आवृतबीजी पादपों की आकारिकी

अर्थ :-
पौधों के विभिन्न अंगों जैसे, जड़ों, तनों, पत्तियों, पुष्यों, फलों व बीजों आदि की रचना व उनके विकास का अध्ययन पादप आकारिकी कहलाता है।

अर्थ :- पौधे की मुख्य अक्ष का भूमिगत भाग जड़ कहलाता है।

जड़ या मूल (Root)

स्थान :- पृथ्वी के नीचे वाला भूरा तथा मटमैला भाग

कार्य:-

  1. पौधे को भूमि पर स्थित रखता है।
  2. मिट्टी से खनिज लवणों व जल का अवशोषण करता है।

मूल तंत्रो के प्रकार (Types of Root System)

मूसला जड़ (Tap Root System):-
बीजाक्ष का मूलांकुर नामक भाग मिट्टी के अन्दर जड़ तंत्र बनाता है।
इसके चारों तरफ पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं।
वह मूल तंत्र जिसमें प्राथमिक जड़ स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है, मूसला जड़ तंत्र कहलाती है।

अपस्थानिक जड़ तंत्र (Adventitious Root System)
जब जड़ें मूलांकुर की बजाए अन्य स्थान से निकलती हैं तो ऐसे जड़ तंत्र को उपस्थानिक जड़ तंत्र कहते हैं।


मूसला जड़ों के रूपान्तर (Modification of Root)

मूसला जड़ों की आकृति के आधार पर वर्गीकरण :-

  1. तुर्क रूप (Fusiform): यह जड़ें बीच में मोटी तथा दोनों सिरों पर पतली होती हैं।
    उदाहरण :- मूली
  2. कुंभी रूप (Napiform)
    इसमें जड़ का ऊपरी भाग फूला हुआ तथा नीचे से पतला होता है।
  3. शंकुरूप (Conical)
    इसका आधारित भाग चौड़ा तथा नीचे से पतला होता है।
    उदाहरण: गाजर
  4. गांठदार मूल (Tuberous Root):-
    जड़ें मोटी व मांसल होती हैं।
    इसकी कोई निश्चित आकृति नहीं होती है।

जड़ों की शाखाओं के रूपान्तर (Modification of Branch Roots)


अपस्थानिक जड़ों के रूपान्तर (Modification of Adventitious Roots)

  1. भोजन पदार्थों के संचय के लिए (For Storage of Food):-

(i) कंदिल जड़ें
भोज्य पदार्थों के संचय के फलस्वरूप फूली हुई होती हैं।
उदाहरण: शकर कंद

(ii) पुलकित जड़ें (Fasciculated Roots):-
अनेक मांसल फूली हुई जड़ें गुच्छे के रूप में तने के आधार से निकलती हैं।
उदाहरण :- डहलिया

(iii) ग्रन्थिल जड़ें (Nodulose Roots):-
जड़ों के केवल सिरे फूल कर मांसल हो जाते हैं।
उदाहरण: आमहल्दी

(iv) मणिकामय जड़ें (Moniliform Roots) :-
यह जड़ें जगह जगह से फूली हुई अर्थात मणिकाओं की माला की तरह होती हैं।
उदाहरण: करेला

  1. यांत्रिक सम्बल प्रदान करने के लिए
    (For Providing Mechanical Support)

(i) स्तम्भ मूल (Prop Roots)
इनकी जड़ें मोटी होकर जमीन में प्रवेश कर जाती हैं।
उदाहरण: बरगद, इण्डियन रबर आदि

(ii) अवस्तम्भ मूल (Stilt Roots):-
यह जड़ें तने के पास से निकल कर भूमि में तिरछी धंस जाती हैं।
उदाहरण: मक्का, गन्ना

(iii) आरोही जड़ें (Climbing Roots)
इनके अगले सिरे फूल कर छोटी छोटी ग्रन्थियां बनाते हैं जिनसे चिपचिपा पदार्थ निकलता है।

