जायलम ऊतकों द्वारा ही होता है।
  5. रसारोहण की क्रियाविधि (Mechanism of ascent of sap):
    पौधों में जल के 100 मीटर से भी अधिक ऊँचाई तक गुरुत्वाकर्षण के विपरीत होने वाले लम्बवत प्रवाह को समझाने के लिए समय-समय पर कई सिद्धान्त प्रतिपादित किए गये जिनमें से प्रमुख निम्न हैं-
    (i) जैवशक्ति वाद (Vital force theory): इस सिद्धान्त के अनुसार पौधों में रसारोहण तने की जीवित कोशिकाओं में होने वाली क्रियाओं के कारण होता है। जैव शक्तिवाद प्रतिपादित करने वाले प्रमुख वैज्ञानिक वेस्टरमीयर (Westermaier), गाडलेवस्की (Godlewski, 1884) व भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बोस हैं। सर जे.सी. बोस ने विद्युत प्रोब का उपयोग कर यह बताया कि जल का प्रवाह/रसारोहण पौधे की वल्कुट की अन्तिम पर्त की कोशिकाओं में स्पन्दन (pulsation) के कारण होता है।
    स्ट्रासबर्गर (Strasburger) के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हुआ कि जैव शक्तिवाद अवधारणाएं रसारोहण के लिए निराधार हैं।
    (ii) मूल दाब (Root pressure): मूल में वल्कुट की कोशिकाओं की स्फीति दशा में अपने कोशिका द्रव्य पर पड़ने वाला वह दाब जिसके कारण उसमें उपस्थित जल वाहिकाओं से होते हुए तने में कुछ ऊँचाई तक ऊपर चढ़ता है, मूल दाब कहलाता है। मूलरोमों द्वारा मृदा से अवशोषित जल पार्श्व प्रवाह द्वारा जड़ के वल्कुट की कोशिकाओं में एकत्रित हो जाता है, जिससे वल्कुट की कोशिकाएं स्फीति अवस्था में आ जाती हैं। इन कोशिकाओं की भित्ति प्रत्यास्थ होने के कारण कोशिका द्रव्य पर दबाव डालती है। जिससे जल जायलम ऊतकों में प्रवेश कर आता है व तने में कुछ ऊँचाई तक ऊपर चढ़ जाता है। इस प्रकार मूल दाब भी रसारोहण में सहायक होता है।
    (iii) भौतिक वाद (Physical theory): पौधों में रसारोहण की प्रक्रिया को समझने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर कई भौतिक वाद प्रतिपादित किए गये जिनमें से वाष्पोत्सर्जनाकर्षण व जलीय संसंजन वाद प्रमुख हैं। यह सिद्धान्त 1894 में डिक्सन (Dixon) व जॉली (Jolly) ने प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त के द्वारा ऊँचे से ऊँचे पौधों में रसारोहण की क्रिया को समझाया जा सकता है। रसारोहण के इस सिद्धान्त को निम्नानुसार समझाया जा सकता है-
  • वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (Transpiration pull): वाष्पोत्सर्जन के दौरान जब पर्णमध्योतक की कोशिकाओं की भित्तियों से जल वाष्पित होकर निकल जाता है तब पर्णमध्योतक कोशिकाओं की परासरण सांद्रता व जल के अणुओं की विसरण दाब न्यूनता अधिक हो जाती है। अतः इस समय जल जायलम वाहिकाओं से परासरण द्वारा पर्णमध्योतक कोशिकाओं में प्रवेश करता है जिससे जायलम वाहिकाओं में एक तनाव उत्पन्न होता है। यह तनाव पौधों की पत्तियों द्वारा होने वाले वाष्पोत्सर्जन के कारण होता है। इस कारण इसे वाष्पोत्सर्जनाकर्षण कहते हैं।
  • जल का संसंजन (Cohesion of water): जल के अणुओं में प्रबल पारस्परिक आकर्षण बल होता है। यह आकर्षण संसंजन (cohesion) कहलाता है। इस संसंजन बल के कारण जल का स्तम्भ आसानी से नहीं टूटता है। जल को जब लम्बी नलियों में रखते हैं तो यह बल अधिक प्रभावी होता है।
    अतः पत्तियों में वाष्पोत्सर्जन द्वारा उत्पन्न तनाव वाहिकाओं में उपस्थित जल पर पड़ता है तो यह जल ऊपर की ओर खिंचता है। क्योंकि जल के अणुओं के मध्य प्रबल संसंजन बल पाया जाता है जिससे जल का स्तम्भ (column) टूटता नहीं है तथा जल एक अखण्ड स्तम्भ के रूप में पौधे के शीर्ष तक पहुँच जाता है। इस प्रक्रिया में जायलम की वाहिकाएं व वाहिनिकाएँ निष्क्रिय नलिकाओं की तरह कार्य करती हैं। इस सिद्धान्त के द्वारा ऊँचे से ऊँचे पौधे में रसारोहण को समझाया जा सकता है। रसारोहण की क्रिया को समझाने के लिए यह सिद्धान्त सर्वमान्य है।
    वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)
    पादप अपनी जड़ों के द्वारा मृदा से अत्यधिक मात्रा में जल अवशोषित करते हैं। इस अवशोषित जल की बहुत कम मात्रा का उपयोग पादप अपनी उपापचयी क्रियाओं में करते हैं जो अवशोषित जल का लगभग 5 प्रतिशत है। शेष 95 प्रतिशत जल जलवाष्प के रूप में वातावरण में चला जाता है। अतः पादप के वायवीय भागों द्वारा जलवाष्प के रूप में होने वाली जल-हानि को वाष्पोत्सर्जन कहते हैं।
  1. वाष्पोत्सर्जन के प्रकार (Types of transpiration)
    वाष्पोत्सर्जन के क्रिया में भाग लेने वाले पादप भागों व संरचनाओं के आधार पर वाष्पोत्सर्जन निम्न तीन प्रकार का होता है-
    (i) रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal transpiration): पत्तियों की निचली अथवा ऊपरी सतह पर पाये जाने वाले छोटे-छोटे छिद्रों को रंध्र कहते हैं। रंध्र तरुण स्तम्भ पर भी पाये जाते हैं। पौधों से 80-90 प्रतिशत तक वाष्पोत्सर्जन रंध्रों के द्वारा ही होता है, जो कि प्रमुखता से पत्ती पर पाये जाते हैं। इस कारण इसे फोलियर वाष्पोत्सर्जन भी कहा जाता है।
    (ii) उपत्वचीय वाष्पोत्सर्जन (Cuticular transpiration): उपत्वचा क्यूटिन की बनी परत है जो अधिचर्म को ढके रहती है। क्यूटिकल सामान्यतयाः वाष्पोत्सर्जन को कम करती है परन्तु यह शत प्रतिशत अपारगम्य नहीं होने के कारण वाष्पोत्सर्जन को रोक नहीं सकती। साधारण अवस्थाओं में पत्तियों द्वारा होने वाली सम्पूर्ण वाष्पोत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत उपत्वचा (क्यूटिकल) द्वारा होता है।
    (iii) वातरंध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Lenticular transpiration): अधिकांश पौधों के तनों में वातरंध्र पाये जाते हैं। कुछ जल, वाष्प के रूप में इन वातरंध्रों से वातावरण में निकल जाता है। वातरंध्रों द्वारा निकलने वाले जल की मात्रा महत्वहीन होती है। पादप द्वारा होने वाली सम्पूर्ण जल की हानि का लगभग 0.1 प्रतिशत वातरंध्रों द्वारा होती है।
    रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन (Stomatal transpiration)
    सम्पूर्ण वाष्पोत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत रंध्रों द्वारा होता है। जड़ों द्वारा अवशोषित जल जायलम से होते हुए पत्तियों की पर्णमध्योतक कोशिकाओं (mesophyll cells) तक पहुँचता है। इन कोशिकाओं में अंतरकोशिकीय अवकाश (intercellular spaces) बड़े-बड़े होते हैं। पर्णमध्योतक कोशिकाओं की सतह द्वारा वाष्पित जल इन अवकाशों में इकट्ठा हो जाता है जो कि विसरण की क्रिया विधि के द्वारा बाह्य वातावरण में चला जाता है। यह रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन की क्रिया विधि है।