  1. अन्य जैविक क्रियाओं के लिए रूपान्तरित जड़ें
    (Roots Modified for Performing other Vital functions)

(i) चूषण मूल (Sucking Roots):-
परजीवी पौधों में विशेष प्रकार की जड़ें उत्पन्न होती हैं जो पोषक पौधे के ऊतकों में प्रवेश कर भोजन का अवशोषण करती हैं।

(ii) श्वसन मूल (Respiratory Roots):-
जलीय पौधों में प्लावी शाखा से विशेष प्रकार की नर्म व स्पंजी जड़ें निकलती हैं।
यह तैरने तथा श्वसन में सहायक होती हैं।

(iii) अधिपादपी मूल (Epiphytic Roots) :-
यह वायवीय जड़ें अधिपादपों जैसे आर्किड की पत्तियों के कक्ष से निकलकर हवा में लटकी होती हैं।
उदाहरण :- आर्किड

(iv) स्वांगीकारक जड़ें (Assimilatory Roots) :-
यह जड़ें तने के आधार से निकल कर फैल जाती हैं।
यह बेलनाकार की होती हैं।
उदाहरण :- सिंघाड़ा


जड़ों के रचनात्मक भाग

(a) मूल गोप (Root Cap):-
जड़ के सिरे पर एक टोपीनुमा संरचना होती है।
जलीय पौधे में यह अनुपस्थित होती है।
इनकी कोशिकाएँ निरन्तर बनती रहती हैं।

(b) वृद्धि क्षेत्र या कोशिका विभाजन का क्षेत्र (Region of growth or Cell Division)
जड़ के सिरे पर मूल गोप के ठीक नीचे होता है।
इसे प्रविभाज्य क्षेत्र भी कहते हैं।

(c) दीर्घीकरण क्षेत्र (Region of elongation) :-
यह वृद्धि क्षेत्र के ठीक ऊपर होता है।
इस क्षेत्र में कोशिकाएँ तीव्र गति से बढ़ती हैं।

(d) परिपक्वन क्षेत्र (Region of Maturation) :-
यह दीर्घीकरण क्षेत्र के ठीक ऊपर वाला क्षेत्र है।
इस क्षेत्र में अनेक धागेनुमा महीन रचनाएँ होती हैं जिन्हें मूल रोम कहते हैं।
मूल रोम भूमि से जल तथा घुलित खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं।


जड़ों की विशेषताएँ (Characteristic of Roots)

(i) इनकी उत्पत्ति मूलांकुर (Radicle) से होती है।
(ii) यह पौधों का अवरोही (Descending) भाग है।
(iii) इनका सिरा मूल गोप (Root Cap) द्वारा सुरक्षित रहता है।
(iv) इन पर एक कोशिकाएँ रोम (Unicellular Hairs) होते हैं।


तना

अर्थ :-
पौधे का वह भाग जो प्रांकुर (Plumule) से विकसित होता है, तना (Stem) कहलाता है।
यह पौधों को दृढ़ता प्रदान करता है।
जड़ों द्वारा अवशोषित जल व खनिज लवणों को पौधों के अन्य अंगों तक पहुँचाता है।


तने की विशेषता (Characteristic of the Stem)

इसका विकास प्रांकुर (Plumule) से होता है।
यह पौधे का आरोही (Ascending) भाग है।
इससे शाखाएँ, पत्तियां एवं पुष्प निकलते हैं।
शीर्ष पर ‘शीर्षस्थ’ कलिका होती है जिससे लम्बाई में वृद्धि होती है।
पत्तियों के कक्ष में “कक्षस्थ कलिका” होती है जिससे शाखाएँ जन्म लेती हैं।
शाखाएँ व पत्तियां प्रायः पर्वसन्धियों से निकलती हैं।

  1. ऊर्ध्वशीर्षी तने (Erect Stems)
    प्रायः पौधों के तने मजबूत व सीधे खड़े होते हैं।
    यह अशाखित बेलनाकार जिस पर पत्तियों के गिरने से चिन्ह बने होते हैं।
    उदाहरण: ताड़

दुर्बल तने (Weak Stems)
यह सीधे खड़े नहीं रहते।

  1. श्यान (Prostrate) या प्रोकम्बेन्ट (Procumbent) कहते हैं।
    उदाहरण :- पोर्त्सूलका (Portulaca)
  2. डीकम्बेन्ट (Decumbent)
    यह तना धरातल पर फैला होता है।
    उदाहरण : ट्राइडेक्स (Tridex)
  3. विसर्पी (Creeping)
    इसकी पर्वसन्धियों से मूल निकलती हैं।
    उदाहरण : ओक्सेलिस कोर्निकुलेटा (Oxalis Corniculata)
  4. बाझरी (Twining)
    यह तना किसी भी आधार पर लिपटकर चढ़ते हैं।
    इनकी कोई आकृति नहीं होती हैं।
    उदाहरण: अमरबेल (Cuscuta)
  5. मूलिका आरोही (Rootlet Climbers)
    यह पर्वसन्धि से निकलने वाली मूलिकाओं से निकलती हैं।
    उदाहरण :- पान

तनों के रूपान्तरण (Modification of Stems)

सामान्य कार्यों के अतिरिक्त कुछ पौधों में तने विशेष कार्य भी करते हैं।
कायिक जनन, प्रकाश संश्लेषण आदि।

  1. भूमिगत रूपान्तर (Underground modification)
    यह भोजन के संचय (Food Storage) का कार्य करते हैं।
    यह अनुकूल परिस्थितियों में हर वर्ष वायवीय प्ररोहों (Aerial Shoots) को जन्म देते हैं।
    भोज्य पदार्थों के संचित हो जाने के कारण यह फूल कर मांसल हो जाते हैं।
    आकार एवं भूमिगत स्थिति के आधार पर इसके प्रकार निम्न हैं:

(i) प्रकन्द (Rhizome)
यह मोटे तने होते हैं।
यह भूमि के अन्दर मिट्टी के समानान्तर क्षैतिज दिशा में वृद्धि करते हैं।
उदाहरण : अदरक, हल्दी

(ii) कंद (Tuber)
अत्यधिक भोज्य पदार्थों के संचय के कारण इन शाखाओं के अगले सिरे फूल कर मोटे हो जाते हैं।
इसकी सतह पर अनेक गड्ढे होते हैं जिन्हें आँखें (Eyes) कहते हैं।
प्रत्येक आँख एक शल्क पत्त्र होता है तथा प्रसुप्त कलिकाएँ होती हैं।
उदाहरण :- आलू

(iii) शल्क कंद (Bulb)
यह संघनित (Condensed) प्ररोह यंत्र होते हैं।
इनकी पत्तियां मांसल होती हैं।
यह तना छोटा व चपटा होता है, यह उगकर कभी भूमि के ऊपर नहीं आता।
इसके बाहर की ओर सूखे शल्क पत्र अन्दर की ओर उपस्थित पत्तियों की रक्षा करते हैं।
उदाहरण :- प्याज, लहसुन

(iv) घनकंद (Corm)
इस प्रकार के तने भोजन का संचय करते हैं।
इनके पौधों के आधार फूले हुए होते हैं।
यह भूमि में ऊर्ध्वाधर वृद्धि करते हैं।
उदाहरण :- अरबी, जिमीकन्द


  1. अर्द्धवायवीय रूपान्तर (Subaerial Modification)

इस प्रकार के तने का कुछ भाग भूमि में तथा शेष भाग वायु में होता है।
इस तने के आधारीय भाग पर उपस्थित कलिकाएँ वृद्धि कर पार्श्व शाखाएँ विकसित करती हैं।