    (i) रंध्रों की संरचना (structure of stomata)
    पत्तियों व तरुण स्तम्भ की बाह्य त्वचा (epidermis) पर पाये जाने वाले छोटे-छोटे छिद्र रंध्र कहलाते हैं। इनकी बनावट भिन्न-भिन्न होती है। पत्ती की सतह पर रंध्रों की संख्या 1000 से 60000 प्रति वर्ग सेमी. तक हो सकती है। पूर्ण रूप से खुले रंध्रों का आकार 3 से 12 \mu m होता है। रंध्र छिद्र चारों ओर से गुर्दे अथवा सेम के बीज के आकार की बाह्यत्वचीय कोशिकाओं से घिरा रहता है जिन्हें द्वार कोशिकाएं (guard cells) कहते हैं। द्वार कोशिका की आन्तरिक भित्ति मोटी एवं प्रत्यास्थ (elastic) होती है। द्वार कोशिका का यही लक्षण रंध्रों के खुलने व बंद होने को नियन्त्रित करता है। द्वार कोशिका एक या एक से अधिक रूपान्तरित अधिचर्म कोशिकाओं से घिरी रहती है जिन्हें उप अथवा गौण कोशिकाएं (subsidiary cells) कहते हैं।
    (ii) रंध्रों का वितरण (Distribution of stomata)
    अधिकांशतः रंध्र पत्ती की निचली सतह पर पाये जाते हैं परन्तु ये दोनों सतहों पर भी उपस्थित हो सकते हैं। कुछ जलमग्न जलोद्भिद पादपों को छोड़कर सभी आवृत व अनावृतबीजी पादपों में क्रियाशील रंध्र पाये जाते हैं। पत्ती की सतह पर वितरण के आधार पर रंध्र निम्न प्रकार के होते हैं-
    (क) सेब प्रकार (Apple type): रंध्र केवल पत्ती की निचली सतह पर ही पाये जाते हैं तथा इस प्रकार की पत्तियां अधोरंध्री (hypostomatic) कहलाती हैं। उदाहरण: सेब।
    (ख) आलू प्रकार (Potato type): इस प्रकार के रंध्र पत्ती की दोनों सतहों पर पाये जाते हैं परन्तु रंध्रों की संख्या निचली सतह पर ऊपरी सतह की तुलना में अधिक होती है। इस प्रकार की पत्ती उभयरंध्री (amphistomatic) कहलाती है। उदाहरण: आलू, टमाटर, बैंगन आदि।
    (ग) जई प्रकार (Oat type): रंध्र पत्ती की दोनों सतहों पर समान रूप से वितरित रहते हैं। इस प्रकार की पत्ती भी उभयरंध्री पत्ती कहलाती है। उदाहरण: जई।
    (घ) जल लिली प्रकार (Water lily type): रंध्र केवल पत्ती की ऊपरी सतह पर ही पाये जाते हैं। इस प्रकार की पत्तियां उपरिरंध्री (epistomatic) कहलाती हैं। उदाहरण: जल लिली एवं अन्य प्लावी पौधे।
    (ङ) पोटेमोजिटोन प्रकार (Potamogeton type): रंध्र सामान्यतः अनुपस्थित होते हैं। यदि उपस्थित होते हैं तो कार्यहीन (vestigeal) अवस्था में होते हैं। उदाहरण: पोटेमोजिटोन एवं अन्य जलनिमग्न पौधे।
    (iii) रंध्रों के खुलने व बंद होने की क्रियाविधि (Mechanism of opening and closing of stomata)
    रंध्रों के खुलने व बंद होने की क्रिया द्वार कोशिका में विलेयों (solutes) की सांद्रता पर निर्भर करती है। जब द्वार कोशिकाओं में विलेयों की सांद्रता बढ़ जाती है (विलेय आस-पास की अधित्वचा व पर्ण मध्योतक कोशिकाओं से द्वार कोशिकाओं में आते हैं) जिससे द्वार कोशिका के परासरण विभव (osmotic potential) व जल विभव (water potential) में कमी आ जाती है एवं द्वार कोशिका व आसपास की कोशिकाओं के मध्य जल विभव प्रवणता (water potential gradient) उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में जल परासरण द्वारा द्वार कोशिका में प्रवेश करता है। इस कारण स्फीति (turgid) अवस्था में आ जाती है व रंध्र खुल जाते हैं। द्वार कोशिका में से जल जब पास की कोशिकाओं में बाहर निकल जाता है व द्वार कोशिका श्लथ (flaccid) अवस्था में आ जाती है तथा रंध्र बंद हो जाते हैं। अतः रंध्रों का खुलना व बंद होना द्वार कोशिकाओं से जल का परासरणीय प्रवाह (osmotic flow) द्वारा अन्दर व बाहर निकलने पर निर्भर करता है।