प्रकार :-

(i) उपरिभूस्तारी या भूप्रसारी (Runner)
यह लम्बे, पतले व कमजोर होते हैं तथा भूमि के ऊपर रेंगते हुए होते हैं।
इसकी पर्वसन्धियों से नीचे की ओर अनेक उपस्थानिक जड़ें निकलती हैं।
उदाहरण :- दूबघांस, खट्टी बूटी

(iii) भूस्तरिका (Offset)
यह अपेक्षाकृत छोटे व मोटे होते हैं।
इसमें भूस्तरिका भी पत्तियों के कक्ष से क्षैतिज शाखा के रूप में निकलती हैं।
उदाहरण :- जलकुम्भी

(iv) अन्तः भूस्तरी (Sucker)
इस प्रकार के तने पहले भूमि के अन्दर कुछ क्षैतिज वृद्धि करते हैं फिर मिट्टी में तिरछे होकर ऊपर आ जाते हैं।
उदाहरण:- गुलाब, गुलदाउदी


  1. विशेष रूपान्तर (Special Modification)

अनेक पौधों में तनों को कुछ विशेष कार्य करने होते हैं।
जैसे आरोहण, प्रकाश संश्लेषण, प्रतिरक्षा आदि।
इसमें तने का रूप पूरी तरह बदल जाता है।

(i) तना प्रतान (Stem Tendril)
इसमें शाखाओं के सिरे से पतले धागे के समान कुंडलित रचनाएँ निकलती हैं।
उदाहरण – लौकी, अंगूर

(ii) कंटक (Thorns)
यह कठोर तथा नुकीली होती हैं।
यह अग्रस्थ तथा कक्षस्थ कलिकाओं के रूपान्तरण से बनती हैं।
उदाहरण – नीबू

(iii) पर्णकाय या पर्णाभ स्तम्भ (Phylloclade)
इनका तना मांसल, चपटा, बेलनाकार या गोल, हरे रंग की रचना में परिवर्तित हो जाता है।
पत्तियां रूपान्तरित होकर कांटों या शल्क पत्रों में बदल जाती हैं।
यह प्रकाश संश्लेषण का कार्य करता है।

(iv) पर्णाभ पर्व (Cladode)
इसकी पर्वसन्धियों से छोटी हरी, बेलनाकार अथवा चपटी शाखाएँ निकलती हैं।
इसकी शाखाएँ पत्तियों के कक्ष से निकलकर स्वयं रूपान्तरित हो जाती हैं। तनों के इस रूपान्तरणों को पर्णाभ पर्व कहते हैं।
उदाहरण:- शतावर

(v) पत्र प्रकलिका (Bulbils)
इस प्रकार के पौधों की कक्षस्थ एवं पुष्प कलिकाएं विशेष छोटी होती हैं।
इन्हें पत्र-प्रकलिका कहते हैं।
यह अनुकूल मौसम में विकसित होकर नए पौधों को जन्म देते हैं।
उदाहरण- प्याज, लहसुन, घिया


पत्ती (Leaf)

पत्तियों का हरा रंग उनमें विद्यमान पर्णहरित या क्लोरोफिल के कारण होता है जिसकी सहायता से यह प्रकाश संश्लेषण करती है।


पत्ती के भाग

(i) पत्राधार
(ii) पर्णवृन्त
(iii) पर्णफलक

(i) पत्राधार (Leaf Base)
यह पत्ती का सबसे निचला भाग होता है।
इसके द्वारा पत्ती तने से जुड़ी होती है।

(ii) पर्णवृन्त (Petiole)
यह एक लम्बा तथा डंठल समान होता है।
उदाहरण आम, पीपल

(iii) पर्णफलक (Lamina or Leaf Blade)
यह पत्ती का हरा, चपटा व फैला हुआ भाग होता है।
इसमें पर्णवृन्त से लेकर पत्ती तक प्रायः मोटी शिराएँ होती हैं।
यह शिराएँ पर्णफलक को कंकाल की भांति दृढ़ता प्रदान करता है।
पर्णफलक में शिराओं के विन्यास को शिराविन्यास कहते हैं।
शिराविन्यास दो प्रकार की होती है: (1) जालिकावत तथा समानान्तर।

(a) जालिकावत शिराविन्यास :-
यह अनेक शाखाओं में बंट कर पर्णफलक के अन्दर जाल बनाती है।
उदाहरण पीपल, आम, गुलाब

(b) समानान्तर शिराविन्यास :-
यह एक बीजपत्री पौधे होते हैं।
उदाहरण:- गन्ना, केला


पत्तियों के रूपान्तरण (Modification of Leaves)

(a) पर्णप्रतान (Leaf tendrils)
इसमें पत्तियों का रूपान्तरण होकर लम्बी, पतली, तारनुमा रचना में बदल जाती है।
यह अतिसंवेदनशील होती है।
उदाहरण : मटर

(b) पर्ण शूल (Leaf Spines)
इसमें पत्तियों का रूपान्तरण नुकीली रचना में हो जाता है।
उदाहरण :- नागफनी

(c) पर्णाभवृन्त (Phyllode)
इसमें पर्णवृन्त का कुछ भाग चपटा एवं हरा होकर पर्णफलक जैसा हो जाता है।
इसमें पौधों की सामान्य पत्तियां नवोद्भिद (Seedling) अवस्था में गिर जाती हैं।
उदाहरण : ऑस्ट्रेलियन बबूल

(d) घटपर्णी (Leaf pitcher)
इसमें पत्ती का पर्णाधार चौड़ा, चपटा व हरे रंग का होता है।
इसमें फलक घटक का तथा घटक ढक्कन का रूप ले लेता है।
इस प्रकार की पत्ती की संरचना का आकार 20-30cm होता है।
इसमें कीट गिरने पर कीटों को पाचक रसों द्वारा पचा लिया जाता है।

(e) कोषाकार – पर्ण (Bladder & Shaped Leaves)
इस प्रकार के पौधों में मुख पर प्रवेश द्वार होता है।
इसमें छोटे छोटे जलीय जन्तु प्रवेश कर सकते हैं।
इसकी थैली के अन्दर उत्पन्न एन्जाइम जन्तुओं को पचा लेता है।
उदाहरण: यूट्रीकुलेरिया नामक पौधा


पुष्प

पुष्प किसी सहपत्र के कक्ष से विकसित होता है। इसमें एक पुष्पवृन्त होता है। पुष्पवृन्त होने पर पुष्प सवृन्त तथा न होने पर अवृन्त कहलाता है। वृन्त ऊपरी सिरे पर फूलकर पुष्पासन बनाता है। इसी पुष्पासन पर पुष्प के अवयव तने पर लगी पत्तियों की भाँति ही विन्यासित रहते हैं। इनका विन्यास सर्पिल या चक्रिक होता है। कभी कभी दोनों क्रम मिले जुले होते हैं, तब पुष्प को स्पाइरोसाइक्लिक या हैमीसाइक्लिक कहते हैं। पुष्प में निम्न अवयव होते हैं-

  1. सहायक चक्र (Accessory whorls):

(i) बाह्यदलपुंज- पुष्प में सबसे बाहर हरे रंग की संरचनाएँ एक चक्र के रूप में उपस्थित होती है। इस चक्र को बाह्यदलपुंज तथा इसकी प्रत्येक इकाई को बाह्यदल कहते हैं। बाह्यदल कलिका अवस्था में पुष्प के आंतरिक अंगों की सुरक्षा करते हैं।

(ii) दलपुंज- बाह्यदलपुंज के अंदर का चक्र दलपुंज तथा इसकी प्रत्येक इकाई दल कहलाती है। दल सामान्यतः रंगीन होते हैं। रंगीन होने के कारण दल कीटों को आकर्षित करते हैं, जिससे परागण में सहायता मिलती है। साथ ही ये कलिका अवस्था में बाह्यदल के साथ मिलकर आंतरिक अंगों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