    रंध्रों के खुलने व बंद होने की प्रक्रिया को समझाने के लिए कई अवधारणाएं दी गई जिनमें से मुख्य हैं-
    (क) स्टार्च शर्करा परिवर्तन मत (Starch \rightleftharpoons sugar hypothesis): लॉयड (Lloyd, 1908) के अनुसार अँधेरे में द्वार कोशिकाओं में स्टार्च की मात्रा अधिक होती है तथा प्रकाश में कम। जबकि दूसरी अधिचर्म कोशिकाओं में इसका उल्टा होता है। इन्होंने यह भी बताया की द्वार कोशिका की स्फीतिता उसकी परासरण सांद्रता पर निर्भर करती है जो स्टार्च व शर्करा के अन्तः रूपान्तरण (interconversion) पर निर्भर करती है। प्रकाश की उपस्थिति में स्टार्च का रूपान्तरण शर्करा में हो जाता है तथा द्वार कोशिका की परासरण सांद्रता बढ़ जाती है तथा अँधेरे में शर्करा, स्टार्च में रूपान्तरित होने के कारण द्वार कोशिका की परासरण सांद्रता घट जाती है। जिससे द्वार कोशिका से जल आस-पास की कोशिकाओं में चला जाता है व रंध्र बंद हो जाते हैं।
    सेयरे (Sayre, 1926) ने बताया कि स्टार्च का शर्करा में अन्तः परिवर्तन pH पर निर्भर करता है। उच्च pH (7) पर रंध्र खुलते हैं जबकि कम pH (5) पर रंध्र बंद हो जाते हैं। स्टीवार्ड (Steward, 1964) ने रंध्रों की गति को समझाने के लिए स्टार्च ग्लूकोज सिद्धान्त दिया। उपरोक्त अवधारणाएं सर्वमान्य नहीं हैं।
    (ख) सक्रिय K+ आयन स्थानान्तरण सिद्धान्त (Active K+ ion transport theory): सक्रिय K+ आयन सिद्धान्त सर्वप्रथम एस. इमामूरा व एम. फूजीनो (S. Imamura and M. Fujino) ने 1959 में किया था। इस सिद्धान्त को लेविट (Levitt, 1974) ने रूपान्तरित किया। जिसका अनुमोदन रस्च्के व बोललिंग (Raschke and Bowling, 1976) ने किया। यह सबसे आधुनिक व सर्वमान्य सिद्धान्त है।
    इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकाश में द्वार कोशिकाओं में मैलिक अम्ल बनता है, जो वियोजित होकर मैलेट व H+ बनाता है। K+ द्वार कोशिका के अन्दर आते हैं तथा H+बाहर निकलते हैं। द्वार कोशिकाओं में ये पोटेशियम आयन मैलेट से क्रिया कर पोटेशियम मैलेट का निर्माण करते हैं जो द्वार कोशिका की परासरण सांद्रता को बढ़ाता है। जिससे जल प्रवाह पास की कोशिकाओं से द्वार कोशिका में होता है जिससे ये कोशिकाएं स्फीति अवस्था में आ जाती हैं व रंध्र खुल जाते हैं। रात्रि में अँधेरे में द्वार कोशिकाओं में CO_2 की सांद्रता बढ़ जाती है क्योंकि प्रकाश संश्लेषण रूक जाता है। मैलिक अम्ल स्टार्च में बदल जाने के कारण द्वार कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता कम हो जाती है जिससे बहि परासरण के कारण जल बाहर प्रवाहित होता है व द्वार कोशिकाएं श्लथ अवस्था में आ जाती हैं एवं रंध्र बंद हो जाते हैं।
    प्रकाश संश्लेषण
    स्वपोषी जीव (हरे पौधे) वातावरण से सरल अणुओं (पानी व कार्बनडाइऑक्साइड) को ग्रहण करते हैं।
    उनसे यह कार्बनिक पदार्थ का संश्लेषण करते हैं।
    इसके लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से प्राप्त करते हैं।
    यह क्रिया “प्रकाश संश्लेषण” (Photosynthesis) कहलाती है।