  1. आवश्यक चक्र (Essential whorls): इन चक्रों के अवयव जनन में भाग लेते हैं, अतः ये आवश्यक चक्र कहलाते हैं।

(i) पुमंग- यह तीसरा आंतरिक चक्र होता है। इसकी प्रत्येक इकाई पुंकेसर कहलाती है। पुंकेसर एक पतले वृन्त पुतन्तु तथा घुण्डी जैसी संरचना परागकोश से मिलकर बनता है। परागकोश में परागकणों का निर्माण होता है। प्रत्येक पुंकेसर एक लघु बीजाणु पर्ण होता है।

(ii) जायांग- यह सबसे अंदर का चक्र होता है। इसकी इकाई को स्त्रीकेसर या अण्डप कहते हैं। प्रत्येक अण्डप एक गुरुबीजाणुपर्ण होता है। इसके तीन भाग होते हैं-

वर्तिकाग्र – यह शीर्षस्थ भाग होता है। यह गोल, घुण्डीदार व सामान्यतः चिपचिपा होता है।

वर्तिका- यह मध्य भाग है, जो वृन्त के समान होता है।

अण्डाशय – यह अण्डप का सबसे नीचे का भाग होता है। यह पुष्पासन पर लगा रहता है तथा इसमें बीजाण्ड बनते हैं। पुष्प के चारों अवयव उपस्थित होने पर इसे पूर्ण तथा एक भी चक्र अनुपस्थित होने पर अपूर्ण पुष्प कहते हैं।

दोनों भीतरी चक्र पुमंग तथा जायांग उपस्थित होने पर पुष्प को द्विलिंगी या उभयलिंगी कहते हैं। ये दोनों ही अंग जब अनुपस्थित होते हैं, तो पुष्प नपुंसक कहलाता है। जब इन दोनों में से केवल कोई एक चक्र उपस्थित होता है, तो पुष्प एकलिंगी कहलाता है। केवल पुमंग उपस्थित होने पर पुष्प नर या पुंकेसरीय कहलाता है। केवल जायांग उपस्थित होने पर पुष्प मादा या जायंगी कहलाता है। नर व मादा पुष्प जब एक ही पौधे पर (उदा. मक्का) लगे होते हैं, तो उस पौधे को उभयलिंगाश्रयी तथा जब अलग अलग पौधे पर (उदा. पपीता) हों, तो उसे एकलिंगाश्रयी कहते हैं। कई बार जब पौधे पर उभयलिंगी पुष्पों के साथ एकलिंगी व द्विलिंगी पुष्प भी लगे होते हैं (उदा. आम व पोलीगोनम) तो वह सर्वलिंगी कहलाता है। जब उभयलिंगी पुष्प व मादा पुष्प एक ही पौधे पर हों उसे गाइनोमोनोइसियस तथा उभयलिंगी पुष्प व नर पुष्प एक ही पौधे पर हो, तो उसे एण्ड्रोमोनोइसियस कहते हैं।


फल (Fruit)

किसी पुष्प के अण्डाशय वाले भाग से फल का निर्माण होता है तो ऐसे फल सत्य फल कहलाते हैं।
जब फल के निर्माण में पुष्प के अण्डाशय के अलावा पुष्प के अन्य भाग भी उपयोग में आते हैं। तो ऐसे फल असत्य फल कहलाते हैं। जैसे कटहल, नाशपती व सेब असत्य फल हैं।