    प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक कच्चे पदार्थ (Raw Material for Photosynthesis)
    (a) कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon dioxide, CO2
    प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में शर्करा के निर्माण के लिए CO2 कच्चे माल के लिए प्रयुक्त होते हैं।
    (b) जल (Water)
    जल से हाइड्रोजन प्राप्त होता है जो कि कार्बनडाइऑक्साइड का अपचयन करते हैं।
    (c) पर्णहरित (Chlorophyll)
    पत्तियों में हरे रंग का जो वर्णक होता है उसे पर्णहरित (Chlorophyll) कहते हैं।
    क्लोरोप्लास्ट को प्रकाश संश्लेषी अंगक (Photosynthetic Organelle) कहते हैं।
    कुछ जलमग्न पौधे जैसे ‘हाइड्रिला’ में पूरी काया प्रकाश संश्लेषी होती है।
    प्रकाश संश्लेषण की क्रियाविधि (Mechanism of Photosynthesis)
    यह एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है।
    इसमें NADP तथा ADP अत्यावश्यक पदार्थ हैं।
    NADP एक हाइड्रोजन ग्राही पदार्थ है।
    ADP ऊर्जा की उपस्थिति में अणु से संयोग कर ATP में परिवर्तित हो जाता है।
    प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया के भाग
    (a) प्रकाशित अभिक्रिया (Light Reaction)
    (b) अप्रकाशित अभिक्रिया (Dark Reaction)
    प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Photosynthesis)
    (A) प्रकाश (Light)
    (i) प्रकाश गुण (Quality of Light): लाल और नीले प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण अधिकतम होता है। पराबैंगनी, हरी, पीली व अवरक्त प्रकाश में यह क्रिया नहीं होती है।
    (ii) प्रकाश तीव्रता (Light Intensity): प्रकाश तीव्रता को 500 से 3000 फुट कैंडिल तक बढ़ाया जा सकता है।
    (iii) प्रकाश अवधि (Light Duration): वायुमंडल में CO2 की मात्रा सामान्य से 15-20 गुना बढ़ जाए तो प्रकाश संश्लेषण की दर बढ़ जाती है।
    (B) तापमान (Temperature)
    40°C से ऊपर लवक व एन्जाइमों में विकृति होने लगती है।
    (C) जल (Water)
    जल की अत्यधिक कमी होने के कारण रंध्र बंद हो जाते हैं।
    CO2 न मिल पाने से प्रकाश संश्लेषण में कमी आती है।
    (D) ऑक्सीजन सांद्रता (Oxygen Concentration)
    ऑक्सीजन की अधिकता होने पर ‘रूपबस्को’ एन्जाइम की प्रकाश संश्लेषण की क्रियाशीलता घट जाती है।
    (E) आन्तरिक कारक (Internal Factors)
    क्लोरोफिल की मात्रा, खनिज लवणों की उपलब्धता, जीवद्रव्य में जल की मात्रा में कमी होने पर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
    श्वसन
    श्वसन की क्रिया सामान्यतः दो पदों में पूरी होती है।
  • ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis)
  • क्रेब्स चक्र (Krebs Cycle)
  1. ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis)
    इस चरण में ग्लूकोस के एक अणु से पाइरुविक अम्ल के दो अणुओं का निर्माण होता है।
    इसमें ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है।
    इसके द्वारा डाइफॉस्फेट नामक यौगिक का निर्माण किया जाता है।
    इसके पूरे चरण में ADP के दो अणु खर्च होकर ATP के चार अणु बनाते हैं।
    कुल 2 ATP का शुद्ध लाभ होता है।
  2. क्रेब्स चक्र (Krebs cycle)

    इस चरण की सारी अभिक्रियाएँ यूकैरियोटी जीवों में माइटोकॉन्ड्रिया में तथा प्रोकैरियोटी जीवों में कोशिका कला पर होती हैं।

    क्रेब्स चक्र में होने वाले प्रमुख परिवर्तन:

    (i) पाइरुविक अम्ल कोएन्जाइम A से संयुक्त होकर ऐसीटाइल कोएन्जाइम A (Acetyl Coenzyme A) बनाता है।

    (ii) ऐसीटाइल कोएन्जाइम A अब कोशिका में उपस्थित ऑक्जैलो एसीटिक अम्ल व जल से क्रिया करके साइट्रिक अम्ल बनता है।

    (iii) साइट्रिक अम्ल का क्रेब्स चक्र में धीरे-धीरे कई अभिक्रियाओं के माध्यम से क्रमबद्ध विघटन होता है। इन परिवर्तनों के दौरान CO2 के 2 अणु व हाइड्रोजन के 8 परमाणु मुक्त होते हैं।

    (iv) अन्त में मैलिक अम्ल का परिवर्तन ऑक्जैलोग्लिसरिक अम्ल में होता है। यह पुनः दूसरे पाइरूविक अम्ल के अणु के साथ संयुक्त होकर क्रेब्स चक्र में पुनः प्रवेश करता है।

    ऊर्जा का उत्पादन (Production of Energy)