परागकोष से परागकणों का पुष्प के वर्तिकाग्र तक पहुँचना परागण की क्रिया कहलाती है।


फल का खाने योग्य भाग

फल खाने योग्य भाग
सेब गुद्देदार पुष्पासन
नाशपती गुद्देदार पुष्पासन
आम मध्य फल भित्ती
पपीता मध्य फल भित्ती
नारियल भ्रूणपोष
केला मध्य व अन्तःफल भित्ती
नींबू रसीले रोम
अनार रसीले बीज चोल
गेहूं भ्रूणपोष व भ्रूण
काजू पुष्पवृन्त व बीजपत्र
सिंघाड़ा बीजपत्र व भ्रूण
चना बीजपत्र व भ्रूण
भिन्डी सम्पूर्ण फल

Note: चाय का वैज्ञानिक नाम: थियासाइनेनसिस (यह पत्तियों से प्राप्त होती है।)
कॉफी का वैज्ञानिक नाम: कोफिया अरेबिका (यह बीज से प्राप्त होती है।)


सब्जियां (Vegetables)

सब्जियां विटामिन, खनिज पदार्थ व जल की प्रचुर स्त्रोत होती हैं।
सब्जियां पौधे के लगभग सभी भागों से प्राप्त होती हैं।

प्रमुख सब्जियां और उनके वैज्ञानिक नाम:

साधारण नाम वैज्ञानिक नाम
बैंगन सोलेनम मैलोन्जीना
टमाटर लाइकोपर्सिकम
भिन्डी एब्लमास्कस ऐस्कुलॅटम
प्याज एलियम सैपा
मिर्च कैप्सिकम स्पीशीज
आलू सोलेनम ट्युवरोसम
फूलगोभी ब्रेसिका ओलेरेसिया बैराइटी बोटाइटिस
पत्तागोभी ब्रेसिका ओलेरेसिया बैराइटी कैपिटाटा

पौधे का भाग प्राप्त सब्जियां
फल से प्राप्त भिन्डी, बैंगन, टमाटर
फूल से प्राप्त गोभी
पत्तियों से प्राप्त पत्तागोभी
तने से प्राप्त आलू
जड़ से प्राप्त गाजर


दालें (Pulses)

दालों के बीज पत्र प्रोटीन व अमीनो अम्लों के प्रचुर स्त्रोत होते हैं।
चना दालों का राजा होता है।
भारत का चना उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान है।
सोयाबीन में प्रोटीन 35 से 40% होता है।

साधारण नाम वैज्ञानिक नाम
चना साइसर एराइटिनम
मूंग विग्ना रेडियेटा
उड़द विग्ना मूंगो
अरहर कैजेनस कैजान


अनाज (Cereals)

अनाज के दानों को कैरियोप्सिस कहते हैं।
हरित बाली रोग बाजरे का प्रमुख रोग है।
लाल विलगन रोग गन्ने का प्रमुख रोग है।
अनाजों से हमें मुख्यतः कार्बोहाइड्रेट प्राप्त होती है।

धान (Rice): वैज्ञानिक नाम ओराइजा सेटाइवा
उगाने के लिए अनुकूल तापमान 20-35°C होता है।
वर्षा 100 सेमी वार्षिक।
किस्में: जया, पदमा, साबरमती, बासमती

गेहूँ (Wheat):- वैज्ञानिक नाम ट्रिटिकम एस्टाइवम
उगाने के लिए अनुकूल तापमान 15-20°C होता है।
वर्षा 25-75 सेमी वार्षिक।
किस्में: शरबती, सोनारा, कल्याण सोना

मक्का (Maize):- वैज्ञानिक नाम जिआ मेज
उगाने के लिए अनुकूल तापमान 35°C होता है।
वर्षा 75 सेमी, वार्षिक।
किस्में: विजय, गंगा, रतन, शक्ति, बेबी कॉर्न

बाजरा (Bajra):- वैज्ञानिक नाम पेनिसिटम अमेरिकेनम
उगाने के लिए अनुकूल तापमान 25-30°C होता है।
वर्षा 45 सेमी. वार्षिक।
किस्में:- पुसा संकर-415, पुसा कम्पोजिट-334

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