    जीवधारी ऑक्सीजन बाहरी वातावरण से ग्रहण करते हैं।

    जीवधारी इस CO2 को शरीर से बाहर निकालते हैं।

    अतः वातावरण व जीवधारियों के बीच O2 व CO2 का विनिमय होता है।

    पानी में डूबे पौधे व सूक्ष्म जीवों में विनिमय विसरण द्वारा होता है।

    नोट:-

    जब हम सांस लेते हैं तो O2 वाली वायु फेफड़ों में जाती है।

    यह रक्त द्वारा अवशोषित कर ली जाती है।

    O2 रक्त धमनियों द्वारा विभिन्न ऊतक की कोशिकाओं तक ऑक्सीजन पहुँचाती है।

    Co2 विभुक्त होती है जो रक्त द्वारा फेफड़ों में ला कर सांस द्वारा निकाला जाता है।

    प्रकाश संश्लेषण बनाम श्वसन
    विशेषता प्रकाश संश्लेषण श्वसन
    1. प्रकृति यह संश्लेषणात्मक (Anabolic) प्रक्रिया है। यह विघटनात्मक (Catabolic) प्रक्रिया है।
    2. स्थान यह पर्णहरित युक्त कोशिकाओं में होता है। यह सभी जीवित कोशिकाओं में होता है।
    3. कोशिकांग यह क्लोरोप्लास्ट में होता है। यह माइटोकॉन्ड्रिया में होता है।
    4. गैस ग्रहण इसमें CO2 ग्रहण की जाती है। इसमें ऑक्सीजन ग्रहण होती है।
    5. गैस विमुक्त इसमें O2विमुक्त होती है। इसमें CO2 विमुक्त होती है।
    पौधों में जल व पदार्थ का संवहन
    अर्थ:
    पदार्थों को शरीर के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना ही पदार्थों का संवहन कहलाता है।
    संवहन की विधियाँ
    • विसरण (Diffusion)
      अर्थ: किसी भी पदार्थ के कणों का अपनी अधिक सांद्रता वाले स्थान से अपनी कम सांद्रता वाले स्थान की ओर गमन विसरण कहलाता है।
      उदाहरण: बंद कमरे के एक कोने में इत्र की शीशी खोल दें तो कुछ ही समय बाद इत्र की सुगन्ध पूरे कमरे में फैल जाएगी।
    • परासरण (Osmosis)
      अर्थ: विलायक के अणुओं की गति कम सांद्रता वाले घोल से अधिक सांद्रता वाले घोल की ओर होती है। इसी को परासरण कहते हैं।
      उदाहरण:
    • किशमिश को यदि पानी में भिगो दें तो कुछ समय बाद वह फूल जाती है।
    • इसके विपरीत अंगूर को चीनी के गाढ़े घोल में डालने से अंगूर पिचक जाता है। इस बार पानी के अणुओं का परासरण अंगूर से बाहर होता है।
      जीवद्रव्य कुंचन (Plasmolysis)
      अतिपरासरी घोल के प्रभाव में जीवद्रव्य का कोशिका भित्ति से हटकर सिकुड़ने की घटना को जीवद्रव्य कुंचन कहते हैं।
      स्फीति में वृद्धि होने से जीवद्रव्य फैलकर कोशिका भित्ति से सट जाएगा।
      इस क्रिया को जीवद्रव्य विकुंचन (Deplasmolysis) कहते हैं।
      अन्तः शोषण (Imbibition)
      अन्तः शोषण (Imbibition) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी विलायक के अणु किन्हीं पदार्थों द्वारा अधिशोषित (Adsorbed) कर लिए जाते हैं और पदार्थ फूल जाता है।
      सूखी लकड़ी व चुरानों में यह दबाव बहुत ज्यादा होता है।
      बिन्दु स्त्राव (Guttation)
      पौधों में द्रव के रूप में अतिरिक्त जल के निकलने को बिन्दु स्त्राव कहते हैं।
      बिन्दु स्त्राव द्वारा निकला जल शुद्ध नहीं होता है।
      प्रत्येक जल रंध्र की रचना बाह्यत्वचा में एक छिद्र (Pore) द्वारा होती है।
      जल रंध्र पत्तियों की शिराओं के अग्र सिरों पर स्थित होते हैं।
      पौधों की पत्तियों में उपस्थित रंध्रों द्वारा जल का जल बूंदों के रूप में बाहर निकलना बिन्दुस्त्राव कहलाता है।
      बिन्दुस्त्राव की क्रिया प्रायः सुबह के समय होती है।
      जैसे: घास एवं पेड़ों की पत्तियों पर छोटी-छोटी ओस की बूंदें बिन्दुस्त्राव का उदाहरण है।
      बिन्दु स्त्राव पौधों में उत्सर्जन की क्रिया में भी सहायक है। इसके द्वारा पौधों के शरीर में उपस्थित अत्यधिक लवणीय पदार्थ बाहर निकल जाते हैं।
